आपको एक महत्वपूर्ण बात बताते हैं, यह इतिहास का पन्ना है जिसका ज्ञान नितिन गडकरी को नहीं है. आचार्य नरेंद्र देव कांग्रेस छोड़ चुके थे और उन्होंने प्रजा समाजवादी पार्टी बनाई थी. पंडित संपूर्णानंद कांग्रेस में थे और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. सवाल आया प्रजा समाजवादी पार्टी का घोषणा पत्र लिखने का. सभी को अंदाज़ा था कि आचार्य जी इसे स्वयं लिखेंगे. आचार्य जी की तबियत थोड़ी खराब थी. कुछ दिनों बाद आचार्य जी से उनके साथियों ने पूछा कि घोषणा पत्र लिखने का काम कहां तक पहुंचा तो आचार्य जी ने कहा कि उन्होंने संपूर्णानंद से कहा है और वह घोषणा पत्र लिख रहे हैं. आचार्य जी के साथी थोड़े चिंतित हुए, पर किसी ने आचार्य जी के फैसले पर उंगली नहीं उठाई. तीन महीनों के बाद हाथ से लिखा काग़ज़ों का बंडल आचार्य जी के पास आया, जिसे पं. संपूर्णानंद ने भेजा था. आचार्य जी ने उसे देखा भी नहीं और सीधे प्रेस में छपने भिजवा दिया.
अटल जी, आडवाणी जी, जोशी जी और राजनाथ सिंह के बारे में मैं दावे से कह सकता हूं कि ये राजा भोज के समान हैं. इनके बारे में मैंने का़फी सख्त रिपोर्ट और टिप्पणियां लिखीं, लेकिन ये जब भी मिले, मुस्करा कर और अपनेपन से. अटल जी प्रधानमंत्री थे और बिहार चुनाव पर मेरी भाजपा को लेकर स़ख्त रिपोर्ट छप रही थीं. अटल जी पटना में एक होटल की लॉबी में मिल गए, अपने आप मेरी ओर चलकर आए और मुस्करा कर कहा कि मैं आपकी रिपोर्ट बहुत ध्यान से पढ़ रहा हूं.
आचार्य जी के साथी चिंतित होकर उनके पास गए और कहा कि कम से कम एक बार देख तो लीजिए कि लिखा क्या है? आचार्य जी ने मुस्कराते हुए कहा कि संपूर्णानंद ने लिखा है, सब सही होगा और वही लिखा होगा, जो मैं लिखता. फिर ध्यान दिला दूं कि आचार्य नरेंद्र देव जी ने प्रजा समाजवादी पार्टी का घोषणा पत्र लिखने का काम उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री संपूर्णानंद जी को सौंपा, जिसे उन्होंने स्वीकार किया और जो उन्होंने लिखा उसे बिना देखे, बिना कामा-फुलस्टाप बदले आचार्य जी ने छपने भेज दिया, जबकि दोनों राजनीतिक तौर पर परस्पर विरोधी दलों में थे.
अगर आज नितिन गडकरी से, जो संयोग से भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए हैं, उनका कोई दोस्त अगर किसी दूसरी पार्टी में हो और ऐसा ही आग्रह करे तो नितिन गडकरी क्या करेंगे? आप खुद अंदाज़ा लगाइए. एक तरफ आचार्य जी और संपूर्णानंद जी का राजनैतिक उदाहरण और दूसरी तरफ नितिन गडकरी का आज का उदाहरण. नितिन गडकरी की जानकारी के लिए इतिहास का एक और पन्ना उन्हें दिखाते हैं और ऐसे पन्नों की भरमार है, जिससे नितिन गडकरी अंजान हैं. श्री चंद्रभानु गुप्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. उनके खिला़फ चंद्रशेखर और उनके साथियों ने लखनऊ में प्रदर्शन किया. नारे लगे, सी वी गुप्ता चोर है, गली-गली में शोर है. यूपी में हैं तीन चोर, मुंशी गुप्ता जुगल किशोर. शाम हुई, लगभग दस हज़ार प्रदर्शनकारी लखनऊ में थे और किसी के खाने का इंतजाम नहीं था. चंद्रशेखर अपने कुछ साथियों के साथ गुप्ता जी से मिलने गए. गुप्ता जी ने कहा, आओ भूखे-नंगे लोगों, इनको ले तो आए, अब क्या लखनऊ में भूखा रखोगे. चंद्रशेखर जी ने कहा कि आपका राज्य है, जैसा चाहें कीजिए. गुप्ता जी खीज गए, लेकिन कहा कि मैंने कह दिया है पूड़ी-सब्जी पहुंचती होगी. मैंने पहले ही समझ लिया था कि बुला तो लोगे, लेकिन खाने का इंतजाम नहीं कर पाओगे.
