मनमोहन सिंह के पहले जवाहर लाल नेहरू दस वर्षों से अधिक समय तक देश का प्रधानमंत्री रहने का गौरव हासिल हुआ. यह वह दौर था जब देश लोकतंत्र का ककहरा सीख ही रहा था, लेकिन जब मनमोहन सिंह के हाथ में देश की कमान आई तब तक भारत एक परिपक्व लोकतंत्र बन चुका था. मौजूदा सरकार इस अनुभवी लोकतंत्र से भी कुछ हासिल नहीं कर पाई. यह मनमोहन सिंह, कांग्रेस और समूचे यूपीए की असफलता ही है कि वह इन दस सालों में देश को आगे ले जाने की बजाए वर्षों पीछे खींच ले गई. इस सरकार के रिपोर्ट कार्ड पर गौर करें तो सिर्फ घोटाले और भ्रष्टाचार ही पहले पायदान पर दिखते हैं और यही इस सरकार के दस साल के सफर की सबसे ब़डी उपलब्धि भी है.
वर्ष 2014 की शुरुआत है. तीन महीने के बाद देश में लोकसभा के चुनाव होंगे. लोकसभा चुनाव में कौन दल या कौन गठबंधन जीतेगा, यह अभी तक सा़फ नहीं हो पाया है. हो सकता है कि कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में यूपीए सत्ता में आ जाए. हो सकता है कि भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में एनडीए सत्ता में आ जाए. यह भी हो सकता है कि कई सारी पार्टियों का गठबंधन तीसरे मोर्चे के नाम पर आए, जिसमें कई पार्टियां बाहर रहें और वह गठबंधन कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से सरकार बना ले. ऐसे में यह भी एक संभावना है कि इसमें एक मोर्चा कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाने की कोशिश करे और दूसरा भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर सरकार बनाने की कोशिश करे. वैसे तो ज्यादातर चुनाव अस्थिर होते हैं, अनुमानों से परे होते हैं, क्योंकि जनता का दिमाग़ पढ़ पाना कंप्यूटर के वश की चीज़ नहीं है और एक मानव मन दूसरे मानव मन का आकलन कर पाए, इसकी भी संभावना कम है.
चाहे जो सत्ता में आए, लेकिन जो पिछले दस सालों से सत्ता में हैं, उनका आकलन करना ज़रूरी है. यह आकलन इसलिए कतई ज़रूरी नहीं है कि कौन सत्ता में आए, कौन सत्ता में न आए. हम उस खेल के हिस्सेदार नहीं बनना चाहते हैं, लेकिन यह आकलन इसलिए ज़रूरी है कि चाहे जो सत्ता में आए, उसके सामने सवाल रहें, ताकि दिल्ली की गद्दी पर बैठने के बाद वह उन सवालों से बचने की कोशिश करे. हालांकि यह ख़ुशफ़हमी है, क्योंकि न कोई सवालों से बचा है और न किसी ने कम सवाल खड़े किए हैं. सन् 1947 की आज़ादी और सन् 1950 में देश का संविधान लागू होने के बाद हमारा देश निरंतर समस्याओं के भंवरजाल में घिरता चला गया. गंभीरता से कभी देश की ग़रीब जनता को ध्यान में रखकर नीतियां बनी ही नहीं. नीतियों का शोर हुआ, लेकिन उनके ऊपर पालन कभी नहीं हुआ.
