भाजपा की दिशाहीनता और भ्रम बिल्कुल स्पष्ट हो गए हैं. जसवंत सिंह हों या अरुण शौरी, ये सभी भाजपा में किसी वैचारिक धारा के मौजूद न होने के ही प्रतीक पुरुष हैं. यह साफ है कि भाजपा की राजनीति अपनी सुविधा के हिसाब से बदलती है, तभी तो इसका स्टैंड भी बदलता रहता है. भाजपा के टूटने के संकेत इसमें भी निहित हैं कि जो भी पार्टी अपना एक आर्थिक दर्शन लेकर नहीं चलती, उसे इसी तरह बिखरना होगा, उसके द्वंद्व इसी तरह सामने आएंगे.

ज सबसे ज़्यादा कांग्रेस ख़ुश होगी, क्योंकि साफ दिख रहा है कि संसद में विपक्ष है ही नहीं. उसके मज़बूत या कमज़ोर होने की बात तो दूसरी. वर्तमान लोकसभा का सबसे बड़ा विपक्षी दल अपने अंतर्विरोधों से ग्रस्त है, उससे उबर नहीं पा रहा है. भाजपा बिल्कुल उस नाव की तरह हो गई है, जिसके माझी के हाथों से पतवार छूट गई हो. जिसके नाविक दिशाहीन हो गए हों और जिसने ख़ुद को लहरों के हवाले कर दिया हो. मार्क्सवादी दल भी अपनी हार की वज़ह से सदमे में है. सपा और बसपा जैसे दल थक-हार कर कांग्रेस का समर्थन करने पर विवश ही हैं. इन सारी बातों से  सबसे अधिक ख़ुश कौन सी पार्टी होगी? ज़ाहिर तौर पर कांग्रेस. वज़ह बिल्कुल साफ है. मौजूदा दौर में देश बिल्कुल विपक्षविहीन दिख रहा है. ऐसी हालत 1980 में भी आई थी, जब जनता पार्टी हार गई थी. उस व़क्त भी कांग्रेस को चुनौती देने, उसे घेरने और ज़रूरी मुद्दों पर उससे जवाबतलब करने वाली कोई पार्टी दिख नहीं रही थी. उसी व़क्त इंदिरा गांधी ने एक बेहद मशहूर बयान दिया था. उन्होंने कहा था कि संसद में तो विपक्ष है ही नहीं. अभी तो विपक्ष जो है, वे अख़बार ही हैं, वही अपोजिशन की भूमिका निभा रहे हैं.
1984 में राजीव गांधी की सरकार बनी. प्रचंड बहुमत के साथ. उनकी सरकार में भी विपक्ष की कोई ख़ास भूमिका नहीं थी. ख़ैर, उस व़क्त तो आंकड़े उनके साथ थे. आज के हालात पर ग़ौर कीजिए. वह भी कहीं से अलग नहीं दिखते. कांग्रेस के पास कुल मिलाकर लोकसभा के 206 सांसद हैं. भाजपा के पास 116. यह संख्या कोई कम नहीं होती. देश में मुद्दों की भी कमी नहीं है. ऐसा तो क़तई नहीं है कि सब कुछ ठीकठाक ही चल रहा है. पूरे देश में 100 से अधिक ज़िले सूखाग्रस्त हैं, महंगाई दिन पर दिन बढ़ती जा रही है, नक्सली समस्या बढ़ती जा रही है और आतंकवाद एक भयावह ख़तरा बना ही हुआ है. भाजपा चाहती तो सत्तापक्ष को आसानी से घेर सकती थी, लेकिन जिनका ख़ुद का घर ही दुरुस्त नहीं, वे दूसरों को भला कुछ कहें भी तो कैसे? जो पार्टी ख़ुद को पार्टी विद अ डिफरेंस कहते नहीं थकती थी, वही पार्टी आज अ पार्टी विद डिफरेंसेज़ बन कर रह गई है.

