बांग्लादेश की राजधानी ढाका कमोबेश कोलकाता जैसी ही है. पुरानी बसावट के लिहाज से थोड़ा बहुत बनारस, भोपाल और हैदराबाद से मेल खाती हुई. दक्षिण एशिया की तरह एक जैसी समस्याएं, जिज्ञासाएं, बेचैनी और मन में अनगिनत सवाल! आंखों में तरक्की के सपने, अपनी भाषा एवं संस्कृति के प्रति बेहद लगाव. मस्जिदों और कामगारों के शहर ढाका की सुबह बेहद खूबसूरत होती है. सवेरे-सवेरे काम पर जाने वालों की भागम-भाग और शाम होते ही सड़कों पर सुकून और इत्मीनान का अहसास. यहां बांग्ला गीतों में रवींद्रनाथ टैगोर की पंक्तियां सुनने के बाद सीमाओं का बोध खत्म हो जाता है. ढाका रेडियो स्टेशन और टेलीविजन केंद्र का वाचनालय का मुख्य आकर्षण रवींद्रनाथ टैगोर और काजी नजरूल इस्लाम का तैल चित्र उनकी अहमियत बताने के लिए काफी है.
ढाका यूनिवर्सिटी और उसके आस-पास के इलाके मसलन, लालमटिया, मुहम्मदपुर, असद गेट एवं धानमंडी इला़के में गिटार बजाते हुए नौजवानों के कई समूह देर रात तक आपको दिख जाएंगे. उनके गीतों में संघर्ष और बदलाव के धुन महसूस होते हैं. बांग्लादेश में भी छात्र राजनीति का गौरवशाली अतीत रहा है, लेकिन छात्रसंघ की स्थिति यहां थोड़ी बेहतर है. बांग्लादेश के ज्यादातर सरकारी विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ के चुनाव होते हैं, जबकि भारत के कई राज्यों में छात्रसंघ पाबंदियां झेल रहे हैं. ढाका में कोलकाता की तरह ट्राम तो नहीं चलती, लेकिन मुंबई की तरह यहां डबल डेकर बसें जरूर चलती हैं. दिन में ढाका की सड़कें काफी व्यस्त रहती हैं. सड़क जाम यहां की एक बड़ी समस्या है. कई लोग सड़कों पर पैडल रिक्शा का बेरोक टोक परिचालन सड़क जाम की वजह मानते हैं. लेकिन ढाका को रिक्शा मुक्त कर पाना फिलहाल संभव नहीं है. ढाका के हर इला़के में आपको रिक्शा दिख जाएगा, यहां तक कि संसद भवन जैसे अति सुरक्षित माने जाने वाले इलाकों में भी.
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ट्रैफिक जाम से परेशान लोगों का कहना है कि सरकार को रिक्शे का परिचालन ढाका में बंद कर देना चाहिए. वहीं कुछ सामाजिक संगठन ऐसी मांग के सख्त ख़िला़ङ्ग हैं. उनका मानना है कि रिक्शा न सिर्फ ढाका की पहचान है, बल्कि इससे हज़ारों लोगों की रोज़ी-रोटी जुड़ी हुई है. इसे बंद करने का मतलब है गरीबों से उनका रोज़गार छीनना और ढाका की पहचान ख़त्म करना. ढाका में रिक्शे की यही अहमियत उसके वजूद का कारण है. हालांकि, इसके पीछे सियासी मतलब भी छुपा हुआ है. सत्ताधारी अवामी लीग हो या बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी रिक्शों पर पाबंदी की बात कहना तो दूर की बात है, वे ऐसा सोच भी नहीं सकतीं, क्योंकि ढाका के रिक्शा चालक यहां की पार्टियों के लिए बड़ा वोट बैंक भी हैं.
ब्रिटिश इंडिया के वक्त ढाका और कोलकाता एकीकृत बंगाल की प्रमुख औद्योगिक एवं शैक्षणिक केंद्र थे. वहीं स्वतंत्रता सेनानियों के लिए ढाका और कोलकाता मुफीद जगह थे. शहीद-ए-आज़म सरदार भगत सिंह से लेकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस और चंद्रशेखर आज़ाद जैसे क्रांतिकारियों ने ढाका में कई गुप्त बैठकें की थीं. ढाका का पलटन बाजार और तोपखाना रोड क्रांतिकारियों के गढ़ माने जाते थे. तोपखाना रोड की गलियों में आज भी कई ऐसे ब्रिटिशकालीन मकान मिल जाएंगे, जो उन दिनों की याद दिलाते हैं. ढाका के पुराने इलाकों में शुमार इन जगहों पर सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट पार्टियों के दफ्तर आज भी मौजूद हैं. इसके अलावा, यहां बड़ी संख्या में ट्रेड यूनियनों ख़ासकर गारमेंट्स इंडस्ट्री से जुड़े यूनियनों के कार्यालय बहुतायत हैं. एक दिलचस्प बात यह है कि बांग्लादेश की ट्रेड यूनियनों में महिलाओं की अच्छी ख़ासी भागीदारी है.
