अखिलेशवादी समाजवादी पार्टी कांग्रेस के साथ गठबंधन कर सत्ता में वापसी की कवायद कर रही है. यह गठबंधन गांठों से भरा है. पिछले पांच वर्षों की आपसी तिक्तता और परस्पर-विरोधी बयानबाजियों की तल्खी से आम लोग दो-चार होते ही रहे हैं. आपसी दंगल केदंश से बेहोश हो रही समाजवादी पार्टी महागठबंधन के इंजेक्शन से थोड़ी होश में आई है और इसी के बूते अखिलेशवादी समाजवादी चुनावी मैदान में उतरने को तैयार हैं. लंबे अर्से से सपा में चल रहे झगड़े को जनता ने अच्छी तरह से देखा-समझा है.
नए युग की सपा के लिए चुनाव मैदान में उतरने का बहुत ही कम समय बचा था. यही कारण है कि सपा में गठबंधन का फैसला और उम्मीदवारों के चयन के साथ-साथ चुनावी घोषणा पत्र जारी करने की औपचारिकताएं आनन-फानन में पूरी करनी पड़ीं. अब सपा में चाचा शिवपाल यादव व अंकल अमर सिंह का वर्चस्व पूरी तरह से समाप्त हो चुका है. एक तरह से 2017 में सपा का नया युग प्रारंभ हो चुका है.
समाजवादी पार्टी ने 2017 के चुनावों के लिए जो घोषणा पत्र जारी किया है, वह लोक-लुभावन है, पर साथ ही कई सवाल भी खड़े कर रहा है. इन वादों को वह किस प्रकार पूरा करेगी? सपा सरकार ने विगत चुनावों से पहले जो वादे किये थे, उनमें से अधिकतर आधे-अधूरे हैं, कुछ में तो हाथ भी नहीं डाला गया. यह बात अलग है कि चुनावों का ऐलान होने से पहले ही मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने उद्घाटन व शिलान्यास कार्यक्रमों की होड़ लगा दी. सपा के चुनावी हथकंडे में सबसे बड़ा दांव कांग्रेस के साथ गठबंधन का है. सपा के नये मुखिया अखिलेश यादव का मानना है कि कांग्रेस के साथ गठबंधन हो जाने पर गठबंधन की तीन सौ सीटें आ जाएंगी.
यही कारण है कि काफी उठापटक के बाद सपा व कांग्रेस आलाकमान के बीच सीटों पर सहमति बन पाई है. माना जा रहा है कि जो गठबंधन एक बार बिखरने की कगार पर आ गया था, उसे फिर से संवारने का काम प्रियंका ने किया है. गठबंधन के बाद सपा 298 व कांग्रेस 105 सीटों पर सहमत हो गई है. कांग्रेस को यह गठबंधन मजबूरी में ही करना पड़ा है. सपा की तुलना में वर्तमान में कांग्रेस का संगठन बेहद नाजुक दौर में है. वहीं उसके पास अब परंपरागत वोट-बैंक भी नहीं रह गया है.
कांग्रेस ने इन चुनावों में गठबंधन के पहले 27 साल यूपी बेहाल का नारा दिया था जिसकी अब हवा निकल चुकी है. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने अपनी किसान यात्राओं, खाट सभाओं के माध्यम से कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनाने का प्रयास किया था. प्रदेश के कई जिलों में राहुल गांधी ने रोड शो का भी आयोजन किया व ब्राहमण मतदाताओें को आकर्षित करने के लिए शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित किया. लेकिन भाजपा को रोकने की चाहत व मुस्लिम मतों के बिखराव को रोकने के लिए कांग्रेस को सपा के आगे झुकने के लिए तैयार होना पड़ रहा है.
एक प्रकार से वह बैकडोर के माध्यम से सत्ता में फिर से वापसी की बाट जोह रही है. कांग्रेस समझ चुकी थी कि वह लाख कोशिशें के बाद भी अकेले दम पर दो दर्जन से अधिक सीटों पर विजय नहीं प्राप्त कर सकती. कांग्रेस का प्रदेश में पीके प्रयोग फ्लॉप हो चुका है. राहुल गांधी अब साइकिल के पीछे बैठकर अपनी राजनीति को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहे हैं. जबकि कहा जा रहा है कि यह गठबंधन सांप्रदायिक ताकतों को रोकने तथा धर्मनिरपेक्ष ताकतों को मजबूत करने के इरादे से किया जा रहा है.
सपा के घोषणपत्र पर और कांग्रेस के साथ गठबंधन हो जाने के बाद विपक्षी योद्धाओं विशेषकर बसपा नेता मायावती व भाजपा ने जमकर हमला बोला है. मायावती ने जोरदार हमला बोलते हुए कहा कि सपा का काम कम, अपराध अधिक बोलता है. उन्होंने सपा के घोषणापत्र को औपचारिकता निभाने वाला बताते हुए कहा कि सपा के दागी चेहरों ने अपनी गलत नीतियों और कार्यकलापों से पांच साल तक अराजक, आपराधिक, भ्रष्टाचार और सांप्रादायिक दंगों का जंगलराज देकर पिछले
घोषणापत्र को मजाक बनाकर रख दिया है. मायावती का कहना है कि सपा को घोषणापत्र जारी करने के पहले अपने गिरेबान में झांकना चाहिए था. प्रदेश भाजपा अध्यक्ष केशव प्रसाद मौर्य का कहना है कि पूरे प्रदेश में अराजकता का वातावरण है तथा प्रदेशभर में कहीं भी महिलाओें का सम्मान सुरक्षित नहीं है. इन परिस्थितियों में सपा का घोषणापत्र झूठ का पुलिंदा मात्र है.
वैसे भी यदि सभी वादों पर गौर किया जाए तो सपा ने जो भी वादे किये हैं, उनमें से अधिकतर तभी पूरे हो सकेंगे, जब वे केंद्र के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकेंगे. वैसे भी अभी तक कितने घोषणापत्र सभी दलों ने पूरे किए? अब समय आ गया है कि सभी दलों व चुनाव आयोग को मिलकर घोषणापत्रों के प्रति भी एक आवश्यक गाइडलाइन बनाने पर विचार करना चाहिए. चुनाव आयोग इन सभी पत्रों का हलफनामा भी दाखिल करवाए तथा हर चुनाव से पहले इनकी व्यापक समीक्षा का प्रावधान होना चाहिए.
यदि जो दल इन वादों को वास्तविक धरातल पर पूरा न कर सके, तो उन दलों का चुनाव रद्द करने का कानून अनिवार्य कर देना चाहिए या फिर घोषणा पत्र जारी करने की परंपरा ही समाप्त कर देनी चाहिए. ये वादे अधिकांशतः जनता को बेवकूफ बनाने के लिए ही होते हैं. सपा सरकार ने अपने कई वादे पिछले चुनावों में भी किए थे, लेकिन वह आजतक पूरे नहीं हो सके. सपा ने सबसे बड़ा वादा किया था कि स्मारक घोटालों और भ्रष्टाचार के मामलों में जो कोई दोषी होगा वह जेल जाएगा, लेकिन आज भी स्मारक घोटाले वाले बाहर घूम रहे हैं तथा अगली सरकार बनाने की ओर अग्रसर हैं.
अपने बूते जीतने का दम क्यों नहीं!
समाजवादी पार्टी के नेता ही कहते हैं कि यदि सपा में मुलायम युग होता तो कांग्रेस के साथ सपा का गठबंधन नहीं होता. जब भारत में सर्वाधिक विकास का दावा किया जा रहा है, तब तीन सौ सीटें अपने बूते पर जीतने का विश्वास होना चाहिए. गठबंधन के पहले भी अखिलेश बार-बार यह कहते रहे हैं कि कांग्रेस से गठबंधन हो जाए तो हम तीन सौ सीटों से अधिक जीतेंगे. कांग्रेस की भांति अखिलेश को भी यह बताना चाहिए कि सांप्रदायिक शक्तियों को रोकने और तीन सौ का आंकड़ा पार करने का विचार उनके मन में कब आया. गठबंधन होने के पहले तो उनकी पार्टी भी पल-पल बदल रही थी. जब उद्देश्य इतना बड़ा था, तब इतनी अनिश्चितता क्यों थी? कुछ समय पहले तक अखिलेश कांग्रेस को लड़ाई से बाहर मान रहे थे.
चुनाव से पहले दल-बदल की बयार चलती है, इसमें कोई नई बात नहीं है. एक सीमा तक कोई भी पार्टी इसकी उपेक्षा नहीं कर सकती है. खासतौर पर कद्दावर और जनाधार वाले नेता दल-बदल करते हैं, तो उन्हें समायोजित करने की विवशता भी होती है. ध्यान यह होना चाहिए कि दल-बदल करने वाले नेता नई पार्टी के विचार और रीति-नीति को आत्मसात करते हैं कि नहीं. व्यावहारिक तथ्य यह है कि विभिन्न पार्टियां सत्ता में पहुंचना चाहती हैं. इसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु उन्हें दल-बदलने वालों को स्वीकार करना पड़ता है. लेकिन सरकार संबंधित पार्टी की विचारधारा के अनुरूप ही चलनी चाहिए.
