प्रसिद्ध फिल्मकार सत्यजीत रे ने कहा था – फिल्म छवि है, फिल्म शब्द है, फिल्म गति है, फिल्म नाटक है, फिल्म कहानी है, फिल्म संगीत है, फिल्म में मुश्किल से एक मिनट का टुकड़ा भी इन बातों का एक साथ दिखा सकता है। इसमें समाज की अच्छे बुरे पहलू साथ साथ दिखाई देते हैं।
इस बात से आप भी सहमत होंगे कि हिंदी की कम से कम 200 फिल्में ऐसी हैं जिन्हें बने आधी शताब्दी से भी ज्यादा हो गया है लेकिन आज भी वे भारतीय समाज की स्मृति का अटूट हिस्सा है।
मदर इंडिया, जागते रहो,मुकद्दर का सिकंदर,अभिमान,गाइड,मुग़ल-ए-आज़म, पाकीजा, पेइंग गेस्ट, आनंद,गंगा जमुना, साहब बीबी और गुलाम, कागज़ के फूल, प्यासा, दो आंखे बारह हाथ, आन,संगम, खामोशी, मेरा नाम जोकर जैसी अनेक फिल्में मन पर गहरे असर डाले हुए हैं… लेकिन जब किसी फिल्म पर ठहर कर सोचने की बात आई तो बंदिनी ने तो जैसे मेरे उन सारे एहसासों को जगा दिया जो इस फिल्म को देखते समय मैंने बहुत शिद्दत से महसूस किए हैं।
बचपन में मां को जब भी ‘ अब के बरस भेज भैया को बाबुल सावन लीजो बुलाए रे’ रेडियो पर सुनते और गुनगुनाते हुए देखती थी तो हमेशा मां की आंखों को पनीली ही पाया और गुनगुनाते हुए मां का गला रूंध जाता था। मां अपने पल्लू से आंखों में उतर आए आंसुओं को पौंछती हुई रुंधे गले से इस गीत को सप्रयास पूरा करती थीं। उन्हें ऐसा करते देख हमारा मासूम दिल भी भीग जाता था…. वाकई यह गीत आज भी जब सुनते हैं कोई सा भी महीना हो वह महीना सावन का ही नजर आता है। इस मधुर गीत का फिल्मांकन भी कितनी गहराई लिए हुए है। महिला बंदी गृह में साधारण महिला कैदी इस गीत को गाते हुए कर्म रत है उसकी और अन्य महिला कैदियों की सूनी आंखें बतला रही हूं कि चार दिवारी की घुटन भरी कैद में उनका मन पीहर और बाहरी दुनिया के लिए कितना लालायित है। इस गीत की वेदना न जाने कितनी महिलाओं की जुबान बन गई । लेकिन बंदिनी की बंदगी करते हुए मेरा मन केवल इस गीत पर ही नहीं रुक रहा है। इस फिल्म के सभी गीत अनमोल रत्न हैं।
अगर कोई व्यक्ति फिल्म देखकर अपनी रुचि संवारने की ललक रखता हो और बाजारवाद की मानवता विहीन दुनिया से अलग प्रेम, सेवा, त्याग और निष्ठा की मानवतावादी दुनिया में रहकर मानवता को प्रतिष्ठित करना चाहता हो, तो बंदिनी उसकी निश्चित तौर पर सहायता कर सकती है।
सुप्रसिद्ध निर्देशक बिमल रॉय के निर्देशन में बनी यह फिल्म नारी जीवन की समस्या को उठाती है।
आइए पहले फिल्म का सामान्य परिचय प्राप्त करते हैं
फिल्म बंदिनी
रीलीज डेट 01/01/63
निर्देशक बिमल रॉय
अभिनेता नूतन,अशोक कुमार,धर्मेंद्र
गीतसंगीत शैलेंद्र, एस डी बर्मन,गुलजार
ये फिल्म चारुचंद्र चक्रवर्ती के बंगाली उपन्यास तमसी पर आधारित है।
पटकथा लेखक नबेंदु घोष
संवाद पॉल महेंद्र
गीत
1 मोरा गोरा अंग लई ले (अन्यान्य प्रेम)
2 ओ मांझी, मेरे साजन हैं उस पार (आध्यात्म की ऊंचाई)
3 ओ पंछी प्यारे (मन के कोमल भाव)
4 अब के बरस भेजो ( भारतीय तीज
त्योहारों और रिश्तों के कोमल प्रसंग)
5 ओ जाने वाले हो सके तो (दर्शन)
6 जोगी जब से तू आया मेरे द्वारे (अनुराग)
बंदिनी हमें बताती है कि यदि मनुष्य में जीवन के प्रति सच्ची लगन हो तो मार्ग में आने वाली बाधाओं का साहसपूर्वक सामना करते हुए अपनी मंजिल पर पहुंच सकता है। कल्याणी इस सच की जीती जागती सबूत है।
