पिछली सरकार ने कॉरपोरेट को बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था में कार्य करने की अनुमति दे दी और सोचा कि ग़रीबों की मदद के लिए मनरेगा और खाद्य सुरक्षा क़ानून बना देने से काम चल जाएगा. मानो, वे समाज के समाजवादी पैटर्न पर वापस जा रहे हैं, जहां अमीर सामान्य तरीके से अपना कारोबार चलाता है और ग़रीबों के लिए कुछ करने की कोशिश करता है. अब नई सरकार और प्रधानमंत्री की उपलब्धियां क्या हैं, हमें नहीं मालूम. क्या वह मनरेगा को चलाएंगे या बंद करेंगे, नहीं मालूम. खाद्य सुरक्षा क़ानून का क्या होगा, नहीं मालूम.
नई सरकार ने सौ से अधिक दिन पूरे कर लिए हैं, लेकिन आम नागरिक अभी भी वास्तव में नहीं जानता है कि आख़िर हो क्या रहा है. कुछ संकेत ज़रूर आए हैं कि प्रधानमंत्री ने एक छोटा-सा कैबिनेट (क्लस्टर ऑफ मिनिस्ट्रीज) बनाया है, जो तीव्र गति से मंजूरी देने का काम कर रहा है, पर्यावरण मंजूरी आदि को आसान बनाया जा रहा है. लेकिन, हम यह नहीं जानते कि ज़मीन पर यह काम कैसे होगा? पूरी कार्य प्रणाली काफी गोपनीय बनी हुई है. पूर्ववर्ती सरकारों में ऐसा नहीं हुआ. यह पता ही नहीं चल पा रहा है कि कौन प्रधानमंत्री से मिला, कौन नहीं मिला. समाचार-पत्रों में कोई ख़बर ही नहीं आ रही है. हालांकि यह भी सच है कि देश के बहुत सारे उद्योगपतियों ने प्रधानमंत्री से मुलाकात की है, लेकिन पिछली सरकारों के विपरीत ये मुलाकातें काफी गोपनीय हैं. पहले की तरह अख़बारों में कोई तस्वीर नहीं है. न तो उद्योगपति और न ही पीएमओ किसी को यह बता रहे हैं कि कौन किससे मिला.
यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है, लेकिन तथ्य यह है कि लोकतंत्र में लोगों को यह पता लगता रहे कि क्या हो रहा है, तो सहजता बनी रहती है. उन्हें अच्छा लगता है. संघ परिवार के सदस्य भी यहां-वहां लोगों से मिल रहे हैं और वे खुश हैं कि देश में उनकी सरकार है. वे यह भी कह रहे हैं कि सरकार बहुत अच्छी तरह से काम कर रही है. उनका दावा है कि कश्मीर समस्या भी सुलझने ही वाली है, क्योंकि भाजपा कश्मीर में चुनाव जीतने जा रही है. इस तरह की ज़ुबानी बातें चारों ओर फैल रही हैं, बिना यह सोचे कि समस्या क्या है और उसका समाधान क्या हो सकता है? कॉरपोरेट सेक्टर उत्साहित है, लेकिन ज़मीन पर ऐसा कुछ भी होता या उतरता नहीं दिख रहा है, जिससे यह लगे कि यूपीए-2 स्थिति के मुकाबले कोई बदलाव आया है. अभी तक ऐसा नहीं लग रहा है.
यह बहुत महत्वपूर्ण नहीं है, लेकिन तथ्य यह है कि लोकतंत्र में लोगों को यह पता लगता रहे कि क्या हो रहा है, तो सहजता बनी रहती है. उन्हें अच्छा लगता है. संघ परिवार के सदस्य भी यहां-वहां लोगों से मिल रहे हैं और वे खुश हैं कि देश में उनकी सरकार है. वे यह भी कह रहे हैं कि सरकार बहुत अच्छी तरह से काम कर रही है. उनका दावा है कि कश्मीर समस्या भी सुलझने ही वाली है, क्योंकि भाजपा कश्मीर में चुनाव जीतने जा रही है. इस तरह की ज़ुबानी बातें चारों ओर फैल रही हैं, बिना यह सोचे कि समस्या क्या है और उसका समाधान क्या हो सकता है? कॉरपोरेट सेक्टर उत्साहित है, लेकिन ज़मीन पर ऐसा कुछ भी होता या उतरता नहीं दिख रहा है, जिससे यह लगे कि यूपीए-2 स्थिति के मुकाबले कोई बदलाव आया है. अभी तक ऐसा नहीं लग रहा है. जापान ने बहुत सारे पैसे देने का वादा किया है, लेकिन ऐसा वादा यूपीए-2 के शासन में भी किया गया था. केवल बातों से कोई गारंटी नहीं दे सकता कि पैसे आ रहे हैं. सवाल है कि पैसा किन शर्तों पर आ रहा है, उससे क्या फ़ायदा होने वाला है?