बंटवारे से पहले जूट की मिलें ज्यादातर कोलकाता में थीं, लेकिन जूट की सर्वाधिक खेती पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) में होती थी. 1947 के बंटवारे की वजह से न स़िर्ङ्ग लाखों लोगों का पलायन हुआ, बल्कि कारख़ानों और खेती का रिश्ता भी इसने ख़राब कर दिया. बंटवारे के बाद कोलकाता की अधिकांश जूट मिलें कच्चा माल के अभाव में धीरे-धीरे बंद हो गईं. इससे न स़िर्ङ्ग किसान, बल्कि मज़दूरों से उनका रोज़गार भी छिन गया. बांग्लादेश में मज़दूरों की स्थिति फ़िलहाल अच्छी नहीं है. शेख हसीना सरकार देश में निजीकरण पर ज़ोर दे रही है. विदेशी कंपनियों के लिए बांग्लादेश का रास्ता खोल दिया गया है. सरकार की इन आर्थिक नीतियों से देश के श्रमिक संगठन बेहद नाराज़ हैं. यहां मज़दूरों को न्यूनतम मज़दूरी देने का सवाल हो या उनकी बाकी बुनियादी जरूरतों को पूरा करने की, इस पर उतना ग़ौर नहीं किया जाता.
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भारत की तरह यहां के श्रमिक संगठन भी श्रम सुधारों को लेकर अपनी आवाज़ उठाते रहते हैं. भूमि सुधार न होना बांग्लादेश की एक दूसरी बड़ी समस्या है. पाकिस्तान की तरह यहां भी भूमि के एक बड़े हिस्से पर राजनेताओं एवं उद्योगपतियों का क़ब्ज़ा है. जिस तरह पाकिस्तान की राजनीति से जुड़े लोगों के पास हज़ारों एकड़ जमीन है, ठीक वही स्थिति बांग्लादेश में भी है. बांग्लादेश भूमिहीन समिति के महासचिव सुबल सरकार देश की भूमिहीन जनता को न्याय दिलाने के लिए कई वर्षों से संघर्ष कर रहे हैं. इस बारे में वह कहते हैं, अगर हमें बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान के सपनों का देश बनाना है, तो सबसे पहले बांग्लादेश में भूमि सुधार क़ानून को लागू करना होगा. यहां चंद मुठ्ठी भर लोगों के पास बड़ी जमीनें हैं, बाकी ज्यादातर लोग उनके अधीन खेती करते हैं.
अभिव्यक्ति की आज़ादी की चर्चा बांग्लादेश में भी होती है. ट्रेड यूनियन से जुड़ी एक महिला इशरत परवीन बताती हैं कि तसलीमा नसरीन को पढ़ना उन्हें का़ङ्गी पसंद है, क्योंकि वह धार्मिक कट्टरता के बारे में खुलकर लिखती हैं. उनकी किताबों को ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए. उन्होंने जो लिखा है, उसमें ग़लत कुछ नहीं है. तसलीमा को बांग्लादेश आने की अनुमति मिलनी चाहिए, क्योंकि यह देश उनका भी है.
ढाका में 1971 के मुक्ति युद्ध की कई निशानियां मौजूद हैं. पाकिस्तानी सेना को आत्मसमर्पण करने पर मजबूर करने वाले जनरल अरोड़ा और पाकिस्तानी सैन्य प्रमुख की दस्तखत करती एक पेंटिंग धानमंडी की दीवारों पर देखी जा सकती है. ढाका में अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस हर साल पूरे जश्न के साथ मनाया जाता है. 21 फरवरी की पूरी रात ढाका वासी सोते नहीं हैं. लाखों की संख्या में लोग फुलों का गुलदस्ता लिए शहीद मीनार पहुंचते हैं. अपनी भाषा और अपने देश के प्रति यह प्रेम देखने लायक होता है. संयुक्त राष्ट्र ने भी साल 2010 में इस कुर्बानी की अहमियत समझते हुए 21 फरवरी के दिन को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा के रूप में घोषित किया. गौरतलब है 1952 में पाकिस्तानी सेना ने उर्दू भाषा का विरोध कर रहे छात्रों की निर्मम हत्या कर दी थी. शहीद होने वालों में सोहिद, ऱङ्गीक, अब्दुल जब्बार समेत कई छात्र थे. मेरा ढाका ऐसे वक्त आना हुआ, जब यहां मातृभाषा दिवस मनाया जा रहा था. रात क़रीब 10 बजे तोपखाना रोड से हम लोग शाहबाग स्थित शहीद मीनार की तरफ पैदल बढ़ रहे थे. सबसे ख़ास बात यह थी कि लाखों लोगों की इस भीड़ में एक गजब का अनुशासन था. सुरक्षा में तैनात पुलिसकर्मियों को भी ज्यादा परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ा. ढाका की सड़कों पर यूं रात भर पैदल चलते रहना काफी रोमांचकारी था. रात पौने दो बजे हम शहीद मीनार पहुंचे. प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, सेनाध्यक्ष और सरकार में शामिल मंत्रियों एवं सांसदों द्वारा शहीदों को श्रद्धांजलि देने के बाद आम लोगों के लिए शहीद मीनार खोल दिया गया.