एक कहानी से बात शुरू करते हैं. यह कहानी नहीं है, बल्कि एक सच्ची घटना है और लोकसभा की कार्यवाही में इसका वर्णन है. चंद्रशेखर भारत के प्रधानमंत्री बने थे और 1991 में उनकी सरकार गिर गई. 1992 में पी वी नरसिम्हाराव की सरकार बनी. उनके वित्तमंत्री मनमोहन सिंह थे. मनमोहन सिंह ने आर्थिक उदारीकरण, यानी नई आर्थिक नीतियों की घोषणा संसद में की और कहा कि यह देश अगले बीस सालों में ग़रीबी से सार्थक लड़ाई लड़ता दिखाई देगा. बेरोज़गारी लगभग ख़त्म हो जाएगी. बिजली सर्वसुलभ हो जाएगी. बुनियादी ढांचा, सड़क, संचार, परिवहन और पानी, ये सब देश के लोगों को उपलब्ध होंगे. इन सबके ऊपर वह सारगर्भित भाषण दे रहे थे. इसके बाद प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव खड़े हुए और उन्होंने आर्थिक नीतियों की तारीफ़ में काफ़ी अच्छे शब्द कहे. भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर उस लोकसभा के सदस्य थे. वह दसवीं लोकसभा थी. नरसिम्हाराव बैठ गए और चंद्रशेखर ने इन नीतियों के विरोध में प्रभावशाली भाषण दिया. उन्होंने कहा कि आज से 20 साल के बाद निराशा चरम सीमा पर होगी, भ्रष्टाचार बढ़ जाएगा. ग़रीब की आशाएं ख़त्म हो जाएंगी और यह देश गृहयुद्ध के दरवाज़े पर खड़ा दिखाई देगा. उन्होंने साफ़ कहा कि जो नीतियां प्रधानमंत्री नरसिम्हाराव एवं उनके वित्तमंत्री ने देश के लिए बनाई हैं, वे देश के लिए घातक हैं. यह देश टुकड़े-टुकड़े होने की तरफ़ बढ़ चलेगा. चंद्रशेखर जी का भाषण समाप्त हुआ, तो नरसिम्हाराव खड़े हुए और उन्होंने कहा कि चंद्रशेखर जी, आप जब प्रधानमंत्री थे, तो मेरे वित्तमंत्री मनमोहन सिंह जी आपके आर्थिक सलाहकार थे. मैंने उन्हें इसलिए अपना वित्तमंत्री बनाया, क्योंकि मुझे लगा कि वह आपकी ही आर्थिक नीतियों को अमल में लेकर आएंगे. चंद्रशेखर जी फिर खड़े हुए और उन्होंने सिर्फ एक वाक्य कहा और वह वाक्य आज हमारे सामने गीता, बाइबिल और कुरान की तरह ज्ञान देता दिखाई दे रहा है. चंद्रशेखर जी ने कहा कि नरसिम्हाराव जी, मैंने आपको चाकू सब्ज़ी काटने के लिए दिया था, लेकिन आप तो उस चाकू से दिल का ऑपरेशन करने लगे. पूरा सदन सन्न रह गया. तालियों की थपथपाहट लोकसभा में गूंज गई, जिसमें कुछ कांग्रेस के सदस्य भी थे.
आज जब हम विश्लेषण कर रहे हैं, तो चंद्रशेखर जी का कहा हुआ वह वाक्य हमें यह बताता है कि सचमुच हमने सब्ज़ी छीलने वाले चाकू से दिल का ऑपरेशन किया और हमारा देश उस मुहाने पर पहुंच चुका है, जिसकी तरफ़ चंद्रशेखर जी ने इशारा किया था. मोटे तौर पर देखें और मोटे तौर पर क्यों, बारीक नज़र से भी देखें, तो जितने घोटाले और भ्रष्टाचार के खुलासे इस दौर में हुए, देश में कभी नहीं हुए. 1991 के बाद खुली अर्थव्यवस्था, यानी बाज़ार के हवाले कर दिया गया देश भ्रष्टाचार की सीमा ही लांघ गया. 1987 में हुए 64 करोड़ रुपये के बोफोर्स घोटाले ने राजीव गांधी की सरकार ही ले ली. लेकिन 1988 के चार साल के बाद 1992 में जब खुली आर्थिक नीतियां लागू हुईं, तो पहला घोटाला पांच हज़ार करोड़ का हुआ. वह घोटाला था हमारे देश का पांच हज़ार करोड़ रुपया विदेशी बैंकों में साइफन कर दिया गया. शोर हुआ, लेकिन तत्कालीन वित्तमंत्री की सदारत में इस घोटाले को बेरहमी से दबा दिया गया. इसके बाद तो फिर हर्षद मेहता से शुरू हुआ भ्रष्टाचार का सिलसिला कोयला घोटाले के 26,000 करोड़ रुपये के आंकड़ों पर जाकर रुका. लगभग 2004 के बाद कोई महीना ऐसा नहीं गया, जिस महीने में भ्रष्टाचार की सुगबुगाहट लोगों के कानों में नहीं पड़ी. और 2009 के बाद तो कमाल हो गया. हर चीज में भ्रष्टाचार.
