गरज-गरज आज मेघ.. घनन -घनन छायो रे……..
सब विहंग आज दंग देख रंग ये हरा…….
लब पे आये गीत सुहाने.,
माने न जीयरा करूँ लाख बहाने
पिछले दो दिनों से बंदिश बैडिट्स को देखने और उसके संगीत को सुनने की अनोखी अनुभूति से मन सराबोर है।।कई बार किसी ऐसे चीज से साबका पड़ता है जिसकी अनुभूति का मात्र कुछ प्रतिशत ही शब्दों में ब्यान किया जा सकता है। उन्हीं में एक है- बंदिश बैडिट्स अब तक देखी गई सबसे अलहदा सीरीज़ है।प्राइम वीडियों पर प्रसारित इसके दस एपिसोड संगीत प्रेमियों के लिए किसी शानदार ट्रीट की तरह है। जिसे कई-कई बार देखा-सुना जा सकता है। इसमें हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत परम्परा,साधना ,अनुशासन, रियाज और त्याग की अनुठी कहानी का क्या ही सुंदर चित्रण है। पॉप संगीत और शास्त्रीय संगीत का जबर्दस्त फ्युजन भी देखने को मिलता है। परंपरा और आधुनिकता के बीच फंसे नायक का संघर्ष देखना तो रोचक हैं ही । नसीरुद्दीन शाह संगीत सम्राट के अभिनय में प्राण फूंक देते हैं। एक तरफ वह शास्त्रीय संगीत के प्रकांड विद्वान हैं वहीं उनका दूसरा रुप भी है जो ईष्यालु और स्वार्थी है।जो इतना ज्यादा परंपरावादी है कि जोधपुर से बाहर न जाना चाहता है । ना बदलती दुनिया में अपने बच्चों के बदलते सपनों को स्वीकार करता है। इसलिए अपने ही पहली पत्नी से हुए ज्येष्ठ पुत्र को अपना पुत्र नहीं मानता। उसके सपने से उसे चिढ़ है। उसका आत्मविश्वास , उसके सपने, उसका प्यार उसके लिए चुनौती है।इसतरह अपने वर्चस्व को बनाये रखने के लिए उनके कई निर्णय ने अपने ही बच्चों के व्यक्तिव को अंधकार में डाल कर उन्हें कुंठित कर देता है। वहीं जयेष्ठ पुत्र बने अतुल कुलकर्णी दिग्विजय राठौर के रुप में जब भी आते हैं स्क्रीन के साथ दर्शक के दिलो- दिमाग पर छा जाते हैं।उनकी आँखों और व्यकित्व में चुंबकीय आकर्षण हैं।जो सामने आते ही बांध लेता है। नायिका इसमें कोई है तो शिबा चड्ढा। भारतीय पारंपरिक परिवारों में किस तरह स्त्री अपना सब कुछ परिवार के लिए निछावर कर देती है उसका व्यक्तिव नींव के पत्थर में जड़ दिया जाता था और वह उफ्फ किए बिना अपना कर्तव्य निभाती जाती है जिसे शिबा ने बहुत खूबसूरती से निभाया है। ऋत्विक भौमिक और श्रेया चौधरी ने आज के यूथ का प्रतिनिधित्व किया है। भारतीय संगीत और पॉप कल्चर के अंतर को दिखाने और संगीत की महत्ता के चित्रण में दोनों युगल निभाने में सक्षम रहे।राजेश तैलंग, अमित मिस्त्री, कुणाल रॉय कपूर की भूमिकाएं भी कहानी के लिए मायने रखती हैं।कुणाल रॉय कपूर की भाषा कानों को खटकती हैं। मुख्य पात्रों से इतर कुणाल रॉय कपूर की जबान भ्रष्ट लगती हैं। मगर जिस तरह से उन्हें गला काट कॉरपोरेट जगत के मुनाफा कमाऊ संसार का पात्र जीया है शायद उस वातावरण में इसी तरह चिड़े-चिड़े होकर गालियों के साथ ही बात खत्म करते होंगें। बरहाल सभी पात्रों ने बहुत ही अच्छा काम किया है।
पृष्ठभुमि में जोधपुर शहर का सौन्दर्य कैमरे की नजर से भी कमाल का दिखता है।
इसका संगीत यूथ को भारतीय संगीत की तरफ आकर्षित करने में सफल रहेगा।
संगीत शंकर एहसान लॉय की तिकड़ी ने तैयार किया । जिसके जादू से निकलना नामुमकिन है। विरह- हे री सखी, गरज-गरज जुगल-बंदी और लब पर आए गीत सुहाने, इसके सबसे खूबसूरत ट्रैक हैं जिसे सुनते हुए किसी और ही संसार में प्रवेश कर जाते हैं। सारे सीरीज़ में क्लासिकल के रियाज, अनुशासन को देखना -सुनना ही आँखो और कानों को सुकून से भर देता है।
-महिमाश्री
स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता