राजधानी दिल्ली से लगभग एक हजार किमी की दूरी पर स्थित बिहार का बेगूसराय जिला हाल ही में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी के बाद चर्चा में रहा. बेगूसराय के एक गरीब भूमिहार परिवार से संबंध रखने वाले कन्हैया ऑल इंडिया स्टूडेंट्स फेडेरेशन(एआईएसएफ) से ताल्लुक रखते हैं जो कि कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया की छात्र इकाई है.
बेगूसराय और वामपंथ का बहुत पुराना नाता रहा है. एक समय इसे मिनी मॉस्को के नाम से भी जाना जाता था. बिहार में वामपंथ ने यहीं से अपने पैर पसारे, लेकिन आज वह अपने अस्तित्व की लड़ाई में जुटा हुआ है. कन्हैया कुमार पर देशद्रोह का आरोप लगने, उनके जेल जाने और फिर जमानत पर रिहा होने के घटनाक्रम में वापपंथी दलों को कन्हैया में वामपंथ की वापसी के लिए आशा की किरण नज़र आई है. लेकिन क्या कन्हैया बिहार में वामपंथ को फिर से स्थापित कर पाएंगे? क्या मिनि मॉस्को अपने अतीत की बुलंदियों को एक बार फिर हासिल कर पाएगा ?
पिछले एक महीने में कन्हैया छात्र नेता से राष्ट्रीय नेता बन गए. सीपीआई सहित अन्य दलों की नज़रें कन्हैया कुमार पर टिकी हुई हैं. हर कोई इस युवा नेता को अपने दल में शामिल करना चाहता है और जेएनयू प्रकरण का राजनीतिक लाभ लेना चाहता है. सीपीआई(एम) के महासचिव सीताराम येचुरी तो कन्हैया के आगामी बंगाल विधानसभा चुनाव में वामपंथी दलों के लिए प्रचार करने की बात सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं. उन्होंने यह भी कहा कि देश पहली बार लेफ्ट के युवाओं की ताकत देख रहा है. उन्होंने यह भी कहा कि कन्हैया कुमार समेत वो सभी कार्यकर्ता जो लेफ्ट का समर्थन करते हैं, पश्चिम बंगाल में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में वामपंथी दलों का प्रचार करेंगे. कन्हैया के बंगाल चुनाव प्रचार में उतरने की खबर पर प्रतिक्रिया देत हुए बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि कन्हैया के चुनाव प्रचार में उतरने से बंगाल चुनाव में कोई फर्क नहीं पड़ेगा. उनका कहना है कि जिन नारों के बल पर कन्हैया हीरो बना है वही नारे बंगाल में वापमंथी दलों को सता रहे हैं. बंगाल में ये सभी परेशानियों तीन दशक लंबे वामपंथी शासन की देन हैं.
बेगूसराय और उसके आस-पास के इलाके में कॉमरेड चंद्रशेखर सिंह ने वामपंथ की नींव रखी थी. बिहार के पहले मुख्यमंत्री डॉ श्रीकृष्ण सिंह की कैबिनेट के मंत्री रामचरित्र सिंह के बेटे चंद्रशेखर सिंह ने अपने पिता से बगावत कर कम्युनिस्ट पार्टी का झंडा उठाया था. एक दौर था जब बेगूसराय कम्युनिस्टों का गढ़ था, इसी वजह से बेगूसराय को मिनी मॉस्को कहा जाता था. चंद्रशेखर को बिहार का लाल सितारा भी कहा जाता है. दरअसल चंद्रशेखर सिंह जब कॉलेज में पढ़ रहे थे, तब वह रुस्तम साटन नाम के वामपंथी और मार्क्सवादी कार्यकर्ता के संपर्क में आए. इसके बाद वह वामपंथी विचारधारा के होकर रह गए. 1940 में अंग्रेज सरकार के खिलाफ भाषण देने की वजह से उन्हें गिरफ्तार भी किया गया था. बाद में वह 1967 में बिहार की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार में मंत्री भी बने.
बीहट गांव में रहने वाले कन्हैया के परिवार का वामपंथ से तीन पीढ़यों पुराना नाता है. उनके दादा मंगल सिंह बेगूसराय के बरौनी खाद कारखाना में फोरमेन थे. वह वामपंथी विचारधारा को मानते थे और चंद्रशेखर सिंह के बचपन के दोस्त थे. कन्हैया के पिता भी अपने पिता की राह पर चले ौर कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने. अभी भी वह पार्टी के कार्ड होल्डर हैं. उनकी राह पर चलते हुए कन्हैया ने भी वामपंथ का दामन थामा और देश के जाने-माने विश्वविद्यालय के छात्र संघ अध्यक्ष चुने गए. लेकिन जेएनयू में देश विरोधी नारे लगने के बाद जिस तरह इस मामले ने तूल पकड़ा और देश के सारे विपक्षी दलों ने उनकी गिरफ्तारी का पुरजोर किया. एक पखवाड़े में कन्हैया एक अनजान छात्र से देश के युवा छात्र नेता के रूप में पहचाने जाने लगे.
पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु केरल और पुदुचेरी में होने वाले चुनाव में निश्चित तौर पर वह एक राजनेता के रूप में भाषण देते नज़र आएंगे. उनकी इन चुनावों में सक्रिय भूमिका से विपक्षी दलों को फायदा होगा या नहीं यह तो आने वाला वक्तही बताएगा. लेकिन इन चुनाव परिणामों से कन्हैया का राजनीतिक भविष्य जरूर तय होगा. क्या इन चुनावों के बाद राजनीतिक दल कन्हैया को उसी तरह हाथों हाथ लेंगे जिस तरह वे उसे अभी ले रहे हैं या फिर यूज एंड थ्रो नीति का अनुसरण करेंगे.
एक दौर था जब बेगूसराय जिले में विधानसभा की सातों सीट पर वामपंथी दलों के प्रतिनिधि चुने गए थे. इन दलों से निकले निर्दलीय उम्मीदवार भी चुनाव जीतकर आगे बढ़े. इन्हीं वामपंथी दलों से लोग कांग्रेस, बीजेपी, जेडीयू, आरजेडी, एलजेपी दलों में भी गए. बीजेपी में आकर दो वामपंथी नेता विधायक, मंत्री और सांसद भी बने. पंचायत और नगर निकाय चुनावों में भी वामपंथ की खास धमक दिखती रही है. वामपंथ की थोड़ी-बहुत ताकत अभी भी यहां रैलियों में दिखती है. चुनावों में गणितीय आंकड़ों के मद्देनजर इसकी चर्चा होती है. वामपंथी छात्र संगठनों से निकले कई छात्र नेताओं ने दूसरे राजनीतिक दलों में अपना समायोजन कर लिया है. जो बुजुर्गवार लोग वामपंथ की आवाज की तरह बने हुए हैं, नौजवान उनको परिवार भाव से सुन तो लेते हैं, पर उनकी बताई राह का अनुसरण नहीं करते.
जिस गांव में कन्हैया का घर है. वह गांव यानी बीहट जिले में वामपंथ के सबसे अधिक प्रभाव वाला गांव रहा है. पड़ोसी गांव मधुरापुर के सूर्यनारायण सिंह उर्फ सूरज बाबू को क्षेत्र के लोग अभी तक भूल नहीं पाए हैं. जमानत के बाद कन्हैया के जेएनयू में दिए भाषण की तारीफ कर रहे लोगों ने बीहट के रहने वाले कॉमरेड
चंदेश्वरी प्रसाद सिंह को यकीनन नहीं सुना होगा. स्थानीय बोली में उनका भाषण वैचारिक विरोधियों को भी सहजता से जोड़ता था. गांव में अधिकतर सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन में कथित वामपंथियों की भूमिका रहती है. जिस तरह से येचुरी ने कन्हैया को पश्चिम बंगाल में सीपीएम का स्टार प्रचारक बता दिया. उसके बाद जेडीयू, आप, कांग्रेस सहित कई दलों ने कन्हैया में दिलचस्पी दिखाई है. सीपीआई की छात्र इकाई से आन वाले कन्हैया के लिए गंभीरता से सोचने का वक्त है.
चंद्रशेखर सिंह के अलावा इंद्रदीप सिंह इस क्षेत्र के जाने माने वामपंथी नेता रहे हैं. वर्ष 1964 जब भारतीय वामपंथी आंदोलन में फूट पड़ी तब बिहार में ऐसा नहीं हुआ था. महासचिव जगन्नाथ शंकर की अगुवाई में बिहार में सीपीआई इतनी ताकतवर थी कि उनके नई दिल्ली में इंदिरा गांधी के साथ हुए गठबंधन की वजह से जयप्रकाश नारायण को अपने आंदोलन की शुरूआत करनी पड़ी थी.
जेएनयू प्रकरण ने कई संभावनाओं के रास्ते खोल दिए हैं. इन संभावनाओं में से कुछ काल्पनिक हो सकती हैं. लेकिन इस प्रकरण से सीपीआई की आंखो में चमक आ गई है. उन्हें लगता है कि कन्हैया उन्हें सफलता के नए शिखर पर लेकर जाएंगे और वामपंथी विचारधारा को बाहार के साथ-साथ देश में पुनर्स्थापित करेंगे. जब वर्ष 1964 में पार्टी का विघटन हुआ था.
तब सीपीआई छोटी और सीपीआई(एम) बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी, जिसने आगे चलकर लगातार तीन दशक तक पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में शासन किया और बीच-बीच में केरल मे भी. अपने राजनीतिक ढलान पर पहुंचने के बाद भी सीपीआई(एम) के पास आज भी लोकसभा में 9 सदस्य हैं जबकि सीपीआई के खाते में एक. ऐसे में सीपीआई की राह में सौभाग्य से कन्हैया नाम की संजीवनी आ गिरी है, जो सीपीआई को अभयदान दे सकती है. कहा जा रहा है कि जरूर सीपीआई ने पूर्व में अच्छे कर्म किए होंगे. शायद इसी वजह से बुरे दौर में कन्हैया तारणहार के रूप में उनके पाले में आ गया है.