असम में 30 जुलाई को राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का दूसरा और अंतिम मसौदा प्रकाशित हुआ, जिसमें 40 लाख लोगों के नाम शामिल नहीं किए गए हैं. अलग-अलग नजरिए से यह संख्या कम या अधिक मानी जा सकती है. अगर ये तमाम लोग विदेशी घुसपैठिए करार दिए जाते हैं, तो निश्चित रूप से बड़ी यह संख्या कही जाएगी. लेकिन यह सच नहीं है. बड़ी तादाद में दूसरे राज्यों से आए लोगों के नाम भी सूची से गायब हैं और एनआरसी की प्रक्रिया पर भी गंभीर सवाल उठ रहे हैं.
उधर राजनीति के गिद्धों के लिए यह एक सुनहरा मौका है. वे इस आंकड़े को हथियार बनाकर नफरत का माहौल तैयार करने में लग गए हैं. दूसरे राज्यों से यहां आ बसे ऐसे लाखों नागरिक हैं, जो जरूरी कागज जमा नहीं कर पाने या कर्मचारियों की लापरवाही या नस्लभेद की मानसिकता के चलते सूची से खारिज हो गए हैं. ऐसे लाखों भारतीयों को अवैध विदेशी नागरिक मानना उनको अपने ही देश में मौलिक अधिकारों से वंचित करने जैसा होगा. कुछ राजनीतिक दल यही गलती कर रहे हैं, जिसका गंभीर खामियाजा देश को भविष्य में भुगतना पड़ सकता है.
विद्यापति चेतना समिति, गुवाहाटी के संयुक्त सचिव सत्येन्द्र कुमार झा ने इस संवाददाता को बताया कि ‘मैं बिहार के मधुबनी जिले का रहने वाला हूं. मैंने एनआरसी फॉर्म में 1968 का पिताजी के नाम से जमीन का दस्तावेज, सेना से रिटायर अपने ससुर का दस्तावेज, उनके पिता का 1963 का जमीन का दस्तावेज आदि लिगेसी डेटा के तौर पर जमा करवाया. फिर भी एनआरसी मसौदे में हमारा नाम नहीं आया. मेरे तीन बच्चे हैं, जिनका जन्म असम में ही हुआ है. उनका जन्म प्रमाणपत्र, स्थायी आवासीय प्रमाणपत्र, दसवी-बारहवीं के प्रमाणपत्र भी मैंने जमा कराया था, लेकिन सूची में उनके नाम भी नहीं हैं. मैंने मतदाता पहचान पत्र, पैनकार्ड, आधार कार्ड, बैंक पासबुक आदि सबकुछ जमा कराया था. अब यह पता नहीं चल पा रहा है कि सारे जरूरी कागजात जाम कराने के बाद भी हम मसौदे से क्यों बाहर हो गए हैं.’
कुछ दे दीजिए काम हो जाएगा
इसी तरह असम के डिगबोई नगर में दशकों से रहने वाली लेखिका नूतन पांडे ने अपने फेसबुक पोस्ट में लिखा है- ‘आज असम में एनआरसी (राष्ट्रीय नागरिकता प्रमाण पत्र) रिलीज किया गया. हमलोगों का नाम नहीं है. असम में हम जैसे लोगों से भी भारतीय होने का प्रमाण मांगा गया था, जो इसी देश के दूसरे राज्यों के रहने वाले हैं. इन्हें 1970 के पहले से भारत में हमारे रहने का प्रमाण चाहिए. हमने अपने पिता की पुत्री होने के प्रमाण के तौर पर जमीन का रसीद जमा कराया, जो 1970 के पहले कटवाया गया था. आगे कहानी कुछ इस तरह है- एक दिन चार सज्जन हमारे घर आए. उन्होंने कहा कि हम एनआरसी के कागज की जांच के लिए आए हैं. मैंने उन्हें अपने और अपने पति सुनंद के जमा किए गए कागजों की स्कैन कॉपी लाकर दिखाई. बातें असमिया में हो रही थीं…
मूल कागज नहीं है क्या?
नहीं…
यहां तो मूल देना होगा
नहीं, हम मूल तो नहीं ला सकते. हम बिहार से कागजात मंगवाए हैं और जॉइंट प्रॉपर्टी का मूल दस्तावेज कोई कैसे भेज सकता है.
कोई बात नहीं हम कुछ कर देंगे
फिर हमने उनसे उनका परिचय पूछा. उनमें से एक व्यक्ति ने सबका परिचय बताया- हम दो लोग तिनसुकिया से हैं, वहां टीचर हैं, ये डिगबोई टाउन कमिटी से हैं और ये सरकारी कर्मचारी हैं. पुनः सबने एक बार हमारे पेपर्स को देखा और उठकर खड़े हो गए (उनमें से तीन बैठ कर पेपर चेक कर रहे थे और एक खड़ा था). जो व्यक्ति अब तक खड़ा था, वो आराम से बैठ गया एवं शेष तीन गाड़ी के पास जाकर खड़े हो गए. इस चौथे व्यक्ति ने बड़े ही विनम्र भाव से कहा-
कुछ दे दीजिए, काम हो जाएगा.