शहीद मीनार जाने वाले लोग अपने जूते और चप्पल बाहर ही खोलकर रख देते थे. पवित्रता का यह ख्याल अक्सर मंदिरों और मस्जिदों में देखने को मिलता है. शहीद मीनार पहुंचने पर ढाका यूनिवर्सिटी के एक छात्र अश्ङ्गाक को जब यह पता चला कि मैं भारत से हूं, तो उसकी खुशी दोगुनी हो गई. भारत अमार बंधु कहते हुए उसने एक पट्टी मेरे सर में बांध दी, जिसमें बांग्लादेश का राष्ट्रीय ध्वज अंकित था. शहीद मीनार पर पुष्पांजलि अर्पित करने के बाद हमारे साथ मौजूद आठ-दस लोग ढाका प्रेस क्लब के बाहर पहुंचे. वहां हमारी मुलाकात स्थानीय बांग्ला नाट्य कलाकारों से हुई. उनके आग्रह पर हम लोग प्रेस क्लब के बाहर चाय पीने के लिए रुक गए. वहां हमारी मुलाकात कोलकाता से साइकिल चलाकर ढाका पहुंचे प्रशांत मजूमदार से हुई. उन्होंने बताया कि वह मातृभाषा दिवस का जश्न मनाने ढाका आए हैं. वहां बातचीत का दौर लगभग डेढ़ घंटे तक चला. उसी दौरान वहां मौजूद एक व्यक्ति ने कहा, बंटवारे ने एकीकृत बंगाल को हर मामले में नुक़सान पहुंचाया! बंटवारे के बाद पूर्वी बंगाल से कई बड़ी हस्तियां पश्चिम बंगाल में जाकर बस गईं और उसी तरह पश्चिम बंगाल की कई शख्सियतें यहां ढाका में बस गईं. यह दर्द दोनों तरफ के लोगों का है. शायद यही दर्द पंजाब में भी महसूस किया जाता है. लाहौर के लोगों की निगाहें अमृतसर की तरफ लगी रहती हैं और अमृतसर के लोगों की निगाहें लाहौर की तरफ. दरअसल, यह त्रासदी उस अव्यवहारिक बंटवारे का नतीज़ा है, जो हर साल इस दर्द को ताज़ा कर देती है. 22 फरवरी को मैं बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान मेमोरियल म्यूजियम देखने पहुंचा. 1975 में इसी आवास पर शेख मुजीब, उनके बेटे, पत्नी और बहू की निर्मम हत्या जियाउर रहमान ने करवा दी थी. दीवारों पर गोलियों के निशान और खून के सूखे धब्बे आज भी उन दिनों की बर्बरता की याद दिलाती है. देश भर से इस म्यूजियम को देखने हजारों लोग ढाका आते हैं.
इसमें कोई शक नहीं कि बांग्लादेश का जन्म एक लंबे संघर्ष के बाद हुआ. तमाम झंझावतों को झेलते हुए यह देश प्रायः हर क्षेत्र में तरक्की कर रहा है. बांग्लादेश कपड़ों का बड़ा बाजार है. रेडीमेड कपड़ों की हज़ारों फैक्ट्रियां यहां मौजूद हैं, जबकि बांग्लादेश में कपास की खेती का रकबा महज पांच ़ङ्गीसद है. यहां कपास की खेती मुख्यतः गाज़ीपुर, मैमन सिंह, पंचगढ़, नीलफामारी और हिलटैम्स में होती है. उल्लेखनीय है कि बांग्लादेश दक्षिण अफ्रीका से 60 ़ङ्गीसद, भारत से 20 ़ङ्गीसद और पाकिस्तान से 15 ़ङ्गीसद कपास का आयात करता है. इतनी बड़ी मात्रा में कपास आयात करने के बावजूद बांग्लादेश वस्त्रोद्योग में निरंतर प्रगति कर रहा है. व्यापार के लिए यातायात के साधनों का विकास होना का़ङ्गी ज़रूरी है. इस दिशा में बांग्लादेश सरकार का़ङ्गी अच्छा काम कर रही है. प्रधानमंत्री शेख हसीना पिछले साल अरबों रुपये की लागत से पद्मा नदी पर बनने वाले पुल को मंजूरी दे दी. इस पुल के बनने से दक्षिण एशिया ख़ासकर भारत, बांग्लादेश, भूटान, नेपाल और वर्मा से सड़क मार्ग आसान हो जाएगा.