कवि-मित्र निलय उपाध्याय, बीएचयू हिंदी विभाग के प्रो. सदानंद साही और लेखक रामाज्ञा राय के साथ बलिया तक की यात्रा हुई. यह जानने और समझने की कोशिश की गई कि गंगा के किनारे बसे लोगों को बाढ़ ने इस बार क्या संदेश दिया? ये सवाल इसलिए मौजूं हैं कि पिछले चार-पांच दशक में कम से कम बलिया में दर्जनों गांव बाढ़ की कटान से देश के नक्शे से गायब हो गए. इन गावों के ज्यादातर सम्पन्न और सवर्ण लोगों की बस्तियां तो आबाद हो गईं. दलित और पिछड़ी जातियों का जिनके पास अपनी कोई जमीन नहीं है और वो आज सड़क के किनारे जीवन-यापन करने के लिए मजबूर हैं. सरकार के लिए ये महज आकड़े हैं. बाढ़ हर साल उजाड़ती है, लेकिन नई बस्ती बसाने का इंतजाम नहीं होता. सरकारी राहत शिविर भी चलते हैं. स्वयं सेवी संस्थाएं भी दयाभाव से राहत सामग्री लेकर पहुंचती हैं. सड़क किनारे रंग-बिरंगे तिरपाल की नई बस्तियां आबाद नजर आती हैं. बाढ़ उतरने के साथ ही आम आदमी से जुड़े जरूरी सवाल लूट की एक नई कहानी पैदा कर गंगा की कोख में समा जाते हैं.
गौरतलब है कि दूबे छपरा, उदई छपरा और गोपालपुर जैसे कुछ गांव अब गंगा के कटान से विलीन होने के कगार पर हैं. इन गांवों के सुरक्षा का इंतजाम किसी सरकारी मदद से नहीं हुआ. वर्षों पहले गीता प्रेस जैसी संस्था स्थानीय लोगों के आग्रह और मदद से उन गांवों के चारों तरफ एक बांध बनवाया जो बाढ़ के समय सुरक्षा कवच का काम करता रहा. इस बांध से हर साल गंगा की लहरें अपनी ताकत की जोर आजमाइश कर टकरातीं और लौटती रहीं. समय बीतने के साथ बांध बूढ़ा हो गया. बाढ़ के पहले मरम्मत का इंतजाम होना चाहिए था जो पहले नहीं हुआ. स्थानीय लोग बांध से मिट्टी खोदकर अपने घर ठीक करते रहे. स्थानीय निगरानी और सामाजिक जिम्मेदारी का अहसास अब लोगों में उतना नहीं है. इसलिए इस बार की बाढ़ ने बांध के अस्थिपंजर को तोड़ते हुए दर्जनों गांवों को अपनी जद लेने में कामयाब हुई. इन गांवों में प्रसिद्ध साहित्कार हजारी प्रसाद द्विवेदी का गांव ओझवलिया स्थानीय सांसद भरत सिंह का सांसद आदर्श गांव भी है. गाजीपुर-हाजीपुर राष्ट्रीय राजमार्ग के बाएं तरफ स्थित इस गांव की दुर्दशा का आकलन इस तथ्य से ही हो जाता है कि आदर्श गांव का शिलापट्ट सड़क पर चित्त पड़ा है. अब कहा यह जा रहा है कि गंगा बाढ़ नियंत्रण आयोग के पास लम्बे समय से 13 करोड़ रुपये का फंड अरसे से पड़ा है. जब गंगा की मार पड़ी तो इस फंड की सूध आई. स्थानीय विधायक और प्रदेश मंत्री नारद राय कहते हैं कि ‘‘12 करोड़ से अधिक परियोजना के लिए बाढ़ नियंत्रण आयोग पटना से अनुमति लेनी होती है’’ बाढ़ विभाग के अधिकारी कुमार गौरव बताते हैं कि ‘‘यह बांध करीब तीस साल पुराना है जो काम हुए भी हैं वह टुकड़ों में. प्रस्ताव पटना गया है और अनुमति मिलते ही काम शुरू हो जाएगा’’ कहा जाता है कि जो पीढ़ी इसिहास से सबक नहीं लेती इतिहास उसे सजा देता है. बलिया में आई बाढ़ से नहीं लगता, किसी ने कोई सबक सीखा है. बाढ़ से पैदा हुई चुनौती का इंतजाम तो नाकाफी है ही. बाढ़ के खतरे से बड़ी आबादी को कैसे बचाया जाए इतनी भी समझ हमारी सरकारों में नहीं है. वरना क्या वजह है कि राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे रुद्रपुर से दूबे छपरा तक यू-सेप में बने बालू के टीले को नहीं हटाया जा रहा है? इस काम को करने में करीब पचास से सौ करोड़ रुपये खर्च होंगे. बालू का टीला हट जाने से नदी का प्रवाह सीधा हो जाएगा. राष्ट्रीय राजमार्ग से नदी की धारा सीधे नहीं टकराएगी. गंगा का प्रवाह दक्षिण और पूर्व की तरफ होने से जलपोत परिवहन भी सुगम हो सकता है. यह काम बाढ़ का पानी उतरने के साथ ही शुरू हो सकता है, लेकिन असल बात यह है कि सन् 1971, 78 और 2003 में आई बाढ़ से अब तक किसी ने कोई सबक नहीं ली.