अब हमारे चौंकने की बारी थी- मतलब?
यही कुछ चाय-पानी के लिए.
यह सुनकर हमने उन्हें चार बातें सुनाईं और हम समझ गए कि एनआरसी में हमारा नाम अब शामिल नहीं होनेवाला, खुराक जो नहीं दिया हमने. उसके बाद जब भी हमने चेक किया, तो लिखा मिला कि जांच के लिए भेजा गया है और आज जब फाइनल लिस्ट आया, तो उसमें हमारा नाम नहीं है. अब कई प्रश्न हैं…
1) जिसकी कई पुश्तें भारत में रही हैं और जो खुद भारत में जन्मा उसे 60 वर्ष की उम्र में भारतीय होने का प्रमाण असम में देना होगा?
2) क्या असम में बिहार का कागज मान्य नहीं है?
3) क्या चाय-पानी का पैसा देने पर हमारा कागज जांच से मुक्त हो जाता?
4) बिहार में किस कार्यालय के कर्मियों को फुर्सत है कि वे असम से भेजे गए इतने पुराने कागजात की जांच करें?
5) सबसे दुख की बात यह है कि जांच के लिए आए सभी सज्जन प्रतिष्ठित पदों पर हैं, उनमें से दो लोग शिक्षक थे. हमारे देश के शिक्षक अगर ऐसे हैं, फिर आगे तो भगवान ही मालिक है.’
संस्थाएं या सरकार भले ही आश्वासन दे रही हैं, लेकिन भारी तादाद में सुरक्षा बलों को तैनात कर भय और आशंका का वातावरण तैयार कर दिया गया है. जब पहले मसौदे का प्रकाशन हुआ, उस समय भी बड़ी तादाद में सुरक्षा बलों को तैनात किया गया था और इस बार भी वैसा ही किया गया है. इससे साफ पता चलता है कि सरकार की नीयत में खोट है. खुफिया एजेंसियों की मदद से सरकार आसानी से जमीनी सच्चाई का अनुमान लगा सकती है. जिस समय हिंसा की बिल्कुल संभावना नहीं हो, उस समय चारों तरफ सुरक्षा बलों को तैनात करने का अर्थ आम लोगों के मन में दहशत पैदा करना ही हो सकता है.
अहम कार्य को हड़बड़ी में निपटाने की कोशिश
एनआरसी तैयार करने की पूरी प्रक्रिया को लेकर मीडिया में सवाल खड़े किए जाते रहे हैं. इतने अहम कार्य को जिस हड़बड़ी में निपटाने की कोशिश की गई है और दस्तावेजों को लेकर जो व्यूह रचना की गई है, उसके चलते अनेकों गरीब सूची में दर्ज होने से वंचित रह गए हैं. वैसे आश्वासन दिया गया है कि सूची से वंचित रह गए लोगों को अपनी नागरिकता साबित करने के लिए 30 अगस्त से 30 सितंबर 2018 तक एक महीने का समय दिया जाएगा.
लेकिन दस्तावेजों को लेकर अपने ही देश में सरकारी तंत्र के अंदर जिस तरह का भ्रष्टाचार व्याप्त है, उसे देखते हुए यह समय पर्याप्त नहीं लगता और पूरी संभावना है कि इतने कम समय में बहुत सारे लोग ऐसे दस्तावेज़ जुटाने में विफल होंगे और फिर उनके साथ शरणार्थियों जैसा बर्ताव शुरू हो जाएगा. एनआरसी प्राधिकरण, असम के तमाम जन संगठन और सरकार भी कह रही है कि मसौदे में जिन लोगों के नाम नहीं आए हैं, वे सभी विदेशी घुसपैठिए नहीं हैं, उन्हें अपनी नागरिकता साबित करने का मौका दिया जा रहा है. विदेशियों की तादाद का निर्धारण अंतिम सूची के प्रकाशन के बाद ही किया जाएगा. इसका अर्थ है कि अंतिम सूची में यह संख्या 40 लाख से घट सकती है. अंतिम सूची के प्रकाशन के बाद भी वंचित भारतीय नागरिक अदालत का दरवाजा खटखटाकर अपनी नागरिकता साबित कर सकते हैं.
एनआरसी मसौदे के प्रकाशन के बाद साम्प्रदायिक शक्तियों ने सोशल मीडिया पर इसे लेकर दुष्प्रचार शुरू कर दिया है. उधर ममता बनर्जी जैसी नेता और अनेक बुद्धिजीवी भी इसपर सवाल उठा रहे हैं. दूसरी तरफ सरकार और संस्थाओं का तर्क है कि ‘मसौदे के प्रकाशन के बाद असम में किसी तरह की हिंसा नहीं हुई है. सूची से बाहर किए गए लोगों को डिटेन्शन शिविरों मे बंदी नहीं बनाया गया है और न ही उनके साथ किसी तरह की मारपीट की गई है.
