चम्पारण सत्याग्रह के सौ साल पूरे होने पर केंद्र और राज्य सरकार सहित विभिन्न संस्थाएं तरह-तरह के आयोजनों को अंजाम देने की तैयारी में जुट गई है, लेकिन भीतिहरवा गांधी आश्रम के आस-पास के ग्रामीणों ने अपने बल-बूते महात्मा गांधी और खासकर कस्तूरबा गांधी को श्रद्धांजलि देने के लिए बालिकाओं के शिक्षण-प्रशिक्षण की गतिविधियों को तेज कर दिया है.
दुनिया भर में भीतिहरवा का नाम है. चंपारण सत्याग्रह के दौरान यहां कस्तूरबा गांधी बापू के साथ आई थीं और लोगों को सफाई, अनुशासन, पढ़ाई आदि के महत्व के बारे में बताया था. 27 अप्रैल 1917 को महात्मा गांधी मोतिहारी से नरकटियागंज आये, फिर पैदल ही शिकारपुर व मुरलीभहरवा होकर भीतिहरवा आए थे. गांधी जी चम्पारण पहुंचे. उनके साथ कस्तूरबा गांधी भी थीं.
कस्तूरबा गांधी गांवों में महिलाओं को सफाई का महत्व समझातीं. एक दिन कस्तूरबा भीतिहरवा गांव गईं. वहां की किसान औरतों के कपड़े बहुत गंदे थे. कस्तूरबा ने समझाया कि गंदगी से बीमारियां होती हैं. कपड़ा धोने में ज्यादा खर्चा भी नहीं आता है. इस पर एक गरीब महिला जिसके कपड़े बहुत गंदे थे, अपनी झोपड़ी में ले गई और बोली माताजी! देखें, मेरे घर में कुछ नहीं है.
बस मेरी देह पर एक ही धोती है. आप ही बताइए, मैं क्या पहन कर धोती साफ करूं? आप गांधी जी से कहकर मुझे एक धोती दिलवा दें, तो मैं रोज स्नान करूं और कपड़े साफ रखूं. गांधी जी पर इसका अद्भूत असर पड़ा. उसी दिन से उन्होंने केवल लंगोटी पहन कर तन ढकने की प्रतिज्ञा कर ली.
महात्मा गांधी ने सौ साल पहले जब भीतिहरवा आश्रम की नीव डाली थी, तब उस समय उन्होंने किसानों की समस्याओं के निराकरण के साथ-साथ महिलाओं को शिक्षित करने का भी अभियान चलाया था. इसकी जिम्मेदारी उन्होंने अपनी धर्मपत्नी कस्तूरबा को सौंपी थी. कस्तूरबा गांधी ने महिला शिक्षण के कार्य को गांधी जी के चम्पारण से चले जाने के बाद भी छह महीने तक जारी रखा.
कस्तूरबा के प्रयत्नों को देख कर ग्रामीण इतने प्रभावित हुए कि उन्होंनेे उनकी स्मृति बनाए रखने के लिए उनके द्वारा शुरू की गई परंपरा को जारी रखने का संकल्प लिया. अब तो वे उस परंपरा को और समृद्ध करने में जुटे हैं.
कस्तूरबा गांधी की स्मृति में ग्रामीणों ने कन्या विद्यालय के लिए दान में जमीन दी. जमीन देने वालों में गोविंद प्रसाद, बैजनाथ प्रसाद चौहान, बैजनाथ प्रसाद यादव, नंदलाल चौहान, मूढोडिया, मेघनाथ गुप्ता, अनिरुद्ध चौरसिया, रघुनाथ साह के नाम शामिल हैं. इन भूदाताओं का सपना था कि उनकी दी हुई जमीन पर कस्तूरबा की स्मृति में कन्या विद्यालय बने.
कस्तूरबा कन्या उच्च विद्यालय (+2) के सचिव दिनेश प्रसाद यादव के मुताबिक ग्रामीणों के जमीन देने के बावजूद स्कूल के भवन आदि के लिए जब कहीं से फंड नही मिला, तब उन्होंने अपने बलबूते भवन का निर्माण शुरू कर दिया. दीपेंद्र बाजपेयी के नेतृत्व में स्थानीय ग्रामीण युवकों ने नि:शुल्क अध्यापन शुरू कर दिया है.
कुछ साल पहले तक जब भूदाताओं का सपना साकार नहीं हुआ, तो ग्रामीणों ने दिनेश प्रसाद यादव को इस स्कूल के सुचारू रूप से संचालन और विकास की जिम्मेदारी सौंप दी. इसके बाद दिनेश यादव ने अपनी सूझ-बूझ से स्थानीय युवाओं को जोड़ा और स्कूल का संचालन शुरू कर दिया है.