अब चिंता है कि एक बांध बन जाए, तो ओझवलिया के साथ-साथ भड़सर, भीमपट्टी, धरनीपुर, सुजनीपुर, विशुनपुरा, हरिहरपुर-जवही और नंदपुर आदि गांवों को बाढ़ से छुटकारा मिल जाए. बाढ़ के साथ हर वर्ष बड़ी-बड़ी योजनाएं भी लागू की जाती हैं और स्थानीय लोगों को आश रहती है कि इस बार उनको कोई सुरक्षित ठिकाना मिल जाएगा. लेकिन अफसोस की बात यह है कि करीब पचास वर्षों में कोई मुक्कमिल इंतजाम नहीं हो पाया. बाढ़ पीड़ितों और बाढ़ को रोकने के लिए हर साल करोड़ों रुपये जारी होते हैं, लेकिन सवाल यह है कि पैसे कहा जाते हैं? पेशे से वकील और स्थानीय बुद्धिजीवी अजय उपाध्याय बताते हैं कि जितना खर्च पिछले तीस-चालीस साल में राष्ट्रीय राजमार्ग को बचाने के लिए खर्च हुआ है. उतने खर्च में तो चीन की दीवार खड़ी हो जाती. जाहिर है कि बाढ़ आपदा प्रबंधन में खर्च पैसे का लेखा-जोखा बाढ़ उतरने के बाद कहां गायब हो जाता है? यह अपने आप में जांच और गहन शोध का विषय है.
ऐसे तमाम लोग जो राष्ट्रीय राजमार्ग के किनारे अपना बसेरा बनाकर रह रहे हैं. उन्हें इस बात की चिंता सता रही है कि गंगा में आई बाढ़ से जब उनका आशियाना उजड़ जाता है, तो वह कहीं न कहीं अपनी बस्तियां आबाद कर लेते हैं. लेकिन अब उनको यह डर सता रहा है कि गाजीपुर-हाजीपुर मार्ग फोरलेन हो जाएगा, तो वे लोग क्या करेंगे और कहां रहेंगे? बाढ़ पीड़ित स्थानीय युवक कूलभूषण गुस्से में नजर आते हैं और उनका गुस्सा जायज भी है. उनका कहना है कि ‘‘बाढ़ के समय सरकारी अमले की ज्यादा चिंता राष्ट्रीय राजमार्ग को बचाने की होती है. लोगों को बचाने की नहीं’’ गौरतलब है कि सड़क एवं परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने हाल ही में बलिया जाकर एलान किया कि गाजीपुर से हाजीपुर तक फोरलेने सड़क बनाने का डीपीआर तैयार हो गया है. औपचारिकता पूरी कर निर्माण की प्रक्रिया शुरू कर दी जाएगी. लेेकिन सवाल है कि क्या मंत्री जी की नजर-ए-इनायत उन बस्तियों को किसी भी तरह आबाद करने की होगी जो फोरलेन सड़क बन जाने तक उजड़ जाएंगी?
गंगा की समस्या को हमने समझा ही नहीं…
निलय उपाध्याय बताते हैं कि गंगा में मूलत: चार तरह की समस्याएं हैं-पहला बंधन, दूसरा विभाजन, तीसरा प्रदूषण और चौथा गाद. ये समस्याएं मानव निर्मित हैं. जाहिर है कि इसका समाधान हमे भी करना है. अकेले सरकार के बूते यह संभव नहीं है. प्रदूषण सिर्फ गंगा में ही नहीं, उन तमाम नदियों में है जो गंगा की सहायक नदियां हैं और गंगा में आकर मिलती हैं. इसके लिए मूलत: नदी में जल की कमी ही जिम्मेदार है. बाढ़-बरसात को छोड़कर बाकी समय गंगा में कम से कम उत्तर प्रदेश के कई शहरों में गंगा में घुटने तक पानी भी नजर नहीं आता. उद्योगों से निकलने वाले कचरे नदी में बेरोक-टोक बहाए जा रहे हैं. कानपुर और बनारस इसकी बेहतर मिशाल हैं. कानपुर का चमड़ा उद्योग तो इसके लिए बदनाम हो चुका है. अकले बनारस में अस्सीघाट से आदि केशव घाट के बीच 84 नाले अनवरत गंगा में प्रवाहित हो रहे हैं. गंगा तट के किनारे रहने वाले लोग कहते हैं कि रात के अंधेरे में जल-मल गंगा में बहाया जाता है. अधिकतर ट्रीटमेंट प्लांट बंद पड़े हैं और जो चालू हैं वो इसलिए नहीं चलाए जाते, ताकि डीजल की चोरी हो सके. निलय उपाध्याय बताते हैं अहमदाबाद मेंे जल निकासी की बेहतर व्यवस्था है. शोधित जल से दूसरे कई काम होते हैं और बचे अपशिष्ट से उर्बरक बनाया जाता है. निलय उपाध्याय का कहना है कि यह काम अगर अहमदाबाद में हो सकता है, तो देश के दूसरे शहरों में क्यों नहीं? गंगा सेवा समिति के अध्यक्ष कन्हैया त्रिपाठी बताते हैं, ‘‘गंगा की धारा को अविरल कर दिया जाए तो गंगा
कूंड़े-कचरे को अपने साथ बहा ले जाएगी. गंगा की अविरलता के बिना निर्मल धारा संभव ही नहीं है. गंगा सेवा समिति की मांग है कि गंगा में बालू खनन पर लगी पाबंदी हटाई जाए, ताकि नदी का पाट दुरुस्त हो और घाट पर पानी का दबाव कम हो.’’ बनारस में गंगा किनारे घाट पर पानी के बढ़ते दबाव के प्रति आगाह करते हुए नदी वैज्ञानिक प्रो. यूके चौधरी कहते हैं कि ‘‘बनारस में गंगा किनारे के घाट अंदर से खोखले हो चुके हैं. भूंकप का हल्का झटका भी इन्हें जमीनदोंज करने के लिए काफी होगा.’’ गंगा में गाद और भराव की समस्या को समझने के लिए गंगा के पथ और प्रवाह को समझना जरूरी है. एक अध्यन के मुताबिक हरिद्वार से वाराणसी तक गंगा प्रति कोस 12 इंच ढलान के साथ बहती है. वाराणसी से भागलपुर तक दस इंच, आठ इंच और छह इंच तक घटती चली जाती है. झारखंड में साहबगंज और राजमहल के बीच गंगा का प्रवाह प्रति कोस आठ इंच है. मतलब ढलान कम होगी तो गाद और भराव अधिक होगा. बाढ़ और बरसात में नदी के साथ आई मिट्टी से नदी के गर्भ में यह गाद और भराव हर साल बढ़ रहा है. इसे निकालने और साफ करने का काम आज तक शुरू नहीं हुआ. बिहार में गंगा कुछ भरी हुई और साफ दिखती है तो उसकी वजह है हिमालय से निकली वो नदियां जो उसमें मिलती हैं. गंगा पर अत्याचार और अतिक्रमण यहां भी कम नहीं है. जल निकासी की समस्या यहां भी नाकाफी है जैसे कि पूरे देश में है. पर हालात इतने भयावह नहीं हैं कि शहर के नाले को नदी में गिरने से रोक दिया जाए तो नदी ही सूख जाए. क्या उत्तर प्रदेश के लोग ऐसा दावा कर सकते हैं कि गर्मी के दिनों में अगर शहर के नाले को रोक दिया जाए तो मिर्जापुर, इलाहाबाद और कानपुर के आस-पास नदी का प्रवाह कहीं नजर आएगा? फिर भी गंगा पर बांध और बिजली घर बनाए जाने के समर्थक हर उस शख्स को विकास विरोधी ठहराने में एक मिनट की देरी नहीं करेंगे जो ऐसे अटपटे सवाल उठाने की जुर्रत करें. लेकिन सवाल हमारी मूलगामी सभ्यता और संस्कृति से जुड़ा है. गंगा के जल को बाजार में बेचने के लिए डाकघरों के हवाले कर कोई चुप कैसे रह सकता है. बनारस के लोग सवाल कर रहे हैं कि गंगा नदी हो गई तो क्या उसको मां कहना बंद कर दें. उनके किनारे से हट जाएं, बसना छोड़ दें. गंगा के नाम पर होने वाले तीर्थ व्रत त्योहार सब छोड़ दें. जाहिर है कि गंगा की मौजूदा मुसीबत तो हमारी वजह से है. इसका निदान तो ढूढ़ना ही पड़ेगा.