ऐसा लगा, मानों लूट की मंडी सारे हिंदुस्तान में खुल गई और जिसे मौक़ा मिला, उसने मुंह मार लिया. हालत यह हो गई कि भ्रष्टाचार को लेकर क्या जनता, क्या नेता और क्या अदालत, सभी ने टिप्पणियां कीं, लेकिन इस सरकार, यानी यूपीए-2 ने भ्रष्टाचार को लेकर आंखें बंद कर लीं. न किसी की जांच, न जांच की इच्छाशक्ति और न किसी को दंडित करने का नकली आश्वासन. सारी दुनिया में हमारा देश भ्रष्टतम देशों में गिना जाने लगा.
भ्रष्टाचार की एक नई विधा सामने आई. भ्रष्टाचार को गांव-गांव पहुंचा दिया गया. ऐसी योजनाएं बनीं, जिन्होंने संपूर्ण ग्रामसभा को भ्रष्टाचार के दलदल में बैठा दिया. मंत्री से लेकर अफसर और अफसर से लेकर ग्रामसभा, सभी भ्रष्टाचार की पवित्र नदी में गोता लगाने लगे. मनरेगा जैसी योजना देश की भ्रष्टतम योजनाओं में गिनी जाने लगी. लोगों को आत्मनिर्भर बनाने की जगह मौजूदा सरकार ने उन्हें याचक बना दिया, भिखारी बना दिया, भ्रष्टाचारी बना दिया. 100 रुपये रोज की मज़दूरी तय हुई, जिसमें 50 रुपये जिसका नाम लिखा था, वह रख लेता था और 50 रुपये पर काम करने के लिए किसी दूसरे को भेज देता था. यह वृत्ति हर जगह बढ़ी.
हमें कहते हुए बहुत अफसोस होता है और दु:ख भी कि दोनों कार्यकाल में, अर्थात 2004 से 2009 और 2009 से 2014 के बीच भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री के तौर पर काम करते हुए ही दिखाई नहीं दिए, उनका कोई राजनीतिक बयान नहीं आया, उनके राजनीतिक ़फैसले नहीं आए, उन्हें राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं देखा गया. और जिस देश के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, लाल बहादुर शास्त्री, वी पी सिंह, चंद्रशेखर एवं अटल बिहारी वाजपेयी जैसे शख्स रहे हों, उस देश में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का कद इन सब लोगों के सामने दिखाई ही नहीं देता. कुर्सी दिखाई देती है, लेकिन इंसान नहीं दिखाई देता. मनमोहन सिंह की कोई राजनीतिक छवि बनी ही नहीं. भारत के प्रधानमंत्री एच डी देवगौड़ा भी रहे. उनके समय में जितने अच्छे काम हुए, उनके समय में जिस तरह से समस्याओं के ऊपर नियंत्रण किया गया और जिस तरह से देश के किसानों को सुविधाएं या राहत देने की कोशिशें हुईं, उन्हें देखते हुए मनमोहन सिंह की तुलना देवगौड़ा से भी नहीं की जा सकती. दरअसल, मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बन तो गए, लेकिन उनकी छवि एक नौकरशाह की ही रही. उनके राजनीतिक सलाहकार बने ही नहीं. उनके नजदीक कोई राजनीतिक व्यक्ति पहुंच ही नहीं पाया. उनके