कांग्रेस के साथ भी ऐसा ही हो सकता है. अभी तक पार्टी ने हार के कारणों की समीक्षा या अपनी विचारधारा पुनर्परिभाषित करने की कोशिश नहीं की है. वह संतुष्ट और निष्क्रिय हो गई है. राहुल गांधी को छोड़कर पार्टी नेतृत्व बूढ़ा हो चुका है. राहुल गांधी भी आम तौर पर दिखाई नहीं देते और जब दिखाई देते हैं, तो पार्टी के लिए दायित्व बन जाते हैं.
नेपोलियन ने एक बार कहा था कि उसे अपनी सेना में ऐसे सिपहसालारों की ज़रूरत है, जिनकी किस्मत उनके साथ हो. अगर नेपोलियन को नरेंद्र मोदी का साथ मिला होता, तो वह खुश हो जाता. जरा ग़ौर कीजिए, किस्मत ने मोदी का कितना साथ दिया है. महात्मा गांधी आज से सौ साल पहले दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस आए थे और यह अवसर नरेंद्र मोदी के कार्यकाल को मिलना था कि वह अपनी पुरानी कर्मभूमि अहमदाबाद में पिछले दिनों आयोजित होने वाले प्रवासी भारतीय दिवस के अवसर पर इसका जश्न मनाएं. वाइब्रेंट गुजरात सम्मेलन भी इसी स्थान पर कुछ दिनों पहले आयोजित हुआ था. अब गांधी पर कांग्रेस का आधिपत्य समाप्त हो गया है. भाजपा ने उन्हें पूरे देश की संपत्ति बना दिया है. चुनाव से पहले भाजपा ने सरदार पटेल पर अपना दावा पेश किया था और अब गांधी के गुजरात कनेक्शन से भरपूर फ़ायदा उठाया है. अतिरिक्त बोनस के रूप में प्रधानमंत्री की खुशकिस्मती थी और कांग्रेस की बदकिस्मती कि मई 2014 चुनाव के मध्य में जवाहर लाल नेहरू की 50वीं पुण्य तिथि आई. अगर चुनाव छह महीने बाद हुए होते, तो कांग्रेस ने इस अवसर को बंपर पब्लिसिटी हासिल करने के लिए इस्तेमाल किया होता.
कांग्रेस दुर्भाग्य से ग्रसित हो गई है. पार्टी ने 2004 में भाग्य के सहारे चुनाव जीता था. यहां तक कि 2009 में उसकी कामयाबी में किस्मत और भाजपा की अंदरूनी कलह का बहुत बड़ा हाथ था, लेकिन उसके बाद भाग्य ने उसका साथ छोड़ना शुरू कर दिया. सोनिया गांधी की सेहत खराब रहने लगी, मनमोहन सिंह की कई बाईपास सर्जरी हुईं. लोकसभा का सदस्य रहते हुए (हालांकि, वह अक्सर सदन में अनुपस्थित रहे) भाग्य ने राहुल गांधी का साथ नहीं दिया. अब कांग्रेस को न केवल आम चुनाव में भारी पराजय का सामना करना पड़ा है, बल्कि पार्टी एक के बाद एक राज्य में चुनाव हारती जा रही है. अब सवाल यह उठता है कि क्या कांग्रेस कभी पुनर्जीवित हो पाएगी? जिन राजनीतिक दलों का सत्ता में आवागमन लगा रहता है, वे हार के झटके से उबर आते हैं. लेकिन, जो दल हमेशा से सत्ता में रहा हो, उसे इस तरह के झटके से उबरने में काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. यहां ब्रिटेन की लिबरल पार्टी का उदाहरण अनुचित नहीं होगा. जैसा व्हिग पार्टी का दावा है कि उसने देश में 1688 की शानदार क्रांति का नेतृत्व किया था और अलोकप्रिय मोनार्की (राजतंत्र) के विरुद्ध जनाक्रोश को वैधता प्रदान की थी. ब्रिटेन में लिबरल पार्टी और कंजरवेटिव पार्टी 225 वर्षों तक बारी-बारी सत्ता में आती-जाती रहीं. वर्ष 1905 और उसके बाद लगातार दो चुनाव जीतने के बाद लिबरल पार्टी 1922 में विभाजित हो गई और उसे हार का सामना करना पड़ा. इस हार के बाद वह पूरी बीसवीं सदी के दौरान कभी भी अपने दम पर सत्ता में नहीं आ सकी.