दिनेश प्रसाद यादव, दीपेन्द्र बाजपेयी, पूजा जायसवाल, रश्मि, वीणा सिंह, श्वेता कुमारी, विद्याशंकर पटवारी, अखिलेश्वर पाण्डेय, चंद्रकिशोर महतो, शशिकांत पाठक, मिथिलेश कुमार, विवेक कुमार, सुनील कुमार यादव और अन्य युवाओं ने अपने प्रयत्नों से अपने पूर्वजों के सपनों को पंख दे दिए हैं. स्कूल में लड़कियां पढ़ने आने लगी हैं और उनकी संख्या में लगातार इजा़फा भी होने लगा है.
ग्रामीणों में भी उत्साह का संचार होने लगा है. चम्पारण सत्याग्रह के सौ साल पूरे होने पर गांधी और कस्तूरबा गांधी को उनकी परंपरा को उनके विचारोनुकूल बढ़ाने से बेहतर कोई और श्रद्धांजलि नहीं हो सकती.
ग्रामीणों ने स्कूल के लिए न केवल जमीन दी है, बल्कि वे भवन निर्माण के लिए भी पैसा दे रहे हैं. इसी के साथ स्कूल में पंखे, कुर्सियां और अन्य जरूरी सामान भी सरकार से मांगने के बजाय अपने बल बूते जुटा रहे हैं. आर्थिक दृष्टि से कमजोर भीतिहरवा और श्रीरामपुर के किसान परिवारों के लिए अपने निजी खर्चे से बचाकर स्कूल को आर्थिक मदद देना उनके बस की बात नहीं है.
लेकिन कठिनाइयों की कोई परवाह किए बिना लड़कियों को शिक्षित बनाने के लिए ग्रामीण कृतसंकल्प हैं. ग्रामीणों ने बेहतर स्कूल के सपनों को साकार करने के लिए खुद को झोंक दिया है. ग्रामीणों ने सरकार से स्कूल के विकास कार्यों के लिए कई बार गुहार लगाई, लेकिन कोई तवज्जो नहीं दी गई. जब सरकार से हर बार निराशा ही मिली, तो ग्रामीणों ने खुद ही इसे पूरा करने का संकल्प लिया.
अगर सरकार ने पहले इस ओर ध्यान दिया होता, तो इस इलाके की लड़कियां आत्मनिर्भर होतीं. बेतिया जिले में नरकटियागंज अनुमंडल मुख्यालय से करीब बीस किलोमीटर दूर भीतिहरवा स्थित गांधी आश्रम के आस-पास के दर्जनों गावों की लड़कियों की शिक्षा के लिए कोई स्कूल नहीं है. इलाक़ों के ग्रामीणों की आर्थिक स्थिति इतनी बेहतर नहीं है कि वे अपनी बेटियों को पढ़ने के लिए बेतिया या नरकटियागंज भेज सकें.
उनकी इस विवशता को महात्मा गांधी और कस्तूरबा गांधी ने सौ साल पहले ही समझ लिया था, तभी तो उन्होंने लड़कियों की शिक्षा को एक आंदोलन का रूप दिया. लेकिन स्वाधीनता आंदोलन में सक्रियता के कारण गांधी और कस्तूरबा दोबारा इस आंदोलन को आगे नहीं बढ़ा सके, लेकिन उनके द्वारा डाली गई नीव को ग्रामीणों ने समझ लिया था.
यही वजह है कि कस्तूरबा गांधी की स्मृति को बनाए रखने के लिए ग्रामीणों ने आगे बढ़ कर जमीन दान दिया और स्कूल का शिलान्यास भी किया. स्कूल बनाने के उनके सपने में भले ही कुछ देर हो, लेकिन यह कभी मर नहीं सकता है. अब जब नौजवानों की टोली ने अपने बूते स्कूल को संचालित कर दिया है तो ग्रामीणों का सपना साकार होता दिखने लगा है.
दिनेश प्रसाद यादव बताते हैं कि स्कूल की स्थापना 1986 में ही कर दी गई थी, लेकिन पिछले एक साल से इस स्कूल का जितना विकास हुआ है, उतना पिछले पचीस साल में भी नहीं हुआ. अब बिहार विद्यालय परीक्षा समिति की शर्तों को ध्यान में रख कर नौजवानों ने जन सहयोग से 11 कमरों का निर्माण करा दिया है. नौजवान भी लोगों का उत्साह देखकर हैरान हैं.
राज्य के पर्यटन सचिव हरजोत कौर ने इस विद्यालय परिसर में कस्तूरबा पार्क बनाने का आश्वासन दिया है. स्कूल के चर्चा में आने की एक खास वजह यह भी है कि यहां छात्राओं को मौजूदा शिक्षा व्यवस्था के मद्देनजर संबंधित पाठ्यक्रमों के अलावा गांधीवादी मूल्यों से भी अवगत कराया जाता है. यहां की छात्राएं सफाई करती हैं, तो शिक्षक-शिक्षिकाएं भी झाड़ू लेकर सफाई करते दिख जाते हैं. छात्राओं को श्रम मूल्यों से जोड़ने के साथ-साथ आधुनिक तकनीकी ज्ञान की भी जानकारी दी जा रही है.