समीक्षक : अनिता मंडा
वैसे तो हर चेतनामयी प्राणी को अपने वक़्त से शिकायत रहती है पर इसे दर्ज करवा पाने का माद्दा हर किसी में नहीं होता। क़लमनवीसों को नेमत या कहें कि श्राप है कि अपने वक़्त को लफ़्ज़ों का लिबास दे सकें। ऐसी ही एक कोशिश भवेश दिलशाद जी की है कि बदरंग वक़्त में इन्होंने रंगों की महफ़िल सजाने की जुरअत की है। पुस्तकनामा प्रकाशन से एक साथ तीन ग़ज़ल-संग्रहों की सीरीज़ वर्ष 2023 में प्रकाशित हुई है, ग़ज़ल रंग-एक : ‘सियाह’; दो: ‘नील’, तीन: ‘सुर्ख़’।
दुनिया में बहुत सारे फ़न हैं और बहुत सारे फ़नकार। जो फ़न अमूमन हर किसी को लुभाता है, अपना क़ायल बना लेता है वह है शाइरी। इंसान बहुत सारे मिले-जुले अहसासों से भरा होता है और उन अहसासात को प्रकट करने के लिए वह कलाओं का आश्रय लेता है। अपने अहसासात को लफ़्जों का पैरहन देने का काम करता है शाइर। सबका पैरहन एक सरीख़ा नहीं होता इसलिए ग़ालिब साहब कह गए कि उनका अंदाज़-ए-बयां और है।
भवेश की शायरी पर मैं कुछ कहूँ इससे पहले उन्हीं का वक्तव्य अपनी शायरी के लिए जान लेते हैं “जो कुछ पाया, नहीं पाया, झेला, महसूसा, कुरेदा, खरोंचा, ज़ब्त किया…वो सब गवाहियां आगे के पन्नों में दर्ज हैं। हाँ, आगाह ज़रूर कर दूँ कि आप शाइरी के बाग़ीचे में नहीं हैं। यहाँ बहुत कुछ ऐसा है जो डरा सकता है। नोक-पलक संवरी हुई न मिले या कहीं ख़म किये अबरू न मिलें तो हैरानी न हो इसलिए इत्तला है कि आप शाइरी के जंगल में हैं। बाग़ीचे में जंगल नहीं, पर जंगल में कई बाग़ीचे मुमकिन हैं।”
तो यहाँ से हमें एक झलक मिलती है कि किस तरह की शाइरी इनके यहाँ मिलेगी। जिन तल्ख़ियों से शाइरी पैदा होती है उन्हें शायर ने शुक्राना कहा है। और समाज को भी शुक्रिया कहा है, ज़ाहिर है समाज जिस हाल में है शाइर को उस हालात ने झकझोरा है। ख़ून खौलने का ही नतीजा है कि ज़ुबान पर रहने वाले बहुत सारे अशआर नमूदार हुए हैं। राहत इन्दौरी साहब ने कहा भी है – “हमसे पूछो कि ग़ज़ल मांगती है कितना लहू, सब समझते हैं ये धंधा बड़े आराम का है”. हर शायर को इस कै़फ़ियत से गुज़रना ही पड़ता है।
भवेश की ग़ज़लों में वैचारिक घनत्व सघन है। यहाँ भर्ती के शेर नहीं मिलेंगे बल्कि कहन की फ़िक्र हर शेर पर तारी है। मुसलसल ख़ुद को माँजते हुए यह मुहावरा इन्होंने हासिल किया है। सामाजिक चुप्पियों को अपने क़लम से आवाज़ देने का जोखम उठाया है।
भारत की ज़मीन पर शाइरी किस तरह फली फूली आगे बढ़ी इससे मेरे ख़्याल से सब वाकिफ़ ही हैं। अमीर ख़ुसरो से आती हुई इस परंपरा को कहीं-कहीं कबीर ने भी छुआ है। मीर, ग़ालिब जैसे चाँद सितारों से रोशन यह विधा फ़ैज, फ़िराक तक आते-आते अपने में सामाजिक सरोकारों को भी आत्मसात करने लगी। दुष्यंत ने इसे बीसवीं सदी में जन-मन की बातों से नवाज़ा तो अदम ने इसे सरकारों से विद्रोह के लफ़्ज़ दिए। दुष्यंत और अदम के डीएनए को अपनी अदा में शरीक करते हुए भवेश भी सामाजिक, राजनीतिक विद्रूपताओं का चित्रांकन करते हैं। केपी अनमोल साहब कहते हैं “इनकी ग़ज़लों में सरोकारों की मौजूदगी मज़बूती के साथ है, जो इन्हें समकाल से जोड़ती है।”
“नील” की भूमिका में ब्रज श्रीवास्तव जी ने लिखा है, “सबसे ज़्यादा उम्मीद जगाती है उनकी प्रगतिशील विचारधारा। केवल यही विचार ज़माना बदल सकेगा। दुनिया को एक दिन इस आइडियोलॉजी तक जाना ही पड़ेगा।” साहित्यकार होने की पहली शर्त है संवेदनशील होना। जो चीज़ आंखों से नहीं दिखती शाइर उसे मन की आंखों से देखकर दर्ज कर लेता है।
ग़ज़ाला तब्बसुम साहिबा लिखती हैं “शायर अगर पत्रकार भी हो तो समाज के प्रति उसकी ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है। उसकी शायरी में विद्रोह के स्वर भी शामिल हो जाते हैं। शायरी में भूख, अन्याय, झूठ, ग़रीबी, फ़रेब, सियासत जैसे मुद्दे शामिल हो जाते हैं। मेरी नज़र में भवेश दिलशाद एक ऐसा ही नाम है, जिसने पूरी ज़िम्मेदारी से अपने शाइर और पत्रकार होने का हक़ अदा किया है।” आवाज़ों का ‘अपाहिज’ हो जाना इस दौर की बदनसीबी है-
सुनने वाले गूंगे हैं और कहने वाले बहरे हैं
यूँ आवाज़ अपाहिज है तो अपनी क़िस्साख्वानी बन्द
अगर गुरुतुल्य कोई बे-राह जो जाए तो उसे भी चेतावनी दी जा सके ऐसी स्वस्थ रवायत अब घमंड और अज्ञान की भेंट चढ़ चुकी है-
काला धंधा गोरखधंधा खुल्लम खुला चालू है
भाग मछंदर गोरख आया ऐसी गोरख बानी बन्द
ये शेर पढ़कर आपको शाइरी में गागर में सागर कहावत का अहसास होगा। दो मिसरों में पूरी एक कथा को समेटते हुए मानीखेज़ बात कह देना; लाजवाब है। कहन से चमत्कार पैदा करना भी शाइरी की उम्दा नज़ीर होती है, चमत्कार के साथ तवील फ़िक्र भी हो तो क्या कहने-
सर में आग और पेट में पानी, तब तक दम है हुक़्क़े में
फिर बस गुड़गुड़ ही रह जानी उसके बाद धुआं और राख
जैसे कभी न देखा हो, यूं देखते हैं वो
देखो, न देखने के सितम देखने में हैं
जुमलों का दौर है, जुमलों से सरकारें आ जा रही हैं तो शाइरी में इसका ज़िक्र आना लाज़मी है-
दे-दे के ज़ख़्म वो यूं बहलाये जा रहे हैं
थोड़ा सा और सहिए दिन अच्छे आ रहे हैं
शाइरी में दर्शन का पुट हो तो वह एक आला दर्जा हासिल कर लेती है। ईश्वर के होने न होने पर कोई एकराय क्या होगी –
अजीब दौर है, ये लोग भी अजीब ही हैं
मैं मानता तो नहीं सोचता हूँ बस, रब है?
न कोई सामने है और न साथ है कोई
मैं अपने आप से ही उसकी बात करता हूँ
अपने और उसके दरमियां बस एक पर्दा ही नहीं
कुछ तो है और पर्दे और पर्दानशीं के दरमियां
दुनिया भर में पर्यावरण पर हो रही तमाम तरह की कवायदों पर यह एक शेर भारी है; जो कि आजकल बहुत जगह कोट किया जा रहा है-
गोलमेजें जब उठेंगी बात करके प्यास पर
बिसलरी की बोतलों का मुंह खुला रह जाएगा
अंधे विकास की चपेट में जल, जंगल, पहाड़ और आसमान तक ख़तरे में हैं, परिंदों-चरिंदों की तो बात ही क्या कही जाए। अभी हाल ही में लद्दाख पर सबकी ख़ामोशी तो सबने देखी ही होगी। शाइर की आंखें यह सब पहले से ही देख लेती हैं-
तरक़्क़ी साज़िशन इक भूख के जबड़ों में आ पहुंची
कि वहशत दांतों, नाख़ूनों से अब सोचों में आ पहुंची
जो हमने देर से छोड़ी, भला कब छूटी वो आदत
रिवायत और विरासत की तरह बच्चों में आ पहुंची
राजा के डर से जब लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ बेकार हो गया, मौन हो गया तो शाइर को तो कहना ही पड़ेगा-
बोलो कि लोग खुश हैं यहां सब मजे़ में हैं
ये मत कहो कि ज़िल्ले-इलाही नशे में हैं
निज़ाम ख़राबहाल के लिए ज़िम्मेदार तो है पर उसे ग़लत कहना दिलेरी का काम है और यही सबसे बड़ी विडंबना है-
सुकून, अम्न, न तब था यहां, न ही अब है
निज़ाम, यानी ग़लत हाथ में है, बेढब है
तमाम कूचे यहां क़त्लगाह तो हैं ही
नहीं हैं खू़नी जो वो सब गवाह तो हैं ही
हैं जो भी ज़िंदा वो हथियारबंद हैं या चुप
भले बहाल दिखें हम तबाह तो हैं ही
हम कहेंगे ग़ज़ल और होंगे ग़ज़ल कहके उदास
कूज़ागर को भी सुना कूज़ागरी के ग़म हैं
कबीर का लहजा और बेबाकी भवेश के यहाँ बहुतायत में मिलती है. जिस तरह कबीर निडर होकर सियासत पर प्रहार करते रहे, धर्म के नाम पर हो रहे पाखण्ड को सरेआम कोसते रहे भवेश भी लिखते हैं –
कुछ आँसू बहाओ या तांडव दिखाओ
बने मत रहो चिकने पत्थर महादेव
दरिया ही में डूब लूं, जाऊं मगर न घाट
राम न होंगे घाट पर, लगी धरम की हाट
केपी अनमोल जी लिखते हैं, “भवेश सीधी-सादी ज़ुबान में अपने ही अंदाज़ से दौरे-हाज़िर की तमाम बातों को उकेरते हैं। उस अनपढ़ कबीर के लहजे में जब भवेश कुछ कहते हैं तो सितम ढाते हैं।”
रहे रहेंगे वो ग़ालिब वो मीर ज़िंदाबाद
मगर मेरे लिए पहले कबीर ज़िंदाबाद
जिन लोगों का इल्म से वास्ता नहीं वे ओवरथिंकिंग जैसी ख़ब्त से बचे हुए हैं। ख़ुद का दिल से दिमाग़ में तब्दील होते हुए देख पाना बताता है आत्म-निरीक्षण कितना गहरा है-
रहता था दूर इल्म से, जाहिल था, मस्त था
होकर दिमाग़ सुस्त हूँ जब दिल था, मस्त था
यह आज की तकनीक जो कि सुविधा के साथ ही बहुत बड़ी मुसीबत भी है; हर कहीं व्याप्त वाट्सअप-ज्ञान पर कितना मुफ़ीद बैठता है-
उंगलियां जबसे ज़ुबां होने लगी
कान आंखों के भरे जाने लगे
ज़िन्दगी की दुश्वारियों को बच्चों की कहानी से कह देना; थोड़े में अधिक कहना है-
ज़िंदगी है कहानी बच्चों की
चिड़िया है जाल है शिकारी है
ग़ज़लों के कलापक्ष पर वैसे तो अरूज़ी ही बता सकते हैं पर बात करें तो कह सकते हैं कि इन्होंने बहुत सारी नई रदीफ़, नए काफ़िये ईजाद किए हैं। बहुत सारी ग़ज़लों को नई ज़मीन दी है। ‘रब राखा’, ‘आ पहुंची’, ‘ज़िंदाबाद’, ‘फ़िल्मी’, ‘मुहब्बत में’, ‘दरमियां’ जैसी अलग रदीफ़ लेकर भी अच्छे शेर कहे हैं। रवायतों को तोड़ते हुए नए प्रयोग किए हैं। जदीद तेवर बरक़रार रखा है। अरूज़ के माहिर डॉ. आज़म भूमिका में लिखते हैं, “इनकी ग़ज़लें महज़ ग़ज़लें हैं। हिंदी या उर्दू ग़ज़लों का वर्गीकरण मैं नहीं मानता वरना ये कहना होगा कि उर्दू ग़ज़लें हैं, देवनागरी लिपि है।”
भाषा व अनुभव की नज़र से तीनों ग़ज़ल संग्रह अव्वल हैं। लिखते जाऊं तो इन ग़ज़लों पर सौ पन्ने भी भर जाएं, पर अब आप स्वयं पढ़कर इन तक पहुंचें, आला दर्जे के अशआर मिलेंगे। कई रंगों से ख़यालात रोशन करते हुए भवेश चुप्पियों के दौर में आवाज़ देकर वक़्त पर यूँ ही रंगों की बज़्म सजाते रहें, रंग रास आते रहें इन्हीं तमाम दुआओं के साथ बहुत बहुत मुबारकबाद भी। आख़िर में उन्हीं के लफ़्ज़ों में कहती हूँ-
उदासियाँ भले कितनी भी पाल-पोस मगर
उदासियों से उमीदें ज़रूर पैदा कर