यह थी उस समय की राजनैतिक शिष्टता. अपने खिला़फ प्रदर्शन करने वालों को भी खाना खिलाने की शिष्टता. दल कोई भी हो, लेकिन राजनीति में रहने के कारण एक-दूसरे की इज़्ज़त. पर अब नितिन गडकरी ने एक नई शुरुआत कर दी है, भाषा की सभ्यता और भाषा की शिष्टता समाप्त कर दी है. शायद यह तो मोहन भागवत, एम जी वैद्य सहित संघ के नेता नहीं चाहते होंगे. संघ के लोगों ने नितिन गडकरी को अध्यक्ष बनाने के लिए दबाव डाला ज़रूर था, पर संघ का शिष्टाचार मशहूर है. बाला साहब देवरस और भाऊ देवरस से मुझे कई बार मिलने का मौक़ा मिला. निश्चल व्यक्तित्व था भाऊ देवरस का. बोलते थे तो लगता था कि निर्मल जल बह रहा है. आडवाणी जी को जानता हूं, अरुण जेटली, रविशंकर प्रसाद, सुशील मोदी की शिष्टता, यशवंत सिन्हा, जसवंत सिंह, सुषमा स्वराज का व्यवहार और मुरली मनोहर जोशी का आत्मीयपन नितिन गडकरी की भाषा से शर्मसार हो गया होगा. मुझे पूरा भरोसा है कि नितिन गडकरी की भाषा का अनुसरण ये सब कोशिश करके भी नहीं कर पाएंगे.
क्या नितिन गडकरी को इस बात का एहसास है कि उन्हें किसकी विरासत मिली है. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, कुशाभाऊ ठाकरे, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी की परंपरा में उन्हें अध्यक्ष पद मिला है. उनसे पहले के चार अध्यक्षों को मैं जानता हूं. अटल जी, आडवाणी जी, जोशी जी और राजनाथ सिंह के बारे में मैं दावे से कह सकता हूं कि ये राजा भोज के समान हैं. इनके बारे में मैंने का़फी सख्त रिपोर्ट और टिप्पणियां लिखीं, लेकिन ये जब भी मिले, मुस्करा कर और अपनेपन से. अटल जी प्रधानमंत्री थे और बिहार चुनाव पर मेरी भाजपा को लेकर सख्त रिपोर्ट छप रही थीं. अटल जी पटना में एक होटल की लॉबी में मिल गए, अपने आप मेरी ओर चलकर आए और मुस्करा कर कहा कि मैं आपकी रिपोर्ट बहुत ध्यान से पढ़ रहा हूं.
भाजपा के ये सारे नाम राजनैतिक शिष्टता और स्नेह के उदाहरण हैं. शायद नितिन गडकरी को इनमें से किसी के पास बैठने का या राजनैतिक परंपरा जानने का सौभाग्य नहीं मिला, लेकिन अभी व़क्त है कि वह जान लें. भारत जैसे बड़े देश की विपक्षी पार्टी का अध्यक्ष पद कितना गरिमामय और महत्वपूर्ण होता है, इसका अंदाज़ा उन्हें नहीं है. उन्होंने अपनी राजनैतिक समझ की कमी से झारखंड में भाजपा को इस हाल में पहुंचा दिया कि कहना पड़ गया कि भाजपा ने प्याज भी खाए और जूते भी. अब अपनी भाषा और व्यवहार व पब्लिक एपियरेंस से नितिन गडकरी भाजपा को आने वाले चुनावों में हाशिए की ओर ले जाने का काम करेंगे.
इसमें कोई दोराय नहीं कि नितिन गडकरी की भाषा से आकर्षित होकर असामाजिक तत्व और अशालीन वर्ग भाजपा की ओर आकर्षित होगा और चुनाव में दबंगई भी करेगा, पर क्या यही अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और मोहन भागवत का सपना है. हो सकता है आज मोहन भागवत और लालकृष्ण आडवाणी को पछतावा हो रहा हो, पर नितिन गडकरी के सिर चमेली का तेल महक रहा है. अभी शुरुआत है, मोहन भागवत, आडवाणी जी और जोशी जी को अभी हस्तक्षेप करना चाहिए, वरना भाजपा पर यह कलंक लगते देर नहीं लगेगी कि उसने राष्ट्रीय राजनीति में सहनशीलता, शिष्टता और सभ्यता के खात्मे की शुरुआत करने में पहला क़दम रखा. भाजपा को कौरव सभा बनने से अपने को रोकना चाहिए, क्योंकि भाजपा कौरव सभा बने, यह हम कभी नहीं चाहेंगे. भारतीय राजनीति का यह सबसे दुखद दिन होगा, अगर भाजपा की तस्वीर कौरव सभा की तस्वीर में बदल जाती है.