सभी पहले की तरह स्वाभाविक जीवन जी रहे हैं. असम के संगठनों को इस बात पर ऐतराज है कि राज्य के बाहर के कुछ नेता और पत्रकार असम के मुसलमानों की तुलना रोहिंग्या मुसलमानों से कर रहे हैं. बाहरी शक्तियां बेवजह लोगों के बीच भय और आशंका का वातावरण तैयार कर रही हैं. अभी तक किसी भी व्यक्ति के साथ कोई अप्रिय घटना नहीं घटी है. पूरा यकीन है कि जिनके नाम मसौदे में नहीं आए हैं, वे आगे की प्रक्रिया में अपनी नागरिकता साबित कर पाएंगे. ऐसे बहुत सारे परिवार हैं, जिनके कुछ सदस्यों के नाम सूची में आए हैं और कुछ सदस्यों के नाम छूट गए हैं. ऐसा कर्मचारियों की लापरवाही और जल्दबाज़ी की वजह से हुआ है.’
काल्पनिक आंकड़ा
राजनीतिक पर्यवेक्षकों का मानना है कि गलतियों को सुधारने के बाद जब एनआरसी की अंतिम सूची प्रकाशित होगी, तब उसमें खारिज किए गए विदेशियों की तादाद बेहद कम ही होगी. अब तक वोट बैंक की राजनीति करने वाले विदेशियों के आंकड़े बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते रहे हैं. असम आंदोलन के समय भी वामपंथी विचारकों ने कहा था कि विदेशियों का काल्पनिक आंकड़ा प्रस्तुत कर जन भावनाओं को भड़काने का खेल खेला जा रहा है. उनका कहना था कि विदेशियों का मुद्दा आंदोलन के नेताओं ने अपने फायदे के लिए उछाला था. इसमें कोई शक नहीं कि एनआरसी मसौदे के प्रकाशन और इसपर हो रही सियासत से उन विचारकों की बातों की पुष्टि हो रही है.
एनआरसी के प्रदेश संयोजक प्रतीक हाजेला ने तीव्र विरोध के बीच मसौदे से बाहर हुए लोगों को आश्वस्त करते हुए कहा है कि ‘लोग नए दस्तावेज के साथ अपने नाम को शामिल करने का दावा कर सकते हैं. अब तक दस्तावेजों को बदलने की सुविधा नहीं दी गई थी, लेकिन दावा करते वक़्त लोग अपनी नागरिकता के नए सबूत पेश कर सकते हैं.’ हाजेला ने कहा कि ‘कुल 3.29 करोड़ आवेदकों ने कुल 6.6 करोड़ दस्तावेज जमा कराए थे. इतने बड़े पैमाने पर दस्तावेजों की पड़ताल करना अत्यंत कठिन काम था. इनमें 93 फीसदी लोगों ने लिगेसी डेटा के तौर पर 1951 के एनआरसी रजिस्टर या 1971 से पहले की मतदाता सूची की प्रतिलिपि को प्रस्तुत किया. सभी दस्तावेजों की पुष्टि सम्बन्धित विभागों से कराई गई, जिनमें स्कूल, विश्वविद्यालय, सेना, रेलवे आदि प्रमुख थे. इस काम में 75 हजार अधिकारी लगे थे.
5.5 लाख दस्तावेज ऐसे थे, जिन्हें पुष्टि के लिए दूसरे राज्यों में भेजा गया है.’ दूसरी तरफ, सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से इस महीने के मध्य तक 30 अगस्त से 28 सितम्बर 2018 तक चलने वाली दावा एवं आपत्ति की प्रक्रिया की विधि पेश करने का निर्देश दिया है. रजिस्ट्रार जनरल ऑफ़ इंडिया शैलेश ने मीडिया को बताया है कि 30 दिसंबर 2017 को प्रकाशित एनआरसी के पहले मसौदे में शामिल जिन 1.50 लाख लोगों के नाम दूसरे और अंतिम मसौदे से काटे गए हैं, उन्हें डाक के जरिए अलग से सूचना भेजी जा रही है. उन्होंने कहा कि इस तरह समय पर उन लोगों को सतर्क किया जाएगा. पिछले तीन वर्षों से असम के लोगों ने दो तरह के दस्तावेज जमा करवाए हैं- पहला दस्तावेज 1971 से पहले उनके पूर्वजों की असम में उपस्थिति को लेकर है और दूसरा दस्तावेज पूर्वजों के साथ उनका रिश्ता साबित करने से सम्बन्धित है.
