हार का सामना करना मुश्किल भले ही होता है, लेकिन अपने वजूद को बचाने की मजबूरी एक डूबते सपने का शोक मनाने से कहीं ज़्यादा बड़ी है. भाजपा और वामदलों दोनों के सामने अब वजूद का संकट है, और उन्हें अपने सिद्धांतों के उन हिस्सों को, जो क्रमशः एक के विकास को रोकने वाले और दूसरे की सफलता को धूमिल करने वाले हैं, बदलने के लिए ईमानदारी की ज़रूरत पड़ेगी.
भाजपा को शायद हमारे देश के बारे में एक मौलिक सच पर विचार करना चाहिए. भारत एक सेकुलर राष्ट्र इसलिए नहीं है, क्योंकि भारतीय मुस्लिम इसे सेकुलर देखना चाहते हैं. वह सेकुलर है, क्योंकि भारतीय हिंदू ऐसा चाहते हैं.
भाजपा में सबको सांप्रदायिक कहना ग़लत होगा, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा गढ़ी गई सबको साथ लेकर चलने वाली छवि को बचाए रखने के लिए किए गए लालकृष्ण आडवाणी के प्रयासों को पार्टी के उन नेताओं के बयानों ने धूमिल कर दिया जो यह नहीं समझते हैं कि टकराव की भाषा का समय अब बीत चुका है. वरुण गांधी का अपरिपक्व भाषण इसका सबसे महत्वपूर्ण मोड़ था. भाजपा ने इसकी निंदा भले ही की, पर केंद्रीय राजनीति की खोज में अतिवाद को खो देने के डर से इसे पूरी तरह से छोड़ा भी नहीं. अभी जो साफ दिखाई दे रहा है वह उस समय उतना साफ नहीं था. वरुण गांधी की उम्मीदवारी को ख़त्म कर देना चाहिए था. इसके उलट वरुण अपनी इस छद्म-आक्रामक छवि के मोह में पड़ गए और अपने उन बयानों और चित्रों में अपनी इस छवि को दिखाने लगे जो टीवी के माध्यम से हर घर तक पहुंच रहे थे. इस युवा गांधी ने स्वयं को उत्तर प्रदेश के भावी मुख्यमंत्री के तौर पर भी देखना शुरू कर दिया. रोचक बात है कि स्थानीय भाजपा नेता समझ रहे थे कि यह घातक है. मध्य प्रदेश भाजपा ने साफ-साफ कह दिया कि उन्हें वरुण गांधी की ज़रूरत नहीं है. बिहार के नेताओं ने भी राहत की सांस ली, जब नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी और वरुण गांधी दोनों को बिहार आने का न्यौता भेजने से मना कर दिया.
हमारी राष्ट्रीय सोच एक प्रधान इच्छा से तय होती है, जो है बेहतर ज़िंदगी की चाहत. शांति के बिना संपन्नता असंभव है. इसलिए विभाजन की राजनीति, चाहे वह जाति पर आधारित हो या संप्रदाय पर, की जगह इस सहमति ने ले ली है कि शांति के मुद्दे से कोई समझौता नहीं हो सकता. दूसरी तरफ संपन्नता पर हमेशा से समझौता होता रहा है, क्योंकि यह कभी वैश्विक सत्य नहीं रहा. भारत अभी भी कुछ अमीर लोगों वाला एक ग़रीब देश है न कि इसके उलट. ग़रीब भी उभरते भारत की कहानी का हिस्सा बनना चाहते हैं.
यह अजीब है कि मार्क्सवादियों ने इस बात को नहीं समझा. उन्होंने ग्रामीण बंगाल में वोट गंवाए जिसकी वजह इस्लाम नहीं ग़रीबी थी. नंदीग्राम और सिंगुर का संदेश साफ था कि ग़रीबों की ज़मीन छीनकर मध्य वर्ग के लिए नौकरियां बनाई जा रही हैं. नीतीश कुमार जीते, क्योंकि उन्होंने शांति कायम की और समृद्धि के अपने वायदे को समाज के सबसे निचले तबके तक पहुंचाने में सफल रहे. अगली बार देश के मुख्यमंत्रियों की बैठक में वह अपने साथियों के बीच राजदूत का काम करेंगे.
