हम 2016 के चुनाव चक्र की शुरुआत में खड़े हैं. पिछला साल नरेंद्र मोदी के लिए अच्छा नहीं था, क्योंकि पहले दिल्ली में भाजपा की शर्मनाक हार हुई, उसके बाद लालू यादव और नितीश कुमार ने उन्हें बिहार में पटखनी दी. लेकिन यह वर्ष सत्ताधारी दल के लिए अंतराल का वर्ष है. क्योंकि जिन पांच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं उनमें से किसी भी राज्य में भाजपा की कोई खास उपस्थिति नहीं है. दरअसल, मोदी के नेतृत्व में सत्ता पर विराजमान होने के कारण भाजपा हर राजनीतिक बहस पर हावी है. इन पांच राज्यों में पार्टी की बड़ी उपस्थिति नहीं होने के कारण इसकी प्रतिष्ठा कहीं भी दांव पर नहीं लगी हुई है.
तमिलनाडू के चुनावी नतीजों पर राष्ट्रीय दलों का प्रभाव कम रहता है. यह लगभग एक ऑटोनॉमस राज्य है जहां एक ही स्त्रोत से पैदा हुई दो पार्टियों ने राज्य पर अपना एकाधिकार जमा रखा है, जिन्हें कोई चुनौती नहीं दे सकता. यहां पेरियार के उतराधिकारी सदा जारी रहने वाला महाभारत लड़ते रहेंगे.
पश्चिम बंगाल में किसी गैर-बंगाली पार्टी के लिए घुसपैठ करना उचित नहीं है. वामपंथ जिसने दशकों तक बंगाल पर शासन किया और बर्बाद किया, इस बार ममता बनर्जी से हारने के लिए मुक़ाबला करेगा. और इस मुक़ाबले में अपने साथ कांग्रेस को भी रखेगा. गौरतलब है कि जब वामदल यहां सत्ता में थे तो कांग्रेस ने राज्य की किसी भी समस्या का समाधान नहीं किया. तृणमूल कांग्रेस, कांग्रेस की बंगाल इकाई है जो अपनी तरह की गड़बड़ी फैलाएगी लेकिन फिलहाल बंगाल में इसकी पकड़ मज़बूत है.
केरल में कांग्रेस का मुक़ाबला अपने पुराने सहयोगी से है. दोनों पक्षों में विभाजन हुआ है और दोनों पर धांधली के आरोप हैं. लेकिन इस बार यहां वाम मोर्चे की बारी है. जहां तक शासन व्यवस्था की बात है तो किसी को कोई खास फर्क नज़र नहीं आएगा.
इन तीनों राज्यों में भाजपा की उपस्थति कम रहेगी. एायद उसका खाता खुल जाए लेकिन किसी भी स्थिति में आंकड़ा दोहरे अंकों तक नहीं जाएगा. असम एक ऐसा राज्य है जहां भाजपा के लिए उम्मीदें हैं. तरुण गोगोई चौथी बार सत्ता के लिए अपनी किस्मत आजमा रहे हैं, जो कि अद्वितीय है, लेकिन इसके लिए उन्हें इस बार कड़ा मुक़ाबला करना पड़ रहा है. दरअसल इस वर्ष के चुनावों में वे कांग्रेस की सबसे बड़ी उम्मीद हैं. इसके बावजूद उनके लिए संकेत अच्छे नहीं हैं. ऐसा लगता है उनकी चौथी जीत तय नहीं है.
शहरों में रहने वाले बुद्धिजीवियों की ज़मीनी रिपोर्टिंग यह बताती है कि इस बार असम चुनाव के नतीजे चौंकाने वाले हो सकते हैं. हो सकता है कि कांग्रेस न केवल बहुमत हासिल करने में असफल हो जाए बल्कि वह राज्य की सबसे बड़ी पार्टी भी न बन पाए. इससे भी बढ़कर हैरान करने वाली बात यह है कि असम में भाजपा न केवल सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभर सकती है बल्कि वह अपने दम पर बहुमत भी हासिल कर सकती है या फिर उसे गठबंधन सरकार बनाने योग्य सीटें मिल सकती हैं. यदि ऐसा नतीजा आ गया तो यह 2014 के लोकसभा चुनावों से भी अधिक परिवर्तनकारी होगा.
यदि भाजपा असम में जीत जाती है तो वह निश्चित रूप से एक राष्ट्रीय पार्टी बन जाएगी. भाजपा को हमेशा से उत्तर भारत के छोटे व्यापारियों की पार्टी समझा जाता रहा है. भाजपा के लिए अपने आधार से अधिक वोट हासिल करने का अर्थ यह होगा कि उसकी उपस्थिति राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक हो गई है.
अब तक किसी दूसरी पार्टी ने वह प्रतिष्ठा हासिल नहीं की जो कांग्रेस को हासिल थी. आज़ादी के पहले दशक में उसने जम्मू और कश्मीर को छोड़कर देश के हर राज्य में शासन किया. लेकिन कांग्रेस ने अपने अहंकार, पार्टी के अंदर सुधार से इंकार और एक परिवार पर निर्भरता की वजह से वह हैसियत खो दी. शायद यह अच्छा ही हुआ.