घुसपैठिए बनाम भारतीय
रजिस्ट्रार जनरल ऑफ़ इंडिया शैलेश ने कहा है कि जब तक कोई व्यक्ति विदेशी साबित नहीं हो जाता, तब तक मसौदे से बाहर रह गए लोगों को घुसपैठिया कहना अनुचित होगा. प्रत्येक व्यक्ति को अपने दस्तावेजों को प्रस्तुत करने और साक्ष्य के तौर पर गवाहों को भी साथ लाने का पर्याप्त मौका दिया जाएगा. जब तक ट्रिब्यूनल किसी व्यक्ति को विदेशी घोषित नहीं करता, तब तक उस व्यक्ति के किसी भी अधिकार का हनन नहीं किया जाएगा. जो लोग दावे और आपत्ति की प्रक्रिया से संतुष्टष्ट नहीं होंगे, उनके सामने विदेशी ट्रिब्यूनल में अपील करने का विकल्प खुला रहेगा. शैलेश ने यह भी कहा कि अंतिम सूची प्रकाशित करने की कोई समय सीमा अभी निर्धारित नहीं की गई है. 31 दिसंबर 2018 की तारीख केवल प्रशासनिक दृष्टि से निर्धारित की गई है.
गौरतलब है कि पिछले चार दशकों से इसी विदेशी घुसपैठ के मुद्दे पर राजनीतिक रोटी सेंकी जाती रही है और भावना को उकसाकर स्वार्थ सिद्धि का खेल खेला जाता रहा है. उग्र जातिवाद के पैरोकारों ने प्रत्येक गरीब मुसलमान पर घुसपैठी होने का ठप्पा लगा रखा है और इसी काल्पनिक घृणा के सहारे वे जन भावनाओं को उकसाने का खेल खेलते रहे हैं. अगर शुद्ध एनआरसी का प्रकाशन संभव होता है, तो ऐसे अनगिनत गरीब भाषाई अल्पसंख्यकों को भयमुक्त माहौल में जीने का अवसर मिल सकेगा.
एक संवेदनशील समस्या का हिंदू-मुसलमान बन जाना…-सुरेश त्रिवेदी
भारतीय राजनीति में मुद्दे कभी मरते नहीं. 1985 में असम समझौता हुआ था. तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी और असम के जुझारू युवा नेता प्रफुल्ल कुमार महंता के बीच. आज भले ही सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन पर काम शुरू हुआ हो, लेकिन इस वक्त इसका सर्वाधिक सियासी फायदा भारतीय जनता पार्टी ही उठाने में आगे है. पहली बात तो यह कि एनआरसी बनाने में जिस तरह की हड़बड़ी अपनाई गई, उससे यह रजिस्टर त्रुटियों का पिटारा बन कर रह गया. ऊपर से बिना जांचे, बिना परखे मीडिया और भाजपा ने मिलकर एकमुश्त 40 लाख लोगों को घुसपैठिया बता दिया, मुसलमान बता दिया. यह रिपोर्ट बताती है कि किस तरह से जल्दबाजी में बनाए गए एनआरसी में उन लोगों के नाम भी शामिल नहीं हो सके, जो असम के मूल बाशिंदे हैं. यहां तक कि असम की पहली महिला मुख्यमंत्री सैयदा तैमूर तक का नाम इसमें शामिल नहीं है. इसमें हजारों हिंदुओं के नाम शामिल नहीं हैं. खैर, अच्छी बात यह है कि सरकार की तरफ से अपनी गलती मान ली गई है और त्रुटियों के समाधान की बात कही जा रही है.
भाजपा और उसके समर्थकों का मानना है कि ये 40 लाख लोग अवैध घुसपैठिए हैं, बांग्लादेशी मुसलमान हैं. अब सवाल है कि सरकार इन 40 लाख लोगों के साथ क्या करेगी? क्या इतनी बड़ी आबादी को जिसमें महिलाएं और बच्चे भी हैं, बेघर करके दर-ब-दर भटकने के लिए छोड़ देना मानवीय दृष्टि से उचित है? क्या वैश्विक ताकतें हमें ऐसा करने देंगी? क्या उन्हें जेल में रखा जाएगा? क्या उन्हें गोली मार दी जाएगी? क्या बांग्लादेश उन्हें वापस लेने को तैयार है? बांग्लादेश के एक प्रभावशाली मंत्री का तो यह कहना है कि ‘उनका इससे कोई लेना-देना नहीं है. यह भारत का अंदरूनी मसला है. इस तरह से तो क्या देश के सामने रोहिंग्याओं जैसी एक नई मुसीबत नहीं खड़ी हो जाएगी?’ मुझे मालूम है कि सरकार ऐसा कुछ भी नहीं कर पाएगी और न करना चाहेगी.
लेकिन इसपर शोरशराबा हो, इससे भाजपा को फायदा है. लेकिन यह इतनी बड़ी समस्या है कि इसका समाधान भी जल्द से जल्द तलाशना होगा. मसलन, क्या कुछ शर्तों के साथ इन्हें नागरिकता दी जा सकती है? क्या बिना मतदान का अधिकार दिए, उन्हें देश में रहने दिया जा सकता है? हमें याद रखना चाहिए कि अभी संसद में सरकार सिटिजनशीप (एमेंडमेंट) बिल भी ला रही है. इसके मुताबिक, पाकिस्तान, अफगानिस्तान आदि देशों से आए हिंदू, जैन, सिख शरणार्थियों को नागरिकता देने पर विचार किया जा रहा है. सवाल है कि असम में दशकों से रह रहे मुसलमानों को क्या मिलेगा और यह भी कि आखिर घुसपैठ के लिए जिम्मेवार कौन होता है? क्या हम कभी एक ऐसा तंत्र विकसित कर पाएंगे, जिससे घुसपैठ हो ही न?
