-संदीप पांडेय
काशी हिन्दू विश्व विद्यालय के विवादास्पद कुलपति गिरीश चन्द्र त्रिपाठी के लम्बी छुट्टी पर चले जाने से फिलहाल तो विश्व्विद्यालय का माहौल शांत हो गया है. कुलपति न सिर्फ विश्वलविद्यालय को नुकसान पहुंचा रहे थे, बल्कि परिसर में ही स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) के संचालक मंडल के अध्यक्ष के नाते उसकी विश्व सनीयता भी खत्म करने में तत्परता से लगे थे. भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने हाल ही में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारतीय प्राद्योगिकी संस्थानों को भारत की उपलब्धियों में गिनाया, किंतु ऐसे प्रतीत होता है कि त्रिपाठी के लिए इसके कोई मायने नहीं थे.
त्रिपाठी का नाम उन पांच लोगों में नहीं था, जिनके नाम भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के संचालक मंडल ने अध्यक्ष पद के लिए प्रस्ताव के रूप में तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री स्मृति इरानी को भेजे थे. स्मृति इरानी ने जबरदस्ती त्रिपाठी को भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के संचालक मंडल के अध्यक्ष के रूप में थोप दिया. इरानी की खुद की शैक्षणिक योग्यता संदिग्ध है और त्रिपाठी की कोई अकादमिक उपलब्धि नहीं है. वे आज तक कोई शोध पत्र प्रकाशित नहीं करा पाए हैं. जिस तरह से ये अपात्र लोग प्रतिष्ठित अकादमिक संस्थानों के साथ खिलवाड़ कर रहे थे, एक न एक दिन वह उनके खिलाफ जाने ही वाला था. कई परिसरों पर विवाद खड़े करने के बाद इरानी को मानव संसाधन मंत्री पद से हटाया गया और आज त्रिपाठी का एक बुद्धिजीवी विरोधी, अहंकारी, हठी, पितृसत्तामक सोच वाला, नैतिक रूप से दिवालिया, अतार्किक व तानाशाही चेहरा सामने आ गया है. बेशर्मी की कोई हद वे नहीं मानते. 21 सितम्बर को एक छात्रा के साथ छेड़-छाड़ के विरुद्ध छात्राओें द्वारा विरोध प्रदर्शन पर लाठी चलने से राष्ट्रीय मुद्दा बन जाने के बाद भी वे 24 सितम्बर को डॉ. ओपी उपाध्याय को विश्व विद्यालय के अस्पताल के अधीक्षक के रूप में नियमितिकरण करना चाह रहे थे. उपाध्याय को फिजी के एक न्यायालय ने एक महिला के साथ छेड़-छाड़ करने का दोषी पाया है. ऐसे अपात्र लोगों की जबरदस्ती नियुक्तियां करने के प्रयासों के विरोध में विश्वाविद्यालय की कार्यकारी परिषद से भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, गांधीनगर के प्रोफेसर मिशेल डनिनो ने नवम्बर 2015 में इस्तीफा दे दिया था.
गिरीश चंद्र त्रिपाठी विश्वनविद्यालय को अपनी जागीर और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान को एक खिलौना समझते थे. भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के संचालक मंडल की 8 जुलाई 2016 की एक बैठक के कार्यवृत्त को एक वर्ष बीत जाने के बाद भी वे अंतिम रूप देने को तैयार नहीं थे. जब तक पिछली बैठक के कार्यवृत्त स्वीकृत नहीं होते, तब तक अगली बैठक नहीं बुलाई जा सकती. संचालक मंडल के अन्य सदस्यों ने त्रिपाठी को कार्यवृत्त को अंतिम रूप देने हेतु अनुस्मारक भी भेजे, लेकिन त्रिपाठी इस विषय पर किसी को कोई जवाब नहीं देते थे. त्रिपाठी की अदूरदर्शिता से संस्थान का कार्य प्रभावित हो रहा है. संस्थान के अकादमिक मामलों के, छात्र मामलों के, प्राध्यापक मामलों के, शोध मामलों के और पूर्व छात्र मामलों को लेकर पांच डीन की नियुक्तियां लम्बित हैं. कार्यवाहक डीन कार्यभार सम्भाले हुए हैं. भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के संचालन में निदेशक के अलावा डीन की भी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है. सुरक्षा हेतु कुछ नियुक्तियां रुकी पड़ी हैं. 21 सितम्बर को हुई घटना को देखते हुए इसे हल्के में नहीं लिया जा सकता. किंतु त्रिपाठी ने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान को जो सबसे बड़ा नुकसान पहुंचाया है, वह यह है कि संचालक मंडल के माध्यम से जो निर्णय लोकतांत्रिक ढंग से लेकर लागू कर दिए जाते थे, वे अब कुलपति व्यक्तिगत रूप से लेने लगे थे और संचालक मंडल के अन्य सदस्यों की कोई भूमिका नहीं रह गई थी.
नियमतः संचालक मंडल की वर्ष में दो बैठकें हो जानी चाहिए. जून 2017 में एक विशेष बैठक बुलाकर सातवें वेतन आयोग को लागू करने का निर्णय लिया गया, किंतु जब इस बैठक में कुछ सदस्यों ने 8 जुलाई 2016 की बैठक के कार्यवृत्त को अंतिम रूप देने की बात कही, तो कुलपति महोदय ने कहा कि यह बैठक विशेष उद्देश्य हेतु बुलाई गई है, उसके अलावा कोई अन्य मुद्दा नहीं लिया जा सकता. उन्होंने संस्थान को एक तरीके से बंधक बना लिया था. उनके लम्बी छुट्टी पर चले जाने से भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान का भविष्य अधर में लटक गया है. भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान में अनिश्चि तता का माहौल व्यापत है और किसी को कोई अंदाजा नहीं कि इस संक्रमण के दौर से कैसे निकला जाए. तथाकथित राष्ट्रवादी विचारधारा को मानने वाले कुलपति को यह भी दिखाई नहीं पड़ा कि वे अपने अड़ियल रवैये के कारण एक राष्ट्रीय स्तर के संस्थान को चौपट कर रहे हैं.
यदि हम यह देखें कि अन्य भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों के संचालक मंडलों के अध्यक्ष कौन लोग हैं, तो पाते हैं कि भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर में संचालक मंडल के अध्यक्ष मारुति उद्योग लिमिटेड के अध्यक्ष आरसी भार्गव, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली में संचालक मंडल के अध्यक्ष आदित्य बिड़ला समूह के अध्यक्ष कुमार मंगलम बिड़ला, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मुम्बई में संचालक मंडल के अध्यक्ष सन फार्मा के अध्यक्ष दिलीप सांघ्वी, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान खड़गपुर में संचालक मंडल के अध्यक्ष आरपी गोयनका समूह के अध्यक्ष संजीव गोयनका, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान चेन्नई में संचालक मंडल के अध्यक्ष महिन्द्रा एवं महिन्द्रा के अध्यक्ष पवन गोयनका, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान गुवाहाटी में संचालक मंडल के अध्यक्ष कैडिला फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड के अध्यक्ष डॉ. राजीव मोदी हैं. इसी तरह भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान रुड़की में संचालक मंडल के अध्यक्ष जाने माने वैज्ञानिक अनिल काकोडकर हो सकते हैं. देखा जाए तो ज्यादातर भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के संचालक मंडलों के अध्यक्ष किसी न किसी कम्पनी के प्रमुख हैं और इन सक्रिय लोगों के पास संस्थानों को आगे ले जाने की दृष्टि है. क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि इनमें से कोई भी व्यक्ति किसी कार्यवृत्त को अंतिम रूप देने में साल भर से ज्यादा का समय ले सकता है?
आइए हम यह भी देखें कि मूल रूप से किन लोगों के नाम बीएचयू के भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के संचालक मंडल ने अपना अध्यक्ष चुने जाने के लिए प्रस्तावित किए थे. ये पांच लोग थे इनफोसिस के सह-संस्थापक एनआर नारायण मूर्ति, भारतीय प्रबंधन संस्थान, बेंगलुरू के भूतपूर्व निदेशक पंकज चंद्रा जो वर्तमान में अहमदाबाद विश्वणविद्यालय के कुलपति हैं, भारतीय रिजर्व बैंक के एक निदेशक किरण कार्निक, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के भूतपूर्व निदेशक संजय धांडे और अमरीका के प्रतिष्ठित इलिनॉए विश्वैविद्यालय, अर्बाना-शैम्पेन के सेवानिवृत्त प्रोफेसर नरेन्द्र अहूजा. इन सभी लोगों ने वर्षों की मेहनत के बाद अपनी विश्विसनीयता कायम की है. इनकी तुलना में गिरीश चंद्र त्रिपाठी की कोई ऐसी उपलब्धि नहीं है कि उन्हें किसी विश्वतविद्यालय में प्रोफेसर भी बनाया जाए, कुलपति और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान के संचालक मंडल के अध्यक्ष की बात तो दूर की है.
गिरीश चन्द्र त्रिपाठी ने अपनी करतूतों से काशी हिन्दू विश्व विद्यालय और परिसर में स्थित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान को इतनी क्षति पहुंचाई है कि उन लोगों की शिनाख्त कर उनके खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए, जो इन्हें कुलपति बनाने के लिए जिम्मेदार हैं.
(लेखक मैग्सेसे पुरस्कार विजेता हैं)