देशभक्ति, त्याग, संयम, संस्कार से रची कल्याणी जिसे फिल्म में अभिनीत किया है नूतन जी ने। खूबसूरत अदाकारा, सादगी से भरा व्यक्तित्व और मन में असीमित जज्बातों के भूचाल को समेटने की जद्दोजहद को दर्शाता उनका अभिनय, नूतन को एक विशिष्ट अदाकारा की श्रेणी में पहुंचा देता है। कल्याणी का प्यार समर्पित प्यार है। उसका प्रेम देशभक्ति की भावना से जुड़ा पवित्र प्रेम है जिसमें धन दौलत और भोग विलास की प्रधानता नहीं है। नारी देश प्रेम की बलिवेदी पर जीवन के सारे सुखों का बलिदान कर सकती है। यही इसका आशय भी है। बंदिनी वस्तुतः वो कल्याणी है जो दूसरों को मुक्ति का मार्ग दिखाती है। नूतन और अशोक कुमार के अभिनय में सादगी है लेकिन उच्च कोटि की कलात्मकता भी है,उनके अभिनय में कहीं भी एकरूपता नहीं झलकती… पूरी फिल्म में कहीं कोई विलेन नहीं है और यदि कोई है, तो वह है हमारा समाज… जो नारी को सदैव शक की निगाहों से देखता है। यह भी एक अनोखा और नूतन प्रयोग था।
कल्याणी पोस्ट मास्टर की बेटी है। उसका भाई समाज सेवा के लिए समर्पित है और अपनी बहन को मां का प्यार देता है… लेकिन बाढ़ से घिरे लोगों की रक्षा करने के क्रम में वह स्वयं बाढ की तेज धारा में बह जाता है और फिर कभी नहीं लौट पाता। कल्याणी भाई के दुख में टूट जाती है, पर किसी तरह दिल को मजबूत करने कोशिश करते हुए अपने बूढ़े पिता की सेवा करती है।
इसी क्रम में क्रांतिकारी विकास ( अशोक कुमार) अतिथि बनकर उसके घर में शरण पाता है। इस क्रांतिकारी के सतत संपर्क में रहने पर उसकी निस्वार्थ व्यक्तित्व से प्रभावित होने के कारण कल्याणी का उससे प्रेम हो जाता है और पिता की सहमति से दोनों जीवन साथी बन जाते हैं।
कल्याणी से जीवन का संघर्ष शादी के साथ और भी बढ़ जाता है। विकास पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिया जाता है। कल्याणी का उससे संपर्क टूट जाता है। अफवाह यह भी है विकास ने दूसरी शादी कर ली है। एक लंबी अनुपस्थिति और संपर्क अभाव के कारण कल्याणी को भी ऐसा विश्वास हो जाता है। इस विषम परिस्थिति में नारी को प्रेम और सहानुभूति की जरूरत थी लेकिन इस निष्ठुर समाज ने उसे तानों के बाणों से घायल होने की प्रताड़ना दी है।अपनी वजह से पिता की बदनामी को ना सह पाने के कारण अपने जीवन संघर्ष से अकेले जूझने के लिए वह घर छोड़ देती है। इस तरह कल्याणी अदम्य साहस और धैर्य के साथ आगे बढती है। जिसके मार्ग पर कांटे ही कांटे बिछे हैं।कल्याणी अपनी सखी के घर रुक कर वहां से आगे का रास्ता तय करना चाहती है लेकिन सखी की सास इस परित्यकता को नहीं रुकने देती। यहां पर नारी की एक और दुर्बलता हमारे सामने आती है वो ये कि एक नारी भी दूसरी नारी को पनाह नहीं दे रही है। लेकिन कल्याणी की सखी उसकी पीड़ा से सहानुभूति रखती है और एक डॉक्टर के पास उसे काम दिला देती है। कल्याणी वहां कर्तव्य के प्रति अपनी निष्ठा का परिचय देती है। डॉक्टर कल्याणी को एक हिस्टीरिया रोग से ग्रसित महिला की सेवा में लगा देता है। वह औरत कल्याणी के साथ बहुत बुरा व्यवहार करती है। एक दिन कल्याणी उसकी चाय में जहर देकर उसे मार डालती है। यह औरत कोई और नहीं बल्कि विकास की दूसरी पत्नी है। हालांकि इस तथ्य की जानकारी कल्याणी को तब होती है जब विकास स्वयं हॉस्पिटल आता है। विकास की शंका कि उसकी पत्नी की हत्या की गई है, निराधार भी नहीं है। परंतु परिचारिका के रूप में कल्याणी को देखकर वह स्वीकार कर लेता है कि यह आत्महत्या का मामला है। लेकिन कल्याणी यहां खुद अपना जुर्म कबूल कर लेती है, इसलिए उसे आठ साल के सश्रम कारावास की सजा मिलती है। जेल में आठ साल रहकर कल्याणी अपनी सेवा भावना से सबका दिल जीत लेती है।