यह और भी अजीब होगा, अगर कोई बंगाल और गुजरात के बीच संभावित तुलना करे. नरेंद्र मोदी के औद्योगिकीकरण का भी नुकसान हो सकता है, अगर वह जल्द कुछ ठोस उपाय नहीं करते. बंगाल के नुकसान नैनो को गुजरात ले जाना तो एक उलझी हुई कहानी का एक हिस्सा मात्र है. ग़रीबों को यह महसूस हो रहा है कि राजनेताओं और उद्योगपतियों के बीच का यह मधुर संबंध या तो धनी लोगों को फायदा दे रहा है या फिर मध्यवर्ग को. भूमिहीन और खेतिहर जनता मोदी के ख़िला़फ जा सकती है, अगर वह ग्रामीण गुजरात का उत्थान भी उसी उत्साह और लगन से नहीं करते. तमिलनाडु में द्रमुक बच गया, क्योंकि उसने ग़रीबों को सस्ता चावल और मुफ्त मनोरंजन मुहैया कराया. इस वक्त टेलीविजन कंपनियों में शेयर लगाना फायदेमंद होगा. शायद जल्द ही हरेक राजनीतिक दल मतदाताओं को मुफ्त में टीवी बांटने वाला है.
कोलकाता में लाल दीवार में सेंध लग गई. क्या यह अब केवल समय की बात है, कि वाम मोर्चा ध्वस्त हो जाएगा? क्या प्रकाश करात और बुद्धदेव भट्टाचार्य समस्या हैं या समाधान हैं? क्या बंगाल में कोई वैकल्पिक मुख्यमंत्री हो सकता है, जो सुधारों को हथौड़े की सख्ती से लागू करे? चुनाव नतीजों के बाद माकपा पोलित ब्यूरो की मीटिंग में जश्न के माहौल की उम्मीद की जा रही थी, लेकिन अब यहां का माहौल ठंडा ही रहेगा. प्रकाश करात ने तो इस चुनाव की व्याख्या करते हुए कह ही डाला कि-हम असफल हो गए हैं. यह किसी व्यक्ति की असफलता नहीं थी, क्योंकि मार्क्सवादी दलों में फैसले सामूहिक होते हैं.
हारे हुओं पर नाक-भौं सिकोड़ना आसान है, लेकिन यहीं एक विरोधाभास भी देखना होगा. केरल और बंगाल में भले ही वाम मोर्चे को याद न किया जाए, लेकिन इसकी कमी दिल्ली में तो खलेगी ही. इसकी वजह यह है कि वाममोर्चा आर्थिक और विदेशी मसलों पर गंभीर बहस तो शुरू करवा ही सका था. यह अहम नहीं है कि वाम गलत था या सही. मसला तो यह है कि इसने एक बहस की शुरुआत की.
यह तो बिल्कुल साफ है कि सुशासन का पुरस्कार मिलता है. नवीन पटनायक की जीत इसका स्पष्ट सबूत है. लेकिन इस चुनाव से राजनेताओं का एक आदर्श प्रोफाइल भी उभरकर सामने आया है. वोटर अब अपने नेता में तीन गुण चाहता है-ईमानदारी, योग्यता और विनम्रता. यही उसने डॉक्टर मनमोहन सिंह में देखा. राहुल गांधी ने कांग्रेस के सपने में भविष्य की छौंक भी लगा दी. उन्होंने सत्ता में अपनी हिस्सेदारी इस चुनाव के जरिए तय कर दी है. संभावना इस बात की बनती है कि आगे आनेवाले भविष्य में सत्ता-हस्तांतरण होगा, ख़ासकर इसलिए क्योंकि कांग्रेस ने न केेवल अपने गठबंधन के साझीदारों को ख़ामोश किया है, बल्कि विपक्ष की भूमिका भी सीमित कर दी है.
नीतीश कुमार, नवीन पटनायक, शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह जैसे मुख्यमंत्रियों ने मतदाता की कसौटी के सभी गुण दिखाए. सफलता के ख़तरे असफलता के ख़तरे से अधिक हैं. आलस्य में फंसने का ख़तरा भी मौजूद हो जाता है. अहंकार तो और भी लुभाता है. डॉक्टर मनमोहन सिंह को शासन का अधिकार दिया गया है, लेकिन उनका पहला काम तो सहयोगियों पर नज़र रखने की होगी. सिंह को स्वतंत्रता देकर भारतीय मतदाता ने उनको किसी बहाने से महरूम कर दिया है.
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