दरअसल, आज की तारीख़ में भी जो लोग भारत-पाक विभाजन की समीक्षा में ही उलझे हुए हैं, वे आम लोगों का ध्यान बुनियादी समस्याओं से हटा रहे हैं. जनता की बुनियादी समस्या रोटी है, ज़मीन है, रोज़गार है, शिक्षा है, स्वास्थ्य है और सर पर एक छत होना है. विभाजन इतिहास बन चुका है.वह त्रासद था, लेकिन था सच. जो भी लोग उस त्रासदी को बार-बार भुनाना चाहते हैं, वे मूल समस्या से हमें भटकाते हैं. चाहे ऐसे लोग सीमा के इस पार हों या सीमा के उस पार.

भाजपा की दिशाहीनता और भ्रम बिल्कुल स्पष्ट हो गए हैं. जसवंत सिंह हों या अरुण शौरी, ये सभी भाजपा में किसी वैचारिक धारा के मौजूद न होने के ही प्रतीक पुरुष हैं. यह साफ है कि भाजपा की राजनीति अपनी सुविधा के हिसाब से बदलती है, तभी तो इसका स्टैंड भी बदलता रहता है. भाजपा के टूटने के संकेत इसमें भी निहित हैं कि जो भी पार्टी अपना एक आर्थिक दर्शन लेकर नहीं चलती, उसे इसी तरह बिखरना होगा, उसके द्वंद्व इसी तरह सामने आएंगे. भाजपा इस देश के ग़रीबों, मजलूमों और शोषितों के लिए कोई आर्थिक एजेंडा लेकर सामने नहीं आई. उसने ज़मीनी मसलों की जगह भावनात्मक मुद्दों को ही छेड़ा. नतीजा तो इसका यही होना था. भाजपा में घमासान. उसके अनुशासन का तार-तार होना. दरअसल, आज की तारीख़ में भी जो लोग भारत-पाक विभाजन की समीक्षा में ही उलझे हुए हैं, वे आम लोगों का ध्यान बुनियादी समस्याओं से हटा रहे हैं. जनता की बुनियादी समस्या रोटी है, ज़मीन है, रोज़गार है, शिक्षा है, स्वास्थ्य है और सर पर एक छत होना है. विभाजन इतिहास बन चुका है.वह त्रासद था, लेकिन था सच. जो भी लोग उस त्रासदी को बार-बार भुनाना चाहते हैं, वे मूल समस्या से हमें भटकाते हैं. चाहे ऐसे लोग सीमा के इस पार हों या सीमा के उस पार. यह जानना दिलचस्प होगा कि क्या उन लोगों ने (जो विभाजन के समीक्षक हैं) कभी भी बुनियादी समस्याओं के बारे में अपने कुछ विचार रखे हैं? कोई दस्तावेज पेश किया है? रोज़गार, ज़मीन, स्वास्थ्य और शिक्षा को लेकर क्या उन लोगों ने किसी वैकल्पिक दर्शन की स्थापना की, या कि केवल भावनात्मक और भड़काऊ मसलों पर ही अपना ध्यान केंद्रित किया? यहां पर ध्यान देने की बात यह है कि जो लोग आतंकवाद का समर्थन करते हैं, वे भी दरअसल दोनों देशों की जनता को उसके बुनियादी मसलों से भटकाना चाहते हैं.
ज़रूरत तो इस बात की है कि भारत या पाकिस्तान में जो भी सोचने-समझने वाला तबका है, वह भारत-पाक की उन समान समस्याओं को रेखांकित करें, जिनको सुलझाए बिना दोनों ही देशों का अस्तित्व ही ख़तरे में पड़ जाएगा. ख़ासकर लोकशाही तो इन मसलों को सुलझाए बिना कभी भी फल-फूल नहीं सकती. दोनों देशों के धर्म अलग हो सकते हैं,लेकिन समस्याएं बिल्कुल एक ही हैं. दोनों देशों की ज़ड़ें भी एक हैं. दोनों देश के समझदार लोग अगर मिलकर रणनीति बनाएं और अपने यहां की बदहाली और तंगहाली को दूर करने के लिए काम करें, तो कोई शक़ नहीं कि हमारी समस्याएं  सुलझ न सकें.

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