पास थे तो स़िर्फ और स़िर्फ नौकरशाह, दो दक्षिण के और एक पंजाब का. चौथे मनमोहन सिंह. इन चारों की मीटिंग होती थीं. इन्हीं चारों का कोर ग्रुप रहा और इन्हीं चारों ने देश को ऐसी जगह पर पहुंचा दिया, जहां पर हम आज खड़े हैं. नौकरशाह भी स्वतंत्र और मंत्री भी स्वतंत्र. एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री ने देश को बनाने की जगह देश को आर्थिक बर्बादी के मुहाने पर और चंद्रशेखर जी के शब्दों में, गृहयुद्ध के दरवाजे पर लाकर खड़ा कर दिया. जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने थे, तब देश के 62 जिले नक्सलवाद की चपेट में थे और आज जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री पद से रिटायर होने की घोषणा कर रहे हैं, तब इन दस सालों में देश के 272 जिले नक्सलवाद के प्रभाव में हैं. न यहां विकास है, न शिक्षा है, न अस्पताल हैं, न रोटी है. और यह संख्या बढ़ रही है. शहरों में बड़ी-बड़ी इमारतें बन रही हैं, बड़े-बड़े होटल खुल रहे हैं. नई-नई एयरलाइंस आ रही हैं, लेकिन देश के अस्सी प्रतिशत लोग विकास के दायरे से बाहर हैं.
भारत के इतिहास में पहली बार सुप्रीम कोर्ट ने देश के प्रधानमंत्री के ऊपर शक जाहिर किया. कोयला घोटाले में टिप्पणियां देते हुए प्रधानमंत्री को सुप्रीम कोर्ट ने अपनी तल्ख टिप्पणी की सीमा में ले लिया. प्रधानमंत्री को यह घोषणा करनी पड़ी कि सीबीआई चाहे तो मुझसे सवाल-जवाब कर सकती है. भारत के प्रधानमंत्री पद का इतना हस या इतना क्षरण पहले कभी नहीं हुआ. माना यह जा रहा था कि भारत का प्रधानमंत्री कभी झूठ नहीं बोलता, लेकिन कोयला घोटाले में प्रधानमंत्री के बयान, उनका सार्वजनिक स्टैंड और खुद कोयला मंत्री रहते हुए उनके दस्तखत और कोल आबंटन को लेकर सुप्रीम कोर्ट की जांच कराने की गंभीरता ऐसी चीज़ें हैं, जो भारत जैसे देश की सरकार के ऊपर कालिख पोत गईं. मैं ऐसा मानता हूं कि सुप्रीम कोर्ट अगर एक कदम और चलता, तो भारत के प्रधानमंत्री को इस्तीफा देना पड़ता और उसके आगे उनके जेल जाने की संभावना बन जाती. सुप्रीम कोर्ट के ऊपर नज़र रखने वाले, सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों का अध्ययन करने वाले, खुद सुप्रीम कोर्ट से रिटायर कई जजों का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट ने भारत के लोकतंत्र को दागदार होने से बचाने के लिए न्याय के साथ भी समझौता किया. पहली बार ऐसा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को पिंजड़े में बंद तोता कहा, जो अपने मालिक के इशारों के ऊपर गाना गाता है.