मूल असमियों के लिए ताबूत की कील साबित होगा सिटिजनशीप (एमेंडमेंट) बिल: प्रफुल्ल महंता-निरंजन मिश्रा
जिस समय देशभर में एनआरसी पर चर्चा जोरों पर थी, उसी दौरान 6 अगस्त को असम के पूर्व मुख्यमंत्री और असम गण परिषद के अध्यक्ष प्रफुल्ल कुमार महंता सिटिजनशीप (एमेंडमेंट) बिल के विरोध में दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रदर्शन कर रहे थे. असम आंदोलन संग्रामी मंच द्वारा आयोजित इस विरोध-पदर्शन में सिटिजनशीप (एमेंडमेंट) बिल- 2016 को वापस लेने और असम समझौते को लागू करने की मांग की गई. बिल के विरोध वाले नारे लिखे तख्त हाथ में लिए संग्रामी मंच के सदस्यों ने एकसुर में कहा कि जब तक यह बिल वापस नहीं लिया जाता, संग्रामी मंच इसके खिलाफ आवाज उठाता रहेगा. इनका कहना था कि असम पूर्वोत्तर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है और पूरे पूर्वोत्तर में शांति बनी रहे इसके लिए जरूरी है कि असम के लोगों को उनके हक और अधिकार मिले. पड़ोसी देशों से घुसपैठ के जरिए असम में आ बसे लोग आज मूल असमियों के लिए बाधा उत्पन्न कर रहे हैं.
सरकार संसद में जो सिटिजनशीप (एमेंडमेंट) बिल लाने जा रही है, वो मूल असमियों को उनके अधिकारों से पूर्णत: वंचित कर देगा. इस बिल के विरोध में चर्चा को लेकर 7 अगस्त को असम आंदोलन संग्रामी मंच ने दिल्ली के प्रेस क्लब में एक सेमिनार का आयोजन किया, जिसमें असम से जुड़े कई लोगों ने हिस्सा लिया. इस सेमिनार में असम गण परिषद के अध्यक्ष प्रफुल्ल कुमार महंता, वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता और एक रिटायर्ड आईएएस अधिकारी से नेटवर्क-18 के पूर्व संपादक गौरव चौधरी ने बातचीत की. असम की राजनीतिक-सामाजिक पृष्ठभूमि का उल्लेख करते हुए प्रफुल्ल कुमार महंता ने असम समझौते और सिटिजनशीप बिल को लेकर विस्तार से अपनी बात रखी.
दरअसल, सिटिजनशीप (एमेंडमेंट) बिल- 2016 के माध्यम से सरकार एक तरह से अवैध घुसपैठियों की परिभाषा बदलने की दिशा में काम कर रही है. 15 जुलाई 2016 को लोकसभा में पेश हुए इस बिल के जरिए सिटिजनशीप एक्ट- 1955 में संसोधन किया जाना है. इस बिल के पास हो जाने के बाद पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से घुसपैठ कर आए उन सभी हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाइयों को भारत की नागरिकता मिल जाएगी, जो पिछले 6 साल या उससे ज्यादा से भारत में रह रहे हैं.
प्रफुल्ल कुमार महंता ने इस मुद्दे पर ‘चौथी दुनिया’ से विस्तृत बातचीत की. उन्होंने कहा कि भाजपा ने हमें धोखा दिया है. 2016 के विधानसभा चुनाव में जब हमने भाजपा के समर्थन का फैसला किया, तो उस समय हमसे कहा गया था कि केंद्र सरकार असम की समस्या पर गंभीरता से विचार करेेगी. उस समय कहीं भी ऐसी बात नहीं थी कि भाजपानीत केंद्र सरकार सिटिजनशीप एक्ट-1955 में संशोधन करेगी. लेकिन चुनाव बीतने और असम में सरकार बनने के बाद ही इस दिशा में प्रयास होने लगे.
उन्होंने कहा कि यह बिल एक तरह से बांग्ला भाषा को मान्यता दे देगा, जिसके कारण बांग्लादेश से घुसपैठ कर असम में आ बसे लोग बड़े स्तर पर लाभान्वित होंगे और यह मूल असमियों के लिए एक बड़ा नुकसान होगा. हमलोग शुरू से इसका विरोध कर रहे हैं. उन्होंने यहां तक कहा कि अगर अब भी सरकार सिटिजनशीप (एमेंडमेंट) बिल को वापस नहीं लेती है, तो हमारे पास सरकार से समर्थन लेने के सिवाय और कोई चारा नहीं होगा. उन्होंने कहा कि हम आगामी पंचायत चुनाव में भी अकेले ही उतरेंगे. पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा कि हम किसी भी तरह से असम के लोगों के साथ अन्याय नहीं होने देंगे.
जानें क्या है असम अकॉर्ड?
असम अकॉर्ड (समझौता) 1985 में साइन किया गया था. यह अकॉर्ड तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और असम आंदोलन के नेता प्रफुल्ल कुमार महंता के बीच हुआ था. इस अकॉर्ड में सरकार ने भरोसा दिया था कि सरकार इस बात को लेकर काफी चिंतित है कि कैसे असम में विदेशी नागरिकों की समस्या का समाधान किया जाए. इसके बाद इसे लेकर सरकार ने एक लिस्ट तैयार की. इस अकॉर्ड के अनुसार, वो तमाम लोग जो 1 जनवरी 1966 से पहले असम में आए हैं, उन्हें भारत की नागरिकता दी जाएगी. लेकिन जो लोग 1 जनवरी 1966 और 24 मार्च 1971 के बीच असम में आए हैं, उनके मुद्दे को फॉरेनर्स एक्ट- 1946 और फॉरेनर्स ऑर्डर- 1964 के तहत सुलझाया जाएगा.
जो लोग 1 जनवरी 1966 से 24 मार्च 1971 के बीच असम में आए हैं, उनके नाम को चुनाव प्रकिया से बाहर किया जाएगा और वे अगले 10 साल तक न सिर्फ नागरिकता से वंचित रहेंगे, बल्कि उन्हें चुनावी प्रक्रिया में भाग लेने की भी अनुमति नहीं दी जाएगी. इस अकॉर्ड में उन लोगों की समस्या का समाधान भी किया गया, जो 24 मार्च 1971 के बाद असम में आए थे. इसके अनुसार, जो विदेशी असम में 25 मार्च 1971 के बाद आए हैं, उनकी पहचान की जाएगी और उनका नाम हटाया जाएगा. साथ ही ऐसे लोगों को भारत से बाहर किए जाने के लिए भी कदम उठाए जाएंगे. इस अकॉर्ड के साइन होने के बाद माना जा रहा था कि असम में चल रहा प्रदर्शन खत्म हो जाएगा, लेकिन इस अकॉर्ड में कई ऐसी बातें हैं, जिन्हें आजतक लागू नहीं किया गया है. यही वजह है कि यह मुद्दा आज भी लगातार पहले की तरह बना हुआ है.
एनआरसी में पूर्व मुख्यमंत्री तक का नाम नहीं
असम की पहली महिला मुख्यमंत्री सैयदा तैमूर पिछले कुछ सालों से ऑस्ट्रेलिया में रह रही हैं. उन्होंने कहा है कि यह निराशाजनक है कि उनका नाम सूची में नहीं है. पूर्व राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद के परिजन तो समय पर एनआरसी के लिए आवेदन ही नहीं दे सके थे, इसलिए फखरुद्दीन अली के पोते साजिद अली अहमद का नाम भी एनआरसी से बाहर है. बरपेटा जिले के कायाकूची इलाके में रहने वाले मशहूर कवि व सरकारी स्कूल में शिक्षक सफीउद्दीन अहमद (36) का नाम मसौदे में शामिल नहीं है. उनके दो बेटों को भी सूची से बाहर रखा गया है.
अहमद के दादाजी के पिता वर्ष 1952 में राज्य की पहली विधानसभा में ताराबाड़ी सीट से विधायक चुने गए थे. अखिल असम अल्पसंख्यक छात्र संघ की केंद्रीय समिति की सदस्य मौसुमा बेगम (25) का नाम भी एनआरसी से बाहर है. बाल अधिकार कार्यकर्ता और टाटा इंस्टीट्यूट आफ सोशल साइंस से ग्रेजुएशन करने वाली 26 साल की ईशानी चौधरी का नाम भी सूची में नहीं है. वे इस बात से परेशान हैं कि एनआरसी में नाम नहीं होने की वजह से कहीं उनका जेनेवा दौरा तो खटाई में नहीं पड़ जाएगा. उदालगुड़ी जिले के एक शिक्षक और असमिया अखबारों में नियमित रूप से कॉलम लिखने वाले मुसाबीरूल हक का नाम भी एनआरसी से बाहर है. इसी तरह, बराक घाटी इलाके में कछार के विधायक दिलीप पाल की पत्नी अर्चना पाल और कांग्रेस के पूर्व विधायक अताउर रहमान का नाम भी एनआरसी में शामिल नहीं हैं.
पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों तक पहुंची असम की आंच-एस. बिजेन सिंह
30 जुलाई को असम में प्रकाशित राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का व्यापक असर पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में देखने को भी मिला. यह मुद्दा राजनीतिक हो सकता है, लेकिन पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों के लोगों का इससे भावनात्मक लगाव दिख रहा है. लोगों में डर है कि बाहर से आ बसे लोग उनकी जमीनें हथिया लेंगे, इसलिए असम की तर्ज पर बाकी राज्यों में भी एनआरसी लागू करने की मांग हो रही है, ताकि बाहरी लोगों को अलग किया जा सके. पूर्वोत्तर के सीमावर्ती राज्यों में बाहर से आए लोगों की तादाद तेजी से बढ़ रही है. पूर्वोत्तर के ज्यादातर राज्यों में भाजपा की सरकार है. सरकार की मंशा कुछ भी हो सकती है, लेकिन स्थानीय लोगों को एनआरसी ज्यादा पसंद आ रहा है.