इस बीच कुछ अन्य चीजें थोड़ा परेशान कर रही हैं. राज्यपाल के रूप में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति ऐसा ही मसला है. सरकार के लिए एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश को किसी तरह का ईनाम देना साफ़ तौर पर गलत है. यह उसके लिए एक अपमान है, लेकिन यह भी अधिक आश्चर्य की बात है कि संबंधित सज्जन ने इसे स्वीकार कर लिया है. मैं नहीं समझता कि भारत के मुख्य न्यायाधीश का कार्यालय इस तरह के आचरण से अधिक पवित्र या सम्मानजनक हो जाता है. वास्तव में एक मुख्य न्यायाधीश को सेवानिवृत्ति के बाद कोई भी काम करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. इसके लिए अमेरिकी तर्ज पर एक मुख्य न्यायाधीश को उसके पूरे जीवनकाल तक वेतन दिया जा सकता है.
अब बात प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा को लेकर. वर्तमान में उनके लिए व्यक्तिगत स्तर पर यह एक बड़ा समय है, क्योंकि एक देश, जिसने उन्हें वीजा देने से मना कर दिया था, आज रेड कार्पेट के साथ उनका स्वागत करने जा रहा है. लेकिन, अब वह अमेरिका भारत के प्रधानमंत्री की हैसियत से जा रहे हैं, न कि व्यक्तिगत रूप से. प्रधानमंत्रियों का हमेशा अमेरिका में स्वागत होता रहा है. उनके लिए खास यह होगा कि उन्हें वहां अनिवासी भारतीयों की बड़ी सभा को भी संबोधित करना है. मैं समझता हूं कि 20,000 लोगों की भीड़ वहां इकट्ठा होने जा रही है, जो विदेशी अतिथि के लिए निश्चित रूप से अमेरिका में सबसे बड़ी भीड़ होगी. अमेरिका ने ऐसा कभी नहीं देखा होगा. यह वहां के लिए एक बड़ी राजनीतिक घटना होगी. लेकिन, वहां एक बड़ी संख्या गुजराती प्रवासियों एवं अन्य अनिवासी भारतीयों की है और वे उत्साहित हैं. वे नरेंद्र मोदी को एक गर्मजोशी भरा ऐसा स्वागत देंगे, जिससे न्यूयॉर्क और वाशिंगटन में एक छोटी-सी हलचल पैदा होगी.
ओबामा के साथ उनकी चर्चा का मुद्दा क्या होगा, हम नहीं जानते. वह अमेरिका से क्या चाहते हैं, क्या तलाश रहे हैं, हम नहीं जानते. मनमोहन सिंह एवं जॉर्ज बुश ने पुराने परमाणु बिल पर हस्ताक्षर किए थे, जिसके बाद कुछ हुआ नहीं. क्या हम इसे आगे बढ़ाना चाहते हैं? हमने भारत-अमेरिका सैन्य अभ्यास किया, जो अपनी अवधारणा में पूरी तरह से गलत था, लेकिन वह यूपीए सरकार द्वारा शुरू कर किया गया था और चल रहा है. यूपीए-2 का अमेरिका के साथ दोस्ताना एवं मजबूत रिश्ता था. हम पहले से ही एक उदारवादी व्यवस्था में हैं. ऐसा नहीं है कि अब जाकर भारत समाजवादी व्यवस्था से बाज़ार आधारित व्यवस्था की ओर जाने वाला है. शासन का चरित्र वही पुराना है. नए प्रधानमंत्री अमेरिका के रवैये के बारे में निश्चित नहीं हैं. इसलिए वह जापान और चीन पर अधिक भरोसा करना चाहते हैं. लेकिन, अमेरिका के लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है कि भारत का प्रधानमंत्री कौन है. अमेरिका के लिए भारत एक बड़ा बाज़ार है और हमारे लिए भारत एक राष्ट्र है. प्रधानमंत्री को यह भेद ध्यान में रखना चाहिए. भारत को बाज़ार के तौर पर इस्तेमाल करने की अनुमति देने से हो सकता है कि कॉरपोरेट जगत खुश हो जाए और मॉल, फ्लाईओवर, सड़कों एवं राजमार्गों की शानदार सीरीज तैयार हो जाए, लेकिन यह सब भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों के अनुरूप हमारी ज़रूरतें पूरी नहीं कर पाएगा. ग़रीब आदमी खुद को ग़रीब ही महसूस करेगा और उसे इससे बाहर निकलने का कोई रास्ता भी नहीं दिखेगा.
पिछली सरकार ने कॉरपोरेट को बाज़ार आधारित अर्थव्यवस्था में कार्य करने की अनुमति दे दी और सोचा कि ग़रीबों की मदद के लिए मनरेगा और खाद्य सुरक्षा क़ानून बना देने से काम चल जाएगा. मानो, वे समाज के समाजवादी पैटर्न पर वापस जा रहे हैं, जहां अमीर सामान्य तरीके से अपना कारोबार चलाता है और ग़रीबों के लिए कुछ करने की कोशिश करता है. अब नई सरकार और प्रधानमंत्री की उपलब्धियां क्या हैं, हमें नहीं मालूम. क्या वह मनरेगा को चलाएंगे या बंद करेंगे, नहीं मालूम. खाद्य सुरक्षा क़ानून का क्या होगा, नहीं मालूम. लेकिन, हम यह ज़रूर जानते हैं कि कॉरपोरेट क्षेत्र को अधिक से अधिक लाभ एवं सुविधाएं दी जाएंगी. अब यह सब कैसे आम आदमी या पूरे राष्ट्र के लिए समृद्धि लाने का काम करेगा, मुझे नहीं मालूम. बेहतर होगा, सारी स्थिति जल्द से जल्द स्पष्ट होकर सामने आए.