देश के इतिहास में पहली बार महंगाई सारी सीमाएं तोड़ गई, सबसे ऊंचे स्तर पर गई और यह पहली सरकार रही, जिसके कृषि मंत्री ने बोल-बोलकर महंगाई बढ़ाई. उन्होंने दूध का नाम लिया, दूध का दाम बढ़ गया. उन्होंने चीनी का नाम लिया,चीनी का दाम बढ़ गया. दाल का नाम लिया, दाल का दाम बढ़ गया और इस सरकार ने सबको खुली छूट दे दी. हर मंत्री प्रधानमंत्री हो गया. मंत्रियों ने कभी भी अपने मंत्रालयों को लेकर प्रधानमंत्री से चर्चाएं की हों, ऐसे समाचार कभी आए ही नहीं. पहली बार सेना के घरेलू इस्तेमाल पर बात हुई.
सरकार की काहिली इतनी बढ़ गई कि सुप्रीम कोर्ट प्रो-एक्टिव रोल में आ गया. जो काम सरकार को करने चाहिए थे, उन्हें करने का आदेश सुप्रीम कोर्ट को करना पड़ा. बैलेंस साधने या स्थिति को संतुलित करने के प्रयास में सुप्रीम कोर्ट के कुछ ़फैसलों की आलोचना हुई और यह आलोचना इसलिए स्वीकार है कि अगर सुप्रीम कोर्ट ज़्यादा सख्त होता, तो भारत की सरकार भारत के लोकतंत्र को कमजोर करने के अपराध में हिस्सेदार हो जाती. पहली बार भारत के प्रधानमंत्री ने मंत्रिमंडल की सामूहिक जिम्मेदारी के सिद्धांत का उल्लंघन किया और दर्शाया कि सामूहिक जिम्मेदारी जैसी कोई चीज होती ही नहीं. जब कोयला घोटाले की फाइलें गायब हुईं, तो प्रधानमंत्री ने बयान दिया कि मैं कोई फाइलों का रखवाला नहीं हूं. ये फाइलें साउथ ब्लॉक से गायब हुई थीं, ये फाइलें प्रधानमंत्री के मंत्रालय के अंदर से गायब हुई थीं. इसका मतलब है कि इस सरकार में कोई भी टहलता हुआ साउथ ब्लॉक जा सकता था और जो चीज चाहे, लेकर आ सकता था. इसका एक मतलब यह भी निकलता है कि पाकिस्तान और चीन के जासूस या उनके एजेंट आसानी से प्रधानमंत्री कार्यालय तक अपनी पहुंच बना चुके थे. और यह पहली बार हुआ कि देश के वित्तमंत्री के दफ्तर में जासूसी उपकरण पाए गए. इस घटना की आईबी ने जांच की और उस जांच को भी सरकार ने बेरहमी से दबा दिया.
यह पहली बार हुआ कि भारत के सेनाध्यक्ष के साथ भारत की सरकार मुकाबले में आ गई. और यह भी पहली बार हुआ कि भारत के सेनाध्यक्ष को घूस देने की कोशिश हुई, जिसकी जांच हुई और उस जांच को भी लीपा-पोती की स्याही से रंग दिया गया. यह पहला मंत्रिमंडल है, जिसके मंत्री अपने पद पर रहते हुए जेल गए और प्रधानमंत्री ने पहली बार सरकार के ऊपर लगने वाले आरोपों को प्रतिक्रियाविहीन कर दिया. देश के लोगों के उस विश्वास को तोड़ दिया कि उनकी समस्याएं उनके द्वारा आवाज उठने के बाद हल हो सकती हैं. पहले प्रधानमंत्री, जिनके ऊपर आरोप लगा कि उन्होंने संसद में सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास करने के बाद भी जनलोकपाल कानून को इतने दिनों तक लटकाया. अन्ना हज़ारे के आंदोलन से सारा देश खड़ा हो गया था. संसद ने प्रस्ताव पास किया, प्रधानमंत्री ने चिट्ठी लिखी, लेकिन प्रधानमंत्री उसे दो साल से ज़्यादा समय तक लटकाते रहे, जब तक अन्ना हज़ारे ने दोबारा अपने जीवन को आमरण अनशन के माध्यम से संकट में नहीं डाला.