इसी क्रम में जेल का युवा डॉक्टर ( धर्मेंद्र) उसे प्यार करने लग जाता है और उससे शादी का प्रस्ताव भी रखता है। लेकिन कल्याणी इस डर से कि वह कहीं फिर से ना ठुकराई जाए… इस प्रस्ताव को नहीं मानती। जेलर के समझाने पर वह डॉक्टर से शादी के लिए तैयार हो जाती है। जेल से सजा काटकर डॉक्टर के घर जाने के रास्ते में वह अपने पति विकास से मिलती है और दूसरी शादी के पीछे छिपे राज से अवगत होती है। दरअसल विकास ने दूसरी शादी नहीं की थी बल्कि क्रांतिकारियों ने पुलिस का राज जानने के लिए एक पुलिस अफसर की बेटी से उसकी शादी करवा दी थी। देश के हक में उसे अपने प्रेम का बलिदान करना पड़ता है। जब कल्याणी यह बात जान जाती है, तो वह डॉक्टर से ब्याह रचाने की बात भूल कर फिर अपने पति के पीछे चल पड़ती है। कल्याणी का प्यार समर्पित प्यार है उसका प्रेम देशभक्ति की भावना से जुड़ा पवित्र प्रेम है जिसमें धन दौलत और भोग विलास की प्रधानता नहीं है यह फिल्म नारियों के प्रति बनाई गई समाज की पूर्व धारणा को गलत साबित करती है। वे भी देश प्रेम की बलिवेदी पर जीवन के किसी भी सुख का परित्याग कर सकती हैं। यही इस फिल्म का आशय भी है।वो अपने कठोर तप और साधना में पुरुषों से कम नहीं है।
फिल्म बंदिनी के सभी गीत बहुत ही मधुर और साहित्यिक भावों से भरे हैं। एसडी बर्मन की भटियाली खासतौर से मन मोह लेती है। एक एक गीत दर्शन और प्रेम की गहराइयों को समेटे है। एक फिल्म बहुत से मौलिक और उम्दा रचनात्मक, कलात्मक विचारों के एक साथ फिल्मांकन का परिणाम होती है… जो अपने पात्र के चरित्र में डूब कर अभिनेता और अभिनेत्री के सफल अभिनय के द्वारा हम तक हमारे दिल पर गहरा प्रभाव डालता है। यह प्रभाव जितना गहरा होता है वो फिल्म उतनी ही अधिक सफल और सदाबहार,यादगार मानी जाती है। बंदिनी उनमें से एक है।
बंदिनी फिल्म को मैं दस बार देख चुकी हूं और इससे कहीं ज्यादा बार और देखने की इच्छा रखती हूं। हर बार इसके नायाब निर्देशन और नूतन के अभिनय पर वारी वारी जाती हूं।
अपने दिल की बात कहूं तो अपनी व्यस्तता के चलते मैं कश्मीर फाइल्स, गंगूबाई काठियावाड़ी फिल्म को थियेटर में जाकर देखने की इच्छा रखते हुए अभी तक नहीं देख पाई हूं। बिटिया कहती है, “मां, आप थिएटर जाने कब जा पाओगी।तब तक कहीं ये फिल्में थियेटर से न उतर जाएं( फिल्म के लिए अभी भी यही कहा जाता है) ये फिल्में आपको कंप्यूटर में डाउनलोड कर दूं क्या?”
मैं कहती हूं, “अरे अभी तो मुझे घर में भी इन फिल्मों को देखने की फुर्सत नहीं मिल रही है फिर कभी”… लेकिन मैं अपने मन की कमजोरी को जानती हूं कि जब कभी, कुछ सीमित समय के लिए ही सही, कुछ अच्छा देखने की तलाश में रिमोट के सर्च बटन से चैनल्स पर विचरण कर रही होउंगी… उस वक्त अगर फिल्म चैनल पर बंदिनी मुझे मिल जाएगी तो अपने राम सब कुछ भूल कर वहीं रम जाएंगे और उन पलों में मेरी सारी व्यस्तताएं जाने कहां चली जाएंगी। ये बंदिनी का जादू है मितवा….
मैं जानती हूं कि इतनी महान फिल्म के लिए मेरे ये विचार बहुत सीमित और सामान्य हैं…लेकिन सा की बा के फिल्म मर्मज्ञ आज बंदिनी के अनसुलझे बंध खोलकर फिल्म के कुछ और महत्वपूर्ण भाव पक्ष पर प्रकाश डालेंगे।
सुनीता पाठक
सा की बा