एक फिल्म है ‘मट्टो की साईकिल’ । मैंने सिनेमाघर के मालिक से पूछा , यह फिल्म तुम्हारे सिनेमाघर में लगी है ? उसने मैसेज भेजा — न लगी है और न लगेगी । आखिर डाउनलोड करके मोबाइल पर देखी । ‘मट्टो की साईकिल’ देखते हुए एक बात दिमाग में आई कि बालीवुड को एक नया सुपर सितारा मिला है प्रकाश झा के रूप में । जो दिहाड़ी मजदूर हो सकता है , खेतिहर मजदूर , रेहड़ी वाला , रिक्शा वाला, हमाल या ऐसा ही कुछ और भी हो सकता है । वह कुछ भी हो सकता है । प्रकाश झा ऐसे किसी भी रोल के लिए मुफीद हैं । उनका चेहरा और उसकी बनावट यही कहती है । बेशक उन्होंने इससे पहले भी कई फिल्मों में छिटपुट रोल किये हैं पर यह फिल्म पूरी तरह से प्रकाश झा की फिल्म है । पर यह फिल्म क्या है एक तरह से दिहाड़ी मजदूर की डाक्यूमेंट्री कहिए । फिल्म देखते समय एक ही बात दिमाग में थी कि इसका अंत क्या और कैसा होगा । हमें लगा अंत में प्रकाश झा यानी मट्टो सरपंच की नयी गाड़ी पर पत्थर खींच कर मारेगा जैसे ‘अंकुर’ फिल्म के अंत में बच्चे का आक्रोश था । या मट्टो का कोई दर्दनाक अंत होगा । ऐसा कुछ नहीं हुआ और फिल्म का अंत निराशाजनक वैसा ही हुआ है जैसा फिल्म ‘तीसरी कसम’ में निराशाजनक अंत था । वह फिल्म पिटी और यह तो बुरी तरह पिट ही गयी । ‘तीसरी कसम’ की याद इसलिए आयी कि कल अमिताभ श्रीवास्तव ने अपने फिल्म के कार्यक्रम ‘सिनेमा संवाद’ में ‘तीसरी कसम के बहाने ….’ इस शीर्षक से एक बेहतरीन प्रोग्राम किया । गोकि इस कार्यक्रम में भी ले देकर या घूम फिरकर एक से लोगों का पैनल होता है लेकिन सप्ताह में एक बार ज्यादा खटकता नहीं । कमलेश पांडे को सुनना अच्छा लगता है लेकिन वे इतना बोलते हैं कि औरों को समय कम मिल पाता है । ‘तीसरी कसम’ पर यह कार्यक्रम तत्कालीन समय , उन घटनाओं और उन पात्रों को जीवंत कर गया । राजनीति से हट कर ताजगी मिलती है ऐसे कार्यक्रमों से ।
दिमाग में एक बात यूंही आयी । हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान की रचना करते समय क्या आज के समय की कल्पना की होगी । की होती तो जरूर यह भी सोचा होता कि लोकतंत्र की मजबूती के लिए क्या यह जरूरी नहीं कि सरकार चुनने वाला हर शख्स कम से कम इतना पढ़ा लिखा और ‘समझदार’ हो कि वह लोकतंत्र के मायने कायदे से समझ सके । संविधान में वोट डालने की उम्र 21 साल यह सोच कर रखी गयी कि इस उम्र का नौजवान एक औसत समझ रखता ही है । सच या वास्तविकता क्या है । जरूरी नहीं कि 21 साल का व्यक्ति पढ़ा लिखा हो या लोकतंत्र की सही समझ रखता हो । (संविधान की) इसी चूक का फायदा नरेंद्र मोदी ने भरपूर उठाया । काश कुछ ऐसा होता कि वोट डालने वाले की कोई ऐसी परीक्षा होती जिससे पता चलता कि वोट की कीमत और उससे बनी सरकार के मायने क्या होते हैं यह बात वोट डालने जा रहा शख्स भली-भांति समझ रहा है । पूछा जा सकता है कि एक किसान और मजदूर के लिए क्या इस समझ का होना संभव है ? प्रश्न कई हो सकते हैं पर आज जिस लोकतांत्रिक बीमारी( !) से हम जूझ रहे हैं वह अनेक दूसरे प्रश्नों को जन्म भी दे रही है ।
कल ‘देश के सबसे बड़े या सबसे बड़ों में से एक राजनीतिक व्याख्याकार’ अभय दुबे को ‘लाउड इंडिया टीवी’ पर उन्हीं के शो में सुना । संतोष भारतीय जी माफ करेंगे पर कहना जरूरी लगता है.….. । आशा है संतोष जी समझ रहे होंगे । सच यह है अभय दुबे किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं । गोदी मीडिया के चैनलों से भी वे काफी प्रसिद्ध हुए हैं । बिना किसी परिचय (स्तुति) के भी तो उनके साथ कार्यक्रम शुरु किया जा सकता है । नियमित सुनने वाले हर किसी व्यक्ति को रविवार सुबह ग्यारह बजे का इंतजार रहता है । संतोष जी से एक निवेदन और कि कई बार अभय जी को ‘सत्य हिंदी’ शनिवार रात दस बजे इंटरव्यू करता है। इस बार भी हमें डर था कि शनिवार की बातें रविवार को रिपीट न हों । हुआ वही । इसलिए यदि संतोष जी इस बात का ध्यान रखें तो रविवार के कार्यक्रम में ताजगी आए । दोहराहट में कभी कभी गड़बड़ी भी हो जाती है । जैसे ‘सत्य हिंदी’ पर अभय जी ने कहा कांग्रेस अध्यक्ष यदि गांधी परिवार से बाहर का होगा तो उस पर गांधी परिवार का ही वर्चस्व रहेगा इस तरह की बातें बकवास हैं । लेकिन संतोष जी के साथ इसका उल्टा ही बोले । इसी तरह हमें याद है कि पहले कई बार उन्होंने कहा कि अब मोदी के सामने मोहन भागवत की कोई हैसियत नहीं रह गयी है । यह भी उन्होंने कहा संघ को डेढ़ साल तक सरकार के कामों में हस्तक्षेप न करने के लिए हिदायत दी गई है । लेकिन कल उन्होंने कहा कि भाजपा का आलाकमान तीन लोगों का है – मोदी, शाह और भागवत । वे कहते हैं कि भागवत के सुझावों को ही मोदी मान रहे हैं और मुस्लिम नेताओं से मिलने की भागवत की पहल मोदी और संघ की मिली-जुली पहल है । अभय जी की बातों को लोग बेहद गंभीरता से लेते हैं । इसलिए उनकी बातों में इस तरह का अंतर्विरोध लोगों को परेशान कर सकता है । संभव है कि कांग्रेस की यात्रा ने संघ और मोदी दोनों को परेशान किया हो और दोनों ने इस समय एक साथ आकर इस चुनौती से मुकाबला करने की ठानी हो । फिलहाल सत्ता बचाने के लिए बाकी सारे मुद्दे गौण हैं । हुआ तो यही है । कांग्रेस की यात्रा से बीजेपी में तो खलबली है ही , कहीं न कहीं आम आदमी पार्टी में भी परेशानी बढ़ी होगी भीतर ही भीतर । देश में इस समय राजनीति उबाल पर है । कांग्रेस को चाहिए उत्तर प्रदेश आते आते कुछेक फिल्म अभिनेताओं को भी जोड़े। और ‘हल्ला बोल’ वाले बेरोजगार युवाओं को भी । राहुल गांधी सकारात्मक और ऊर्जावान लगने लगे हैं लेकिन वे मैच्योर तभी होंगे और दिखेंगे जब यात्रा सफलता के साथ सम्पन्न होगी ।
मुस्लिम नेताओं से यकायक संघ प्रमुख का मिलना और इसके लिए मस्जिद तक हो आना ‘टाइमिंग’ को लेकर कई सवाल खड़े करता है । लेकिन दूसरी तरफ मुस्लिम नेताओं का भागवत से मिल कर गदगद होना भी अजीब लगता है । आखिर ऐसा क्या है भागवत में जो चुनाव आयोग के पूर्व सदस्य कुरैशी और दिल्ली के पूर्व राज्यपाल नजीब जंग उनकी तारीफ में जुटे हैं । करण थापर को ‘वायर’ के लिए दिये इंटरव्यू में तो ऐसा ही कुछ दिखा । कानून के जानकार फैजान मुस्तफा अक्सर अपने कार्यक्रमों में भागवत की भूरि भूरि तारीफ करना नहीं भूलते । यह वास्तविकता है या कोई मजबूरी ?
आजकल रवीश कुमार कुछ थके थके से लगते हैं या यह हमारी खामख्याली है । कई बार अनुराग द्वारी को लंबा खींच कर या लेह लद्दाख की सुशील बहुगुणा की रिपोर्टिंग से भरपाई होती है । कई बार सोमवार या शुक्रवार को निधि कुलपति का प्राइम टाइम होता है । रवीश कुमार के साथ हर किसी की हमदर्दी है । होनी ही चाहिए । विपरीत परिस्थितियों में कैसे टिक कर खड़ा हुआ जाता है इसकी एक मिसाल हैं रवीश ।
कल ‘ताना बाना’ कार्यक्रम में लेखकीय संघों पर बात बढ़िया रही लेकिन कम से कम चार नहीं तो तीन लोगों से तो बातचीत होनी ही चाहिए थी । कविवर अशोक वाजपेई ने तो एक ऐसी बात कह कर भौंचक कर दिया कि जिसकी उन जैसे व्यक्ति से उम्मीद नहीं थी । उन्होंने कहा कि विधायकों की खरीद-फरोख्त कुछ ग़लत नहीं बल्कि यह राजनीतिक संतुलन के लिए जरूरी है । इसमें कहीं से भी आचरण की भ्रष्टता खोजना गलत है । अशोक वाजपेई ऐसा कहेंगे यह माना नहीं जा सकता । इसका मतलब भाजपा जो विधायकों की खरीद फरोख्त कर रही है वह राजनीतिक संतुलन के लिए कर रही है । कोई वाजपेई जी से फिर पूछे आखिर उनके कहने का तात्पर्य क्या है । याकि हम ही गलत समझ रहे हैं । इस हफ्ते गोदी मीडिया के चैनलों पर सुप्रीम कोर्ट की फटकार अच्छा विषय बनी । खासतौर से सोशल मीडिया पर। सुप्रीम कोर्ट की बीच बीच में इस तरह की अंगड़ाईयां अच्छी लगती हैं । राजनीति में भूचाल इन्हीं सब बातों का नाम या परिणाम होता है । अगला हफ्ता देखिए ।
मट्टो, राजनीति, संविधान का आदमी और तीसरी कसम के बहाने ……
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