इसमें बहुमत दल के मुखिया की भूमिका बदलने के बाद सत्ता पक्ष के विधायक बने नेता भी उसी अनुरूप आचरण करते हैं. यही कारण है कि संबंधित पार्टी के कार्यकर्ता भी प्रायः दल-बदल करके प्रत्याशी बने नेता को स्वीकार कर लेते हैं. लक्ष्य बड़ा हो तो कतिपय व्यावहारिक कठिनाई आती है. किन्तु किसी नेता के लिए पार्टी को अपनी विचारधारा से समझौता नहीं करना चाहिए. जनादेश के अनुरूप न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर गठबंधन को भी अनुचित नहीं माना जाता. प्रजातांत्रिक व्यवस्था के संचालन में ऐसे अवसर भी आते हैं.
स्पष्ट है कि दल-बदल के अनुभव कोई नए नहीं है. लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस एक नए चलन के लिए चर्चित हुई. कई दिन तक इस पार्टी के पल-पल बदलने का स्वरूप दिखाई देता रहा. कभी सपा के साथ गठबंधन की खबर चलती थी, कभी कांग्रेस
नेताओं, प्रवक्ताओं के सुर बदल जाते थे. 27 साल यूपी बेहाल के दावों पर उन्हें यकीन हो जाता था. फिर चिर-परिचित दलील दी जाती है कि सांप्रदायिक-शक्तियों को रोकने के लिए सपा से गठबंधन कर रहे हैं. एक बार तो गठबंधन की संभावना पूरी तरह से समाप्त ही लग रही थी. सपा ने उन सीटों पर भी प्रत्याशी उतार दिए, जहां से कांग्रेस जीती थी.
इसमें कांग्रेस विधायक दल के नेता प्रदीप माथुर भी शामिल थे. इतना सुनना था कि कांग्रेस के प्रवक्ताओं के सुर फिर बदल गए. फिर उन्हें सपा शासन में कानून व्यवस्था खराब लगने लगी. विकास के दावों पर इनका विश्वास समाप्त हो गया. फिर 27 साल यूपी बेहाल नजर आने लगा. सांप्रदायिक शक्तियों को रोकने का मंसूबा समाप्त हो गया. यह वैचारिक बदलाव भी अंतिम नहीं था. पल-पल बदलने का एपिसोड तैयार हो रहा था.
27 साल यूपी बेहाल पर कांग्रेसी नेताओं को जवाब देते नहीं बन रहा है. स्वाभाविक तौर पर जब किसी के पास अपने बचाव में कोई दलील नहीं होती तो वह दूसरे पर हमला करता है. यही कार्य कांग्रेस की तरफ से हो रहा है. कहा जा रहा है कि भाजपा भी अपनी विरोधी महबूबा मुफ्ती के साथ सरकार चला रही है. लेकिन सवाल चुनाव बाद सरकार चलाने का नहीं है.
जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा और महबूबा मुफ्ती ने पूरे दम-खम से चुनाव लड़ा. मतलब चुनाव से पहले इन दोनों पार्टियों ने हथियार नहीं डाले थे. इनका मनोबल कमजोर नहीं हुआ था. दोनों ने अपने दम पर सरकार बनाने का मंसूबा दिखाया. उसके अनुरूप पूरा जोर लगाया. दोनों सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरीं, लेकिन मतदाताओं ने किसी को अकेले सरकार बनाने का जनादेश नहीं दिया.
उस विधानसभा में मात्र दो ही विकल्प थे. एक यह कि गठबंधन सरकार बने, दूसरा यह कि विधानसभा भंग करके दुबारा चुनाव हो. दूसरे विकल्प में संशय था. यदि दुबारा चुनाव में भी हंग असेंबली बनी, तो क्या होगा. नेशनल कॉन्फ्रेंस व कांग्रेस मिलकर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं थी. पीडीपी उन्हें समर्थन देने को तैयार नहीं थी. ऐसे में भाजपा-पीडीपी के न्यूनतम साझा कार्यक्रम के तहत सरकार बनाने के अलावा अन्य कोई विकल्प नहीं था.
जनादेश का इससे अच्छा क्रियान्वयन तात्कालिक स्थिति में संभव नहीं था. जाहिर है जम्मू कश्मीर में भाजपा-पीडीपी गठबंधन की तुलना उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन से संभव ही नहीं है. यहां तो दोनों पार्टियों ने अपनी कमजोरी का प्रदर्शन किया है.