देश का मध्यम वर्ग बेहतरी के रास्ते पर है और आपके इर्द-गिर्द मॉल, मोटर गाड़ी, अच्छी सड़कों व विदेशी ब्रान्ड की चमक-दमक है, लेकिन यह उस आदमी की किसी भी तरह से मदद नहीं कर सकतीं, जिसके पास जमीन नहीं है. भूमिहीन श्रमिक अभी भी भूमिहीन श्रमिक ही है और गांव का गरीब व्यक्ति अभी भी गरीब है. वह केवल टीवी पर उभरती हुई तस्वीरों के माध्यम से ही इस चमक को देख सकता है और वह उसके भीतर टीस पैदा करती हैं.
एक बार फिर देश ने स्वतंत्रता दिवस मनाया. हर बार की तरह इस बार भी अखबारों-पत्रिकाओं में स्वतंत्रता दिवस के संदर्भ में लेख लिखे गए. वास्तव में स्वतंत्रता के मायने क्या हैं? यह हम सभी को, फिर चाहे वे राजनेता हों, अन्य लोग हों, औद्योगिक घरानों के मुखिया हों, या सिविल सोसाइटी के लोग हों, सभी को एक बार फिर से इस प्रश्न पर विचार करना चाहिए. क्या हम उसी राह पर चल रहे हैं जैसा कि संविधान में उल्लिखित है या 1952 से लेकर आज तक संविधान के सभी भाग को धीरे-धीरे विकृत कर रहे हैं. विकृत इस रूप में कि कागजों पर तो हम संविधान के मुताबिक चल रहे हैं, लेकिन हकीकत कुछ और है.
उदाहरण के लिए, संविधान में इस बात का उल्लेख है कि सरकार का चुनाव कैसे होता है और उसके कर्तव्य क्या हैं. सरकार की भूमिका क्या हो, यह भी स्पष्ट है कि चुनी हुई सरकार नीतियां बनाए, वह चाहे राजनीतिक हो, आर्थिक हो या सामाजिक, लेकिन उनका क्रियान्वयन प्रशासनिक अधिकारियों के माध्यम से होना चाहिए. इनमें भारतीय प्रशासनिक सेवा व दूसरी सेवाओं के अधिकारी हैं, जो एक कठिन प्रक्रिया के बाद चयनित होते हैं. इन सेवