किरण बेदी और अरविंद केजरीवाल कभी बहुत गहरे दोस्त थे, लेकिन उस गहरी दोस्ती में भी एक प्रतिद्वंद्विता छिपी हुई थी. जब अन्ना हजारे का आंदोलन चल रहा था, तब हमें संगठक और आंदोलन के चेहरे के रूप में अरविंद केजरीवाल दिखाई दे रहे थे. वहीं दूसरी तरफ़ किरण बेदी मंच पर झंडा फहरा कर, इस कोने से उस कोने तक जाकर अपने नाम, अपने चेहरे और अपने अतीत के बल पर स्वयं को आंदोलन के सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति के रूप में स्थापित कर रही थीं. अन्ना हजारे ने मंच पर बातचीत करने के लिए ज़्यादातर अरविंद केजरीवाल को बुलाया, लेकिन किरण बेदी भी शाना-ब-शाना उनके दाएं-बाएं बनी रहीं.
यह बात मैं स़िर्फ इसलिए बता रहा हूं, ताकि लोगों को पता चले कि महत्वपूर्ण बनने की प्रतिद्वंद्विता बहुत पुरानी है. इसीलिए जब अरविंद केजरीवाल ने अन्ना हजारे की असहमति से या कहें कि सहमति से (क्योंकि केजरीवाल आप को अन्ना की सहमति से बनाई हुई पार्टी कहते हैं) राजनीतिक पार्टी बनाई, तो उसमें किरण बेदी नहीं गईं, क्योंकि किरण बेदी को मालूम था कि अरविंद केजरीवाल की पार्टी में उन्हें हमेशा नंबर दो या नंबर तीन की स्थिति में रहना पड़ेगा. इसलिए पहले तो उन्होंने अन्ना हजारे का साथ देकर अरविंद केजरीवाल का जबरदस्त विरोध किया और उसके बाद अरविंद केजरीवाल के हर क़दम का विरोध करती रहीं. किरण बेदी अन्ना हजारे के पास जब तक जाती थीं, वह अरविंद केजरीवाल के विरुद्ध ही बात करती थीं.
दूसरी तरफ़ अरविंद केजरीवाल ने कभी भी किरण बेदी को विरोध करने लायक व्यक्तित्व नहीं माना. वह उन्हें अनदेखा करते रहे और यह स्वाभाविक था, क्योंकि अरविंद केजरीवाल एक पार्टी बनाकर दिल्ली के मुख्यमंत्री पद को अपना लक्ष्य बना चुके थे. जब दिल्ली विधानसभा के पिछले चुनाव आए, तब उन्हें लग रहा था कि शायद किरण बेदी को भारतीय जनता पार्टी उनके ख़िलाफ़ अपना चेहरा बनाए. इसके लिए लालकृष्ण आडवाणी की तरफ़ भी लोग देख रहे थे, क्योंकि लालकृष्ण आडवाणी किरण बेदी को बहुत चाहते हैं. फिर भी भारतीय जनता पार्टी खामोश रही, क्योंकि केंद्र में यद्यपि अप्रत्यक्ष रूप से निर्णय नरेंद्र मोदी के हाथ में आ गया था, लेकिन पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह थे और राजनाथ सिंह भारतीय जनता पार्टी को अपरंपरागत तरीकों से सत्ता में लाने के पक्षधर नहीं थे. इसीलिए तमाम अफ़वाहों के बावजूद किरण बेदी भारतीय जनता पार्टी में मुख्यमंत्री पद की दावेदार नहीं बन पाईं. पर इस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के लिए दिल्ली में एक परेशानी खड़ी हो गई थी. कुछ इंटेलिजेंस रिपोर्ट और कुछ अरविंद केजरीवाल का कैंपेन करने का तरीका भारतीय जनता पार्टी को डरा गया और तब नरेंद्र मोदी ने यह ़फैसला किया कि उन्होंने जिस तरह महाराष्ट्र में पार्टी को सत्ता दिलाई, जिस तरह झारखंड में दिलाई, जिस तरह हरियाणा में दिलाई, उसी तरह अगर वह दिल्ली में सत्ता भाजपा को दिलाना चाहते हैं यानी अपने जीते हुए राज्यों में दिल्ली को शामिल करना चाहते हैं, तो उन्हें स्थानीय भारतीय जनता पार्टी के नेताओं के अलावा बाहर से किसी को लाना पड़ेगा और इसके लिए किरण बेदी से योग्य कोई दूसरा उम्मीदवार नहीं था. किरण बेदी भाजपा का चेहरा बन गईं. किरण बेदी के भाजपा का चेहरा बनते ही जहां एक तरफ़ भाजपा में अंतर्विरोध पैदा होने शुरू हुए, वहीं आम आदमी पार्टी में भी ऐसे व्यक्तित्व खड़े होने लगे, जिन्हें अरविंद केजरीवाल से अपना हिसाब बराबर करना था.
किरण बेदी के स्वभाव और अरविंद केजरीवाल के स्वभाव में काफी समानताएं हैं. किरण बेदी कहती भले हों कि उन्होंने चालीस साल जनता के बीच काम किया, लेकिन हक़ीक़त यह है कि उन्होंने चालीस साल जनता के बीच नहीं, बल्कि जनता से अप्रत्यक्ष संबंध रखने वाले पुलिस विभाग में काम किया है. हिंदुस्तान में पुलिस से जनता डरती है और किरण बेदी भी उसी पुलिस विभाग का एक अंग रही हैं. और, उन्हें कभी भी पुलिस के ऐसे चेहरे के रूप में नहीं जाना गया, जिसे जनता पसंद करती है. किरण बेदी क़ानून का कड़ाई से पालन कराती हैं, नियम की व्याख्या अपने ढंग से करती हैं और उसमें वह उतनी दूर चली जाती हैं, जिसमें तीस हजारी कोर्ट में वकीलों की बेरहमी से पिटाई हो जाती है. सीढ़ियों पर पड़े खून के धब्बे उन्हीं की निगरानी में धोए जाते हैं. दिल्ली के 75 हज़ार वकीलों का बड़ा वर्ग किरण बेदी के ख़िलाफ़ खड़ा है. लेकिन, किरण बेदी का मानना है कि जब तक नियमों का सख्ती से पालन नहीं होगा, तब तक देश में अनुशासन नहीं आएगा. इसकी झलक उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के पहले कार्यकर्ता सम्मेलन में दिखा दी. उन्होंने लोगों से कहा, आप चुप रहिए, अगर आपको सुनना नहीं, तो आप बाहर चले जाएं. अन्ना आंदोलन में भी किरण बेदी कार्यकर्ताओं को सीधे बैठकर सुनना, इधर-उधर न देखना जैसी साधारण सीखें देती रहती थीं, लेकिन कभी भी वह अन्ना आंदोलन में सैद्धांतिक चेहरा बनकर नहीं उभरीं. आज भी किरण बेदी भारतीय जनता पार्टी में जाने के बाद किसी मुद्दे को जानती हैं, इसकी झलक उन्होंने लोगों को नहीं दिखाई.
अरविंद केजरीवाल ने शुरुआत सामूहिक नेतृत्व से की, लेकिन धीरे-धीरे वह एकांगी नेतृत्व की तरफ़ बढ़ने लगे. उनके सारे साथियों को लगने लगा कि अरविंद केजरीवाल उन लोगों से सलाह-मशविरा नहीं करते हैं, जिन्होंने उनके साथ आंदोलन किया या जिन्होंने पार्टी बनाई. और, यह गुस्सा उनके कार्यकर्ताओं में इतना ज़्यादा भर गया कि बहुत सारे लोग इस बार चुनाव में दिल्ली में अरविंद का समर्थन करने नहीं आए. पराकाष्ठा तो तब हुई, जब पार्टी के संस्थापक सदस्य एवं प्रसिद्ध वकील शांति भूषण अरविंद केजरीवाल का विरोध करने में सीमाएं लांघ गए. मैं इसे बिलो-द-बेल्ट हिट कह रहा हूं, क्योंकि शांति भूषण अपनी अनदेखी से इतने नाराज़ थे कि उन्होंने किरण बेदी को अरविंद केजरीवाल से बेहतर बता दिया. उन्होंने अरविंद केजरीवाल के व्यक्तित्व के उन सारे हिस्सों को जनविरोधी बताया, जिन्हें लेकर अरविंद दिल्ली में मशहूर हैं. शांति भूषण यहीं तक नहीं रुके. उन्होंने अरविंद केजरीवाल को त्यागपत्र देने और हटाने की सलाह तक पार्टी के लोगों को दे डाली. शांति भूषण प्रसिद्ध वकील हैं और सारी ज़िंदगी उन्होंने सही वक्त का इंतज़ार कर तर्कों को रखा है. इस बार भी उन्होंने अरविंद केजरीवाल की उच्च-मध्यम वर्ग की कॉन्स्टीटूएंसी को तबाह करने की कोशिश की. मेरा यह मानना है कि जब चुनाव चल रहा हो और आमने-सामने बातें हो रही हों, तो न किरण बेदी का विरोध भारतीय जनता पार्टी में होना चाहिए और न अरविंद केजरीवाल का विरोध आम आदमी पार्टी में होना चाहिए. विरोध अगर होना है, तो इस आधार पर होना चाहिए कि दोनों दिल्ली को बेहतर बनाने की कोई योजना बना पा रहे हैं या नहीं. अगर नहीं बना पा रहे हैं, तो उस नेतृत्व का विरोध उसके कार्यकर्ताओं को अवश्य करना चाहिए. सबसे बड़ा अफ़सोस तो इस बात है कि दिल्ली के इस चुनाव में न किरण बेदी के पास दिल्ली को बेहतर बनाने का कोई खाका है और न अरविंद केजरीवाल के पास.
