‘शिक्षक पर्व’ के उत्सव में भाग लेते हुए प्रधानमंत्री ने पिछले सात साल के अपने शासन-काल की उपलब्धियाँ गिनाईं और गैर-सरकारी शिक्षा संगठनों से अनुरोध किया कि वे शिक्षा के क्षेत्र में विशेष योगदान करें। इसमें शक नहीं है कि पिछले सात साल के आंकड़े देखें तो छात्रों, शिक्षकों, स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों की संख्या में अपूर्व बढ़ोतरी हुई है। इस बढ़ोतरी का श्रेय सरकार लेना चाहे तो उसे जरुर मिलना चाहिए लेकिन असली सवाल यह है कि क्या हमारी शिक्षा नीति में जो मूल-परिवर्तन होने चाहिए थे, वे हुए हैं या नहीं ? सात साल में चार शिक्षा मंत्री हो गए, मोदी सरकार में। औसतन किसी मंत्री को दो साल भी नहीं मिले याने अभी तक सिर्फ जगह भरी गई। कोई ऐसा शिक्षा मंत्री नहीं आया, जिसे शिक्षा-व्यवस्था की अपनी गहरी समझ हो या जिसमें मौलिक परिवर्तन की दृष्टि हो। जो शिक्षा-पद्धति 74 साल से चली आ रही है, वह आज भी ज्यों की त्यों है। नई शिक्षानीति की घोषणा के बावजूद कोई सुधार नजर नहीं आ रहा है। यदि सचमुच हमारी सरकार के पास कोई नई दृष्टि होती और उसे अमली जामा पहनाने की इच्छा शक्ति किसी मंत्री के पास होती तो वह अपनी कुर्सी में पांच-सात साल टिकता और पुराने सड़े-गले औपनिवेशिक शिक्षा-ढांचे को उखाड़ फेंकता। लेकिन लगता है कि हमारी राजनीतिक पार्टियां किसी भी राष्ट्र के निर्माण में शिक्षा का महत्व क्या है, इसे ठीक से नहीं समझतीं। इसीलिए प्रधानमंत्री मजबूर होकर गैर-सरकारी शिक्षा-संगठनों से कृपा करने के लिए कह रहे हैं। गैर-सरकारी शिक्षा-संगठनों ने निश्चय ही सरकारी संगठनों से बेहतर काम करके दिखाया है। इसीलिए प्रधानमंत्रियों और शिक्षा मंत्रियों के बच्चे भी निजी स्कूलों और कालेजों में पढ़ते रहे हैं। शिक्षा-व्यवस्था में मौलिक परिवर्तन करने के लिए तो बहुत-से सुझाव हैं लेकिन क्या मोदी सरकार यह एक प्रारंभिक कार्य कर सकती है ? वह यह है कि देश के सभी जन-प्रतिनिधियों-पंचों से लेकर राष्ट्रपति तक और समस्त सरकारी कर्मचारियों के बच्चों के लिए यह अनिवार्य कर दे कि वे सिर्फ सरकारी स्कूलों और काॅलेजों में ही पढ़ेंगे। यह कर दे तो देखिए रातों-रात क्या चमत्कार होता है? सरकारी स्कूलों का स्तर निजी स्कूलों से अपने आप बेहतर हो जाएगा। मेरे इस सुझाव पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 8-10 साल पहले मुहर लगा दी थी लेकिन वह आज तक उत्तरप्रदेश में लागू नहीं हुआ है। निजी शिक्षा-संस्थाएं और निजी अस्पताल आज देश में खुली लूट-पाट के औजार बन गए हैं। देश का मध्यम और उच्च वर्ग लुटने को तैयार बैठा रहता है लेकिन देश के गरीब, ग्रामीण, पिछड़े, आदिवासी और मेहनतकश लोगों को शिक्षा और चिकित्सा की सुविधाएं उसी तरह कठिनाई से मिलती हैं, जैसे किसी औपनिवेशिक शासन में गुलाम लोगों को मिलती हैं। यदि अपने स्वतंत्र भारत को महाशक्ति और महासंपन्न बनाना है तो सबसे पहले हमें अपनी शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्रों में क्रांतिकारी परिवर्तन करने होंगे।
शिक्षा में क्रांति की शुरुआत ?
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