कांग्रेस के साथ भी ऐसा ही हो सकता है. अभी तक पार्टी ने हार के कारणों की समीक्षा या अपनी विचारधारा पुनर्परिभाषित करने की कोशिश नहीं की है. वह संतुष्ट और निष्क्रिय हो गई है. राहुल गांधी को छोड़कर पार्टी नेतृत्व बूढ़ा हो चुका है. राहुल गांधी भी आम तौर पर दिखाई नहीं देते और जब दिखाई देते हैं, तो पार्टी के लिए दायित्व बन जाते हैं. पार्टी में नौजवान नेता हैं, लेकिन उन्हें आगे बढ़ने के लिए इस युवा राजकुमार से असहमति जतानी पड़ेगी. पार्टी के पुराने नेताओं ने पराजय के डर से राज्यसभा का रुख कर लिया है. पार्टी नेतृत्व स्वयं के सकारात्मक रुख की बजाय भाजपा की ग़लतियों की वजह से सत्ता में वापसी की उम्मीद कर रही है. सदन में कांग्रेस की रणनीति यह जाहिर करती है कि पार्टी ने यूपीए शासनकाल में भाजपा के व्यवहार से सीख हासिल की है. लेकिन, दोनों का अंतर भी जाहिर है. पिछले चुनाव में यूपीए को बहुत ही कम जन समर्थन हासिल था और उसके पास कोई ऐसा चेहरा नहीं था, जो नई पीढ़ी के मतदाताओं को उत्साहित कर सके. भाजपा इस मामले में भाग्यशाली थी. प्रधानमंत्री अभी भी एक आइकॉन बने हुए हैं. उन्हें मालूम है कि सोशल मीडिया को कैसे इस्तेमाल करना है. सोशल मीडिया ऐसा क्षेत्र है, जिसमें सोनिया और राहुल दिखाई नहीं देते हैं. जब कोई राजनीतिक दल चुनाव हारता है, तो त्वरित और रेडिकल तरीके से प्रतिक्रिया करता है. मेरी अपनी पार्टी (लेबर पार्टी) को विपक्ष में रहते हुए सत्ता में वापसी के लिए पिछले 18 वर्षों में चार बार अपना नेता बदलना पड़ा और अपनी विचारधारा पुनर्परिभाषित करना पड़ी. टोनी ब्लेयर किस्मत के धनी थे और वह पहले लेबर नेता थे, जिन्होंने तीन चुनाव जीते. कंजरवेटिव पार्टी ने पिछले 13 वर्षों में चार बार अपना नेता बदला और अपनी विचारधारा भी अपडेट की. हारने वाला नेता हर चुनाव के बाद हटा दिया जाता है और जीता हुआ नेता अपनी अगली हार तक नेता बना रहता है.
भारत में कोई पार्टी अपना नेता बदलती हुई दिखाई नहीं देती. भाजपा ने 2009 की हार के बाद अपना नेता नहीं बदला था. वामपंथी दलों का नेतृत्व भी लगभग स्थायी है. दरअसल, कोई भी पराजित दल अपने अंदर बदलाव नहीं लाता. इसका कारण यह है कि किसी भी पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है. भारत को अगर लोकतांत्रिक देश बने रहना है, तो उसे अच्छे राजनीतिक दलों की आवश्यकता होगी.