दिल्ली की समस्याएं वहीं हैं, जो देश की हैं, लेकिन दिल्ली कुछ मायनों में अलग है. दिल्ली में बिजली, पानी, अस्पताल और शिक्षा जैसे मुद्दे तो हैं ही, लेकिन दिल्ली में एक नया मुद्दा है, देश भर के लोगों का रोजी-रोटी के लिए दिल्ली में दस्तक देना, यहां बस जाना और अपनी जीविका के लिए रास्ते तलाशना. लोगों के आने से दिल्ली के ऊपर बोझ बढ़ता है और ज़रूरत इस बात की है कि दिल्ली में ऐसी सरकार आए, जो यह योजना बनाए कि लोग आ रहे हैं, तो आते रहें, लेकिन वे बसें इस तरह, जिससे दिल्ली में कुछ ही जगहों पर नागरिक सुविधाओं का बोझ न बढ़े. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की परिकल्पना इसीलिए की गई थी कि दिल्ली में केंद्रित होते सरकारी दफ्तर, व्यापारिक केंद्र और औद्योगिक घराने, इन सबको योजनापूर्वक राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में फैलाया जाए, ताकि दिल्ली की व्यवस्था सुचारू रूप से चल सके. इन सवालों के ऊपर दोनों भावी व्यक्तित्वों या भावी मुख्यमंत्रियों का कोई ध्यान नहीं है. इस चुनाव में एक दूसरे के ऊपर हमले हो रहे हैं और वे हमले व्यक्तिगत ज़्यादा हो रहे हैं.
शायद राजनीति उस जगह पहुंच गई है, चाहे देश की हो या दिल्ली की, जहां केवल एक ही सिद्धांत है, जिसके ऊपर आज नेता भरोसा कर रहे हैं और वह है सत्ता. किसी भी तरह सत्ता मिल जाए और उसके बाद अपना वक्त काटें. दिल्ली इस खेल का एक मज़ेदार उदाहरण बनने जा रही है. दिल्ली के ग़रीबों में अरविंद केजरीवाल की साख बनी हुई है. वहीं दिल्ली के मध्यम वर्ग, उच्च-मध्यम वर्ग में भारतीय जनता पार्टी नरेंद्र मोदी के चेहरे के साथ दिल्ली जीतने की आकांक्षा से उतरी हुई है. दोनों में से कोई भी जीते. अगर अरविंद केजरीवाल जीतते हैं, तो नरेंद्र मोदी के लिए, बावजूद इसके कि उन्होंने किरण बेदी को एक ढाल की तरह इस्तेमाल किया है, सब मानेंगे कि मोदी का विजय रथ रुक गया. लेकिन, अगर किरण बेदी जीत जाती हैं, तो जीत का सारा श्रेय नरेंद्र मोदी के पास जाएगा. दोनों महत्वाकांक्षी व्यक्तित्व इस चुनाव में एक दूसरे से टकराने से बच रहे हैं, पर जीत की स्थिति में किरण बेदी का स्वभाव, उनके काम करने का तरीका भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं और दिल्ली के नेताओं के लिए परेशानी का कारण बन सकता है, क्योंकि वे किरण बेदी के काम करने के तरीके से न परिचित हैं और न सहमत. दूसरी तरफ़ हार की स्थिति में अरविंद केजरीवाल की पार्टी टूट भी सकती है और अव्यवहारिक भी हो सकती है. अरविंद केजरीवाल परंपरागत विरोधी दलों को भी उतना कोस रहे हैं, जितना वह सत्ता पक्ष को कोस रहे हैं. इसलिए उनका साथ दिल्ली के विरोधी पक्ष, जो देश में कहीं न कहीं लोगों के बीच में केंद्र बने हुए हैं, वे उनका समर्थन चाहते हुए भी नहीं कर पा रहे हैं. लेकिन, एक अच्छी चीज यह है कि वे लोग दिल्ली में उनका विरोध नहीं कर रहे हैं.
इसलिए दिल्ली की लड़ाई देश की राजनीति में किरण बेदी के जीतने और अरविंद केजरीवाल के हारने की स्थिति में पूर्ण विराम नहीं लगाएगी, बल्कि उसके आगे होने वाली घटनाओं का आधार बनेगी. पर इन सबमें दिल्ली की जनता का क्या होगा, पता नहीं. क्योंकि, दिल्ली स़िर्फ कनॉट प्लेस या सड़कों के किनारे बने हुए शीला दीक्षित के दिए हुए नाम आरडब्ल्यूए के लोगों की नहीं है.
वह बड़ी-बड़ी इमारतों के पीछे रहने वाले लोगों के सैलाब की भी दिल्ली है. उनकी ज़िंदगी में कब सवेरा आएगा, इसे देखने के लिए अभी आंखों को और खुला रखना पड़ेगा.
बहस से असल मुद्दा गायब है
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