पहले प्रधानमंत्री, जिन्होंने माना कि अर्थव्यवस्था 1991 के स्तर पर पहुंच गई है, यानी 23 साल पीछे चली गई है. आख़िर 23 साल खर्च हुआ पैसा कहां चला गया? 23 साल में कोई विकास नहीं हुआ. और जब संसद में खड़े होकर मौजूदा प्रधानमंत्री ने दहाड़ा था वित्तमंत्री होने के नाते कि 20 साल में देश स्वर्ग बन जाएगा, वह सारा समय भारत के इतिहास को विकास की पटरी से हटा गया. देश को बाज़ार के हवाले करने का अपराध भी मौजूदा सरकार ने किया. यह सरकार अब किसी चीज के लिए जिम्मेदार नहीं है. इस सरकार ने बता दिया कि पानी पीना है, तो मिनरल वॉटर की बोतलें खरीदो. सड़क पर चलना है, तो टोल टैक्स दो, क्योंकि हम नदियां बेचेंगे, हम जमीन बड़े उद्योगपतियों को देंगे, हम कल्याणकारी राज्य को नहीं मानते. अगर लोगों को पानी पिलाना है, लोगों को भूख से बचाना है, तो वह भी बड़ी कंपनियां चाहें, तो कर लें. सरकार ने स़िर्फ और स़िर्फ देश के खनिज, जंगल और जमीन को बड़ी कंपनियों के हवाले करने का रास्ता खोल दिया.
इस सरकार ने हमारे संविधान को बिना देश और संसद को विश्वास में लिए भावनात्मक रूप से बदल दिया. हमारा देश संविधान के अनुसार कल्याणकारी राज्य है. देश में अगर मौतें होती हैं, तो उसकी जिम्मेदारी राज्य, यानी सरकार की है. लोगों का इज्जत के साथ जीना, रोजगार एवं शिक्षा, इन सबकी जिम्मेदारी राज्य की है, लेकिन पिछले दस सालों में संविधान में कल्याणकारी राज्य का अर्थ बिना संविधान बदले ही बदल दिया गया. और अब प्रधानमंत्री हों, वित्तमंत्री हों, वित्त सचिव हों, विपक्ष की सरकारें हों, ये सब बाज़ार-बाज़ार चिल्ला रहे हैं. पहली बार इस सरकार ने दो समझौतों के ऊपर खुद के गिरने की भी परवाह नहीं की. पहला था, न्यूक्लियर डील. पूरा देश इसके ख़िलाफ था, संसद इसके ख़िलाफ थी, पर लोगों को साम-दाम-दंड-भेद से अपने पक्ष में कर न्यूक्लियर डील की गई और इस देश को एक नए ख़तरे के हवाले कर दिया गया. और दूसरा मौका भारत में विदेशी पूंजी निवेश को लेकर था. देश में पूंजी निवेश के मसले पर भी संसद की बांह मरोड़ कर इस सरकार ने कानून बनवाया. आख़िर इतना बड़ा ख़तरा इस सरकार ने क्यों उठाया? सरकार ने कभी भी रोजगार के अधिकार को, भोजन के अधिकार को, शिक्षा के अधिकार को लेकर बात नहीं की, लेकिन अमेरिकी हितों को, उनकी अर्थव्यवस्था को फायदा पहुंचाने के उद्देश्य से ये दोनों समझौते इस सरकार ने किए.