बाहर से आए लोगों को रोकने के लिए पूर्वोत्तर के राज्यों अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड और मिजोरम में पहले से ही बंगाल इस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन- 1983 के तहत इनर लाइन परमिट लागू है. मणिपुर और मेघालय में भी इनर लाइन परमिट को लेकर संघर्ष जारी रहा है. भारत के सीमावर्ती देशों के समीप होने की वजह से पूर्वोत्तर में बाहरी बनाम स्थानीय को लेकर हमेशा टकराव रहा है. अब असम सरकार द्वारा एनआरसी मसौदा लाए जाने से पूर्वोत्तर के बाकी राज्यों में भी काफी हलचल मच गई है. देखते हैं, एनआरसी मसौदा प्रकाशित होने के बाद अन्य राज्यों में इसका क्या असर हो रहा है:
मणिपुर : अलग-अलग सामाजिक संगठनों द्वारा मांग उठ रही है कि असम की तर्ज पर मणिपुर में भी एनआरसी लागू हो. इथनो हेरिटेज काउंसिल (हेरिकोन) ने कहा है कि राज्य सरकार, असम की तरह एनआरसी अपडेट कर राज्य पोपुलेशन कमीशन बनाकर तत्काल प्रभाव से राज्य में एनआरसी लागू करे. हेरिकोन के उपाध्यक्ष एल सनाजाउबा मैतै का कहना है कि मणिपुर में अवैध घुसपैठ रोकने के लिए यहां के लोगों ने बहुत कोशिशें की हैं. कई वर्षों से वे सरकारों से अपील करते रहे हैं. छात्र आंदोलन के बाद 22 जुलाई 1980 को मणिपुर स्टूडेंट्स को-ओर्डिनेटिंग कमेटी और राज्य सरकार के बीच बाहरी लोगों की घुसपैठ रोकने के लिए एक समझौता हुआ था.
दुर्भाग्यवश, 38 साल बाद भी राज्य सरकार ने इसे कार्यान्वित नहीं किया. हेरिकोन के उपाध्यक्ष ने इसे लेकर सवाल उठाया है कि असम के एनआरसी मसौदे में शामिल नहीं किए गए 40 लाख लोग अब कहां जाएंगे? बेशक, असम के पड़ोसी राज्यों में ही आएंगे. इस स्थिति में राज्य सरकार को चौकन्ना रहना चाहिए. साथ में सामाजिक संगठनों को भी इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए. राज्य के मुख्यमंत्री के आदेश पर असम से सटे हुए मणिपुर के इलाकों में सुरक्षा बढ़ा दी गई है. डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स एलाइन्स ऑफ मणिपुर (डेसाम) के अध्यक्ष एडिसन ने कहा है कि 23 फरवरी 2017 को राज्य में एनआरसी अपडेट कराने के लिए एक ज्ञापन मुख्यमंत्री को सौंपा गया था. दुर्भाग्य से अबतक सरकार की तरफ से कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है.
राज्य के पुलिस महानिदेशक एलएम खौते ने कहा है कि असम से सटे हुए मणिपुर के जिले जिरिबाम में सुरक्षा व्यवस्था बढ़ा दी गई है. गुवाहाटी-नगालैंड होते हुए मणिपुर आ रहे नेशनल हाईवे 39 और राज्य के सीमावर्ती जिले सेनापती के माउ गेट में भी सुरक्षा कड़ी कर दी गई है. बाहर से आए लोगों की जांच की जा रही है. साथ ही सीमाई नदी जिरि और बराक में भी मणिपुर पुलिस के जवान नाव के माध्यम से पहरा दे रहे हैं. जिरिबाम एसपी एम मुवी ने कहा है कि जिरिबाम रेलवे स्टेशन से 12 किमी दूर स्थित भंगाइचुंगपाव स्टेशन से 300 बाहरी लोगों को जांच कर वापस भेजा गया है. उनके पास पर्याप्त जरूरी कागजात नहीं थे.
अरुणाचल प्रदेश : असम में एनआरसी मसौदा प्रकाशित होने के बाद ऑल अरुणाचल प्रदेश स्टूडेंट्स यूनियन (एएपसू) ने चेतावनी दी है कि पंद्रह दिनों के अंदर अवैध घुसपैठिए अरुणाचल प्रदेश छोड़ कर चले जाएं. इस संगठन को डर है कि असम के एनआरसी मसौदे के बाद अप्रवासियों की अभूतपूर्व संख्या अरुणाचल प्रदेश में घुसपैठ कर सकती है. वैसे भी पूर्वोत्तर के सभी राज्यों को इस मसौदे के बाद बड़ी संख्या में होने वाले घुसपैठ से सतर्क कर दिया गया है. इस छात्र संगठन ने सीमावर्ती क्षेत्र से 1400 अवैध अप्रवासियों को बाहर निकाला है और 1700 घुसपैठियों को अपने कब्जे में लिया है. अरुणाचल प्रदेश के साथ असम की 804 किलोमीटर लम्बी सीमा जुड़ी है. इसलिए भारी मात्रा में घुसपैठ की आशंका है.
