हाल ही में बाली में संपन्न विश्‍व व्यापार संगठन के मंत्रिस्तरीय सम्मेलन में भारत को खाद्य सुरक्षा अधिनियम की सब्सिडी के लिए चार साल की राहत मिल गई. इस राहत के बाद कांग्रेस यह दावा कर सकती है कि उसने देश के ग़रीब वर्ग के लिए वैश्‍विक मंच पर भी लड़ाई लड़ी और विजय हासिल की. लेकिन हक़ीक़त यह है कि अमेरिका और यूरोपीय संघ अलग-अलग श्रेणियां बनाकर अपने किसानों को भारी सब्सिडी देते रहते हैं. भारत सरकार ने वास्तव में वैसा कुछ हासिल नहीं किया है, जैसा वह दिखावा कर रही है. वास्तव में उसने वैश्‍विक शक्तियों को अपनी संप्रभुता में एक और सेंध लगाने का मौक़ा दे दिया है.
baaliकांग्रेस पार्टी भले चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में बुरी तरह हार गई हो, लेकिन इस बीच वह एक मोर्चे पर जीतने का दावा कर रही है. और वह है इंडोनेशिया के बाली द्वीप में विश्‍व व्यापार संगठन का मंत्रिस्तरीय सम्मेलन. चूंकि जिस खाद्य सुरक्षा अधिनियम की नौका पर बैठकर कांग्रेस पार्टी 2014 के चुनाव की वैतरणी पार करना चाहती है, अगर वह बाली में डूब गई होती, तो उसका क्या होता! इसलिए बाली में खाद्य सुरक्षा अधिनियम की सब्सिडी के लिए चार साल की राहत मिल जाने के बाद कांग्रेस यह दावा कर सकती है कि उसने देश के ग़रीब वर्ग के लिए वैश्‍विक मंच पर भी लड़ाई लड़ी और विजय हासिल की. कांग्रेस यह दावा भी कर सकती है कि उसने भारत की आर्थिक संप्रभुता पर मंडरा रहे संकट के बादल को एक हद तक टाल दिया है. ध्यान देने लायक बात है कि भाजपा ने बाली में खाद्य सब्सिडी के सवाल को भारत की संप्रभुता से जोड़ कर देखा था, जबकि वैश्‍वीकरण की लॉबी उसे एक छद्म स्वाभिमान और व्यापार को नुकसान पहुंचाने वाली जिद की संज्ञा दे रही थी.
धमकियां तो इस हद तक पहुंच गईं थीं कि अगर भारत ने ‘पीस क्लाज’ की शर्तें स्वीकार नहीं कीं, तो उसके घातक परिणाम होंगे. अमेरिका और यूरोपीय संघ ने कहा था कि इससे भारत में निवेश घटेगा और उसे विश्‍व व्यापार संगठन के ‘विवाद निपटारा प्रदाय’ तक घसीटा जा सकता है. अमेरिका ने तो अपने एहसानों का भी हवाला दिया कि उसने वर्क परमिट और वीजा में ढील देने के साथ भारत के लिए बहुत कुछ किया है और भारत को उसका प्रतिदान देना चाहिए. बाली की उपलब्धियों की ख़ास बात यह है कि एक तरफ़ उससे भारत के वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ख़ुश हैं तो दूसरी तरफ़ डब्ल्यूटीओ के महानिदेशक राबर्टो अजेवेदो भी गदगद हैं. आनंद शर्मा की ख़ुशी इसलिए भी है कि भारत के निर्यातक ख़ुश हैं और उन्हें उम्मीद है कि दूसरे देशों के सीमा शुल्क और अन्य व्यापारिक बाधाएं कम होंगी और उनका निर्यात बढ़ेगा. इसके लिए भारत ने अमेरिका की तरफ़ से प्रस्तावित ‘पीस क्लाज’ को स्वीकार कर लिया है और पिछले 12 सालों से ठहरे हुए दोहा दौर में नई जान पड़ गई है. राबर्टो अजेवेदो इस बात से ख़ुश हैं कि डब्ल्यूटीओ के इतिहास में पहली बार कोई उपलब्धि हासिल हुई है. यानी बाली में विश्‍व व्यापार संगठन की डूबती नौका बचा ली गई है. जिस तरह से 1999 में सिएटल सम्मेलन में दंगा हुआ, 2003 में कानकुन में वाकआउट हुआ, 2005 में हांगकांग में कोरियाई किसानों ने मिर्च के घोल का स्प्रे किया और उसके बाद हुए जेनेवा के सम्मेलनों में कोई ख़ास समझौता नहीं हो सका, उसे देखते हुए यह संगठन तेज़ी से अप्रासंगिकता की ओर जा रहा था. इसलिए संगठन में नई जान पड़ने से अजेवेदो प्रफुल्लित हैं, वहीं खाद्य सुरक्षा और खेती की सब्सिडी को चार साल के लिए बचाकर भारत की मौजूदा सरकार भी दोहरी ख़ुशी मना सकती है. पर आज जिस तरह का माहौल बन गया है, उसे देखते हुए कहीं नहीं लगता कि कांग्रेस पार्टी को इस वार्ता का राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई लाभ मिलेगा. जनता कांग्रेस के भ्रष्ट शासन से इतना ऊब चुकी है कि वह कार्यकाल के अंतिम वर्ष में लाई गई खाद्य सुरक्षा को एक पाखंड मानकर चल रही है. हां, अगर कांग्रेस सरकार बाली में इतना भी न हासिल कर पाई होती, तो उसके लिए आगे की राजनीति ज्यादा भारी पड़ती.

भारत ने बाली में ‘पीस क्लाज’ के तहत जो समझौता किया है, उसके मुताबिक़ वह अगले चार सालों में खेती की समस्या को हल करेगा और तब तक खाद्य सब्सिडी और सुरक्षा की योजनाएं जारी रखेगा. उसे यह भी उम्मीद है कि इस दौरान समस्याएं हल नहीं होंगी और वह सब्सिडी को जारी रख सकेगा. लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत की सब्सिडी रियायत के ख़िलाफ़ संपन्न देशों ने अपने साथ-साथ अन्य विकासशील देशों को भी लामबंद कर रखा था. यह सही है कि भारत का साथ 25 देशों ने दिया, लेकिन वह जी-33 समूह के सभी देशों को अपने साथ एकजुट नहीं कर पाया.

दरअसल, विश्‍व व्यापार संगठन को पुनर्जीवित करने के लिए दबाव में आई भारत सरकार ने वास्तव में वैसा कुछ हासिल नहीं किया है, जैसा वह दिखावा कर रही है. उसने एक तरह से अपने नागरिकों को यह दिखाना चाहा है कि वह कितने तरह के विदेशी दबाव के बावजूद उनके लिए खाद्य सुरक्षा हासिल करने जा रही है. लेकिन वास्तव में उसने वैश्‍विक शक्तियों को अपनी संप्रभुता में एक और सेंध लगाने का मौक़ा दे दिया है. उसने वह मौक़ा खाद्य सुरक्षा अधिनियम पर वैश्‍विक मंच पर चर्चा कराकर तो दिया ही, तमाम अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को भारत की खेती और खाद्य नीतियों की पड़ताल करने का मौक़ा देकर भी किया. अब अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं अनाज की उगाही, उनके भंडारण, वितरण और अन्य योजनाओं पर निगरानी रख सकेंगी. जबकि भारत को ज़रूरत इसकी थी कि वह 1994 के कृषि समझौते पर नए सिरे से बात करता और कहता कि ऐसे किसी समझौते के पालन से ज्यादा ज़रूरी है कि भारत की ग़रीबी, कुपोषण, कृषि उत्पादन और वितरण पर ग़ौर किया जाए. कृषि समझौता उत्पादन के 10 प्रतिशत मूल्य से ज्यादा की सब्सिडी की अनुमति नहीं देता. अगर वैसा किया जाता है तो उसे व्यापार को विकृत करने वाली गतिविधि कहा जाता है और कार्रवाई के लिए ‘विवाद निपटारा प्रदाय’ में अपील की जाती है. जबकि हक़ीक़त यह है कि अमेरिका और यूरोपीय संघ अलग-अलग श्रेणियां बनाकर अपने किसानों को भारी सब्सिडी देते रहते हैं. मसलन, 2010 में अमेरिका ने अपने 6.5 करोड़ नागरिकों को 385 किलोग्राम प्रति व्यक्ति अनाज की दर से खाद्य सहायता दी, जबकि इस दौरान भारत ने 47.5 करोड़ नागरिकों को 58 किलोग्राम अनाज प्रति व्यक्ति की दर से खाद्य सहायता दी. फ़़र्क यह है कि भारत में खाद्य सब्सिडी पाने वालों की तादाद ज्यादा है, जबकि उन्हें मिलता बहुत कम है.
भारत ने बाली में ‘पीस क्लाज’ के तहत जो समझौता किया है, उसके मुताबिक़ वह अगले चार सालों में खेती की समस्या को हल करेगा और तब तक खाद्य सब्सिडी और सुरक्षा की योजनाएं जारी रखेगा. उसे यह भी उम्मीद है कि इस दौरान समस्याएं हल नहीं होंगी और वह सब्सिडी को जारी रख सकेगा. लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत की सब्सिडी रियायत के ख़िलाफ़ संपन्न देशों ने अपने साथ-साथ अन्य विकासशील देशों को भी लामबंद कर रखा था. यह सही है कि भारत का साथ 25 देशों ने दिया, लेकिन वह जी-33 समूह के सभी देशों को अपने साथ एकजुट नहीं कर पाया. थाईलैंड और पाकिस्तान का कहना था कि अगर भारत के अति लाभ पाने वाले किसानों को और फ़ायदा मिलेगा तो उसके उत्पादकों को घाटा होगा.
उधर, ब्राजील और इंडोनेशिया जैसे देशों ने भी इस मामले में जल्दी समझौता करने का दबाव बनाया. खेती और खाद्य सुरक्षा को मिलने वाली सब्सिडी के विरुद्ध दुनिया के तमाम देशों की दलील थी कि अगर व्यापारिक समझौता होता है, तो इससे मंदी से ग्रस्त विश्‍व अर्थव्यवस्था को एक खरब डॉलर का फ़ायदा होगा. इसलिए खेती की सब्सिडी की ज़िद में उसे टाला नहीं जा सकता. हालांकि, खेती दुनिया के व्यापार का महज़ 10 प्रतिशत है, लेकिन लोगों की मूल ज़रूरत से जुड़े इस क्षेत्र को भी ब़ख्शा नहीं जा रहा है. इसलिए बाली में जो मिला है, उससे न स़िर्फ भारत की खाद्य सुरक्षा योजना का मामला जुड़ा है, बल्कि किसानों के न्यूनतम समर्थन मूल्य, उत्पादन, भंडारण और अनाज की आत्मनिर्भरता का सवाल भी जुड़ा है. सवाल 1986-88 के मूल्य आधार पर मिलने वाली सब्सिडी का भी है. आज की महंगाई के दौर में सब्सिडी का निर्धारण नए आधार पर होना चाहिए. व्यापार से राजनीति को अलग करने की तमाम कोशिशों के बावजूद वह रिश्ता टूटता नहीं दिखता. आख़िर बाज़ार को खुला छोड़कर कौन सरकार अपने को बचा सकती है.
आज टमाटर और प्याज के बढ़ते दामों के चलते अपनी सरकारें गंवाने वाले राजनीतिक दल खेती के मुद्दे को छोड़ भी नहीं सकते और विश्‍व व्यापार की ताक़तों के दबाव के चलते जनता को लंबे समय तक रियायत भी नहीं दे सकते. बाली में इस दुविधा से थोड़ा ही बाहर निकला जा सका है, वह पूरी तरह ख़त्म नहीं हुई है. इसीलिए कहा भी जा रहा है कि बाली में विश्‍व व्यापार संगठन को बहुत थोड़ा ही हासिल हुआ है. अब देखना है कि भारत में अगले साल आने वाली सरकार बाली की उपलब्धियों को जनता के खाते में डालती है या पूंजी प्रधान व्यापारिक शक्तियों के लिए नए मार्ग प्रशस्त करती है.
क्या है बाली समझौता
वर्ल्ड ट्रेड आर्गेनाइज़ेशन एक अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक संगठन है, जिसका पुराना नाम जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिस एंड ट्रेड (गेट) है. आधिकारिक रूप से इसकी शुरुआत 1995 में हुई और इसका उद्देश्य विश्‍व स्तर पर व्यापार को विकसित करना, कस्टम व्यवस्था को सरल बनाना, कृषि सब्सिडी और निर्धन देशों को सहायता देना व आर्थिक पाबंदियों, ड्यूटी, कोटा, सब्सिडी, टैरिफ आदि की निगरानी करने जैसे मामलों पर सर्वसम्मति बनाना है. यहां तक कि यह संगठन अंतरराष्ट्रीय व्यापार में संभावित विवाद की स्थिति में बिचौलिये की भूमिका निभाता है. इस समय डब्ल्यूटीओ के अधिकारिक रूप से 159 सदस्य हैं. दिसंबर, 2013 की इसकी व्यापारिक कॉन्फ्रेंस इंडोनेशिया के एक राज्य बाली में आयोजित हुई है, जिसमें भारत समेत दुनिया भर के वाणिज्य मंत्री शामिल हुए हैं. इस कांफ्रेंस को वैश्‍विक रूप से स्वतंत्र व्यापार के भविष्य के लिए महत्वपूर्ण बताया जा रहा है.
क्या होंगे लाभ
अगर बाली कॉन्फ्रेंस में हुए समझौते को अमल में लाया जाता है तो इससे 21 मिलियन नई नौकरियों के अवसर पैदा होंगे. इसके अलावा 960 बिलियन डॉलर के नये निवेश का रास्ता भी साफ़ होगा. लेकिन सवाल यह है कि कहीं बाली समझौता भी दोहा राउंड की तरह प्रभावहीन न होकर रह जाए. हालांकि, बाली समझौते को भारत समेत सभी सदस्य देशो ने एक सकारात्मक क़दम बताया है, लेकिन इस समय आवश्यकता कहने की नहीं बल्कि करने की है.
अंतरराष्ट्रीय व्यापार संगठन का दोहा राउंड 2001 में आयोजित हुआ था. इस राउंड का उद्देश्य अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए क़ानूनों का अंतरराष्ट्रीय फ्रेमवर्क तैयार किया जाना था, लेकिन ग़रीब व अमीर देशों के बीच सुरक्षा को लेकर कुछ ऐसी शर्तें रखी गईं, जो विवाद का शिकार हो गईं और फिर इसमें कोई प्रगति नहीं हो सकी. दरअसल, इस राउंड में यह तय हुआ था कि कोई देश ग़रीबों को सस्ती क़ीमत पर अनाज उपलब्ध करने के लिए कृषि पैदावार के 10 प्रतिशत तक ही सब्सिडी कर सकता है. अगर दोहा के निर्णयों को अमल में लाया जाता तो अन्य कई देशों के अलावा भारत के सामने खाद्य सुरक्षा विधेयक पर अमल करना मुश्किल हो जाता. भारत ने इस विधेयक के तहत ग़रीबों को बेहद कम मूल्यों पर अनाज उपलब्ध करने का निर्णय किया है. ऐसे में अगर डब्ल्यूटीओ के समझौते को स्वीकार कर लिया जाता तो भारत के लिए ग़रीबों के लिए सस्ता अनाज उपलब्ध कराना किसी भी स्थिति में संभव नहीं होता. यही कारण था कि भारत ने दोहा शर्त को पूर्ण रूप से ख़ारिज कर दिया था और भारत के वाणिज्य मंत्री आनंद शर्मा ने बाली कॉन्फ्रेंस में भी संबोधन के दौरान अपनी बात रखते हुए कहा कि बाली पैकेज इस समझौते को शामिल करने के कारण देश में खाद्य वस्तुएं सस्ती करने की कोशिशों को ख़तरा हो जाएगा, जिसे स्वीकार नहीं किया जा सकता. कृषि से लाखों किसानों की रोज़ी-रोटी जुड़ी है और हमें उनके हितों की सुरक्षा करनी है, दुनिया की चार अरब जनता के लिए खाद्य सुरक्षा को सुनिश्‍चित बनाया जाना आवश्यक है. हमने डब्ल्यूटीओ पैकेज ख़ारिज कर दिया है और यह हमारा अंतिम निर्णय है.
ज़ाहिर है कि भारत डब्ल्यूटीओ का एक महत्वपूर्ण सदस्य है और विश्‍व व्यापार के लिए एक बड़ी मंडी भी. ऐसे में इसकी सहमति के बिना कॉन्फ्रेंस को सफलता तक पहुंचाना संभव नहीं है और यही कारण है कि जब भारत बाली पैकेज में इस शर्त का विरोध कर रहा था तो आर्थिक विशेषज्ञों ने यह भविष्यवाणी शुरू कर दी थी कि बाली कॉन्फ्रेंस का अंजाम भी दोहा जैसा हो सकता है, लेकिन अन्य कई देशों की ओर से निरंतर यह प्रयास जारी था कि भारत को बाली पैकेज पर सहमत करने के लिए शर्तों में कुछ सुविधाएं पैदा की जाएं. लिहाज़ा, ऐसा ही हुआ और भारत को सहमत करने के लिए कई पेशकश की गईं, जिनमें दोहा समझौते से भारत को चार साल के लिए अलग करने की बात हुई, लेकिन ज़ाहिर है कि भारत का खाद्य सुरक्षा विधेयक सीमित समय के लिए नहीं है. इसीलिए ऐसी स्थिति में केवल चार वर्ष की पेशकश भारत की इस योजना को प्रभावहीन बना सकती थी. अर्थात भारत इस बात के लिए राज़ी नहीं हुआ कि सब्सिडी को कृषि पैदावार के 10 प्रतिशत तक ही सीमित रखा जाए. बहरहाल समस्या को किसी सकारात्मक हल तक पहुंचाने के लिए सदस्य देश के नेताओं की भारतीय वाणिज्य मंत्री के साथ कई बैठकें हुईं और इन्हें सतुष्ट करने के कई प्रयास किए गए. यहां तक के सब्सिडी के औसत को 10 प्रतिशत से बढ़ाने की पेशकश हुई. इस प्रकार व्यापारिक संगठन की 9वीं मंत्रिस्तरीय कॉन्फ्रेंस में खाद्य सुरक्षा के समझौते समेत 10 दस्तावेज़ों पर आधारित बाली पैकेज को पूर्ण रूप से मंज़ूरी दे दी गई.
भारत बाली कुल 10 मसौदों में से आठ पर पहले से ही सहमत था और जिन प्रावधानों पर इसे आपत्ति थी, उसमें रियायत देकर शेष प्रावधानों पर भी इसे सहमत कर लिया गया और इस प्रकार यह समझौता संभव हो पाया. यह इस प्रकार का पहला वैश्‍विक समझौता है. इस समझौते के तहत व्यापार की कार्यप्रणाली को सरल बनाया गया है, जिससे ग़रीब देशों को अपना सामान बेचने में आसानी होगी. इस समझौते के नतीजे में ग़रीब देशों के लिए अपनी वसतुएं वैश्‍विक मंडियों में बेचने में आ रही रुकावटें कम होंगी, लेकिन यह प्रश्‍न तो अब भी बना हुआ है कि सभी सदस्य देश इस समझौते को अमल में लाने के लिए कितनी गंभीरता दिखाते हैं.
 

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