पहली बार विरोधी दलों को सरकार ने अनदेखा किया. हालांकि विरोधी दल खुद ही बिकने को तैयार थे. उन्होंने विरोधी दल का धर्म पिछले दस सालों में निभाया ही नहीं. शायद इसका कारण यह है कि किसी न किसी प्रदेश में कोई न कोई दल सत्ता के ऊपर काबिज है. इसलिए सबको वही बीमारी लग गई, जो दिल्ली में सत्ताधारी दल को लगी हुई है. पहली बार पिछले दस सालों में सर्वदलीय बैठकें नाममात्र की हुईं. प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली कमेटियों की बैठकें नहीं हुईं. विपक्षी नेताओं से राय-मशवरे नहीं हुए. कुछ अवसरों पर हुए, जिनमें लगा कि इसमें रस्म निभाई जा रही है. पहली बार हुआ कि देश में आम राय बनाने की कोई कोशिश सरकार की तरफ़ से हुई ही नहीं. पर सर्वदलीय बैठकें न होने का या राष्ट्रीय एकता परिषद (नेशनल इंटिग्रेशन काउंसिल) की बैठकें न होने या उन बैठकों में हुई बातों पर अमल न होने का रोना क्या रोएं, जब अपने सहयोगियों की बातें ही इस सरकार ने नहीं सुनीं.
देश के इतिहास में पहली बार महंगाई सारी सीमाएं तोड़ गई, सबसे ऊंचे स्तर पर गई और यह पहली सरकार रही, जिसके कृषि मंत्री ने बोल-बोलकर महंगाई बढ़ाई. उन्होंने दूध का नाम लिया, दूध का दाम बढ़ गया. उन्होंने चीनी का नाम लिया, चीनी का दाम बढ़ गया. दाल का नाम लिया, दाल का दाम बढ़ गया और इस सरकार ने सबको खुली छूट दे दी. हर मंत्री प्रधानमंत्री हो गया. मंत्रियों ने कभी भी अपने मंत्रालयों को लेकर प्रधानमंत्री से चर्चाएं की हों, ऐसे समाचार कभी आए ही नहीं. पहली बार सेना के घरेलू इस्तेमाल पर बात हुई. नक्सलवादियों को मारने के लिए इस सरकार ने सेना को नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों में लगाने का विचार किया, सेना से विचार-विमर्श किया, लेकिन सेना के अफसरों ने भी पहली बार सरकार के सुझाव को नकार दिया. लेकिन यह संकेत सामने आ गया कि सरकार सेना का घरेलू मोर्चे के ऊपर इस्तेमाल कर सकती है. सरकार का मंत्री और पार्टी का महामंत्री दो अलग-अलग चीजें हैं. सरकार देश की होती है और पार्टी एक विचारधारा की होती है. सरकार का यह कर्तव्य भी है कि जो उसकी विचारधारा को न माने, उसके लिए भी वह काम करे, नहीं तो वह देश की सरकार नहीं मानी जाती. पर हमारे देश के मौजूदा सूचना मंत्री कांगे्रस पार्टी के प्रवक्ता की तरह व्यवहार कर रहे हैं और पार्टी के फैसले मंत्रालय में बैठकर पत्रकारों को बता रहे हैं. वह सरकार की नीति नहीं बताते, बल्कि पार्टी की नीति पत्रकारों को बताते हैं.
किस-किस का जिक्र करें और कैसे करें? बहस इतनी लंबी है और उनमें छुपा हुआ कुछ नहीं है. सारी फेहरिस्त जनता को मालूम है, पर ये सवाल ऐसे हैं, जिनसे आने वाली सरकार को बचना चाहिए. चाहे वह सरकार यूपीए की आए, एनडीए की आए या चाहे फिर तीसरे मोर्चे की आए. अगर इन सवालों का उत्तर नहीं तलाशा गया और ऐसे सवालों को उभरने से नहीं रोका गया, तो सचमुच भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का दु:स्वप्न, उनकी चेतावनी सच साबित हो जाएगी, जो उन्होंने नरसिम्हाराव के प्रधानमंत्री रहते
हुए आर्थिक सुधारों पर चर्चा के समय संसद में दी थी कि 20 सालों के बाद यह देश स्वर्ग नहीं बनेगा, बल्कि ऐसे मुहाने पर जा खड़ा होगा, जहां से गृहयुद्ध का मैदान बहुत दूर नहीं रह जाएगा.