इसी कारण ऑल अरुणाचल प्रदेश स्टूडेंट्स यूनियन ने अवैध अप्रवासियों को पंद्रह दिनों के अंदर राज्य छोड़ कर चले जाने की धमकी दी है और उन्हें जल्द-से-जल्द अपने कागजात जुटाने को कहा है, जिनके पास नागरिकता के पर्याप्त सबूत या इनर लाइन पर्मिट से सम्बन्धित कागजात नहीं हैं. एएपसू के अध्यक्ष तोबोम दाई ने कहा है कि हमने ऑपरेशन क्लीन ड्राइव शुरू करने का फैसला लिया है, ताकि अवैध घुसपैठिए को राज्य से निकाला जा सके. इस ड्राइव का नेतृत्व ऑल अरुणाचल प्रदेश स्टूडेंट्स यूनियन करेगा. उन्होंने अपील की कि राज्य के सभी लोग और छात्र संगठन भी इस कार्य में अपना सहयोग दें. साथ ही उन्होंने राज्य सरकार से भी अपील की है कि राज्य में अवैध अप्रवासियों की घुसपैठ रोकने के लिए सरकार तेजू, पासीघाट, बेंडरदेवा, रोइंग आदि जगहों पर अधिक चौकी बनाकर नजर रखे.
मेघालय: असम में एनआरसी मसौदा पेश होने के बाद मेघालय ने असम सीमा पर सुरक्षा बढ़ा दी है. असम से प्रवेश करने वाले अवैध अप्रवासियों की जांच को लेकर जिला अधिकारियों ने आदेश जारी किया है. राज्य के उपमुख्यमंत्री प्रेस्टोन तिनसोंग ने संभावना व्यक्त की है कि एनआरसी सूची से बाहर निकलने वाले लोग मेघालय में घुस सकते हैं. उन्होंने कहा है कि राज्य के सीमावर्ती क्षेत्रों में प्रवेश और निकास बिंदुओं की कड़ी सुरक्षा के इंतजाम कर दिए गए हैं, ताकि अवैध अप्रवासी राज्य में प्रवेश न कर सकें. राज्य की सीमा पर लोगों के आने-जाने के लिए 22 चेकपोस्ट बनाए गए हैं. खासी स्टूडेंट्स यूनियन (केएसयू) ने एक प्रस्ताव मुख्यमंत्री कॉनराड संगमा को भेजा है कि असम की तर्ज पर राज्य में भी एनआरसी की प्रक्रिया शुरू हो.
यूनियन की तरफ से प्रस्ताव में यह जिक्र किया गया है कि राज्य में एनआरसी की लिस्ट जल्द ही निकाली जानी चाहिए, ताकि अवैध घुसपैठियों को राज्य से बाहर किया जा सके. उन्होंने इसके लिए 1971 को कट ऑफ इयर बनाने की बात कही है. इस तरह की प्रक्रिया राज्य के वास्तविक निवासियों की पहचान करने में सहायक सिद्ध होगी और इससे मूल निवासियों के संरक्षण में सहायता मिलेगी. केएसयू ने यह भी कहा है कि राज्य के मूल निवासियों की बेहतरी के लिए सभी सामाजिक संगठनों व सभी वर्ग के लोगों को साथ मिलकर चर्चा करनी चाहिए.
त्रिपुरा : त्रिपुरा में भी एनआरसी की मांग उठ रही है. इस अभियान में सबसे आगे आदिवासी पार्टी इनडिजिनस नेशनलिस्ट पार्टी ऑफ त्रिपुरा (आईएनपीटी) है. वे बांग्लादेशी अप्रवासियों की पहचान करने, उन्हें बाहर निकालने और इनर लाइन परमिट लागू कराने की मांग कर रहे हैं, ताकि ट्राइवल ऑटोनोमस काउंसिल क्षेत्र में बाहरी घुसपैठ को रोका जा सके. पार्टी का कहना है कि एनआरसी लागू कराने के लिए पूरे राज्य में आंदोलन खड़ा करेंगे. लेकिन राज्य की भाजपा सरकार इसे लेकर अब तक स्पष्ट रुख नहीं अपना रही है.
पार्टी के उपाध्यक्ष अनंत देव वर्मा ने कहा है कि हम पहले भी राज्य में एनआरसी लागू करने की मांग कर चुके हैं, लेकिन अब तक इस दिशा में कोई ठोस कार्य नहीं किया गया है. एनआरसी का मुद्दा आते ही राज्य के मुख्यमंत्री बिप्लब देव के जन्मस्थान को लेकर भी चर्चा होने लगी है. लोगों का सवाल है कि क्या बिप्लब देव का जन्म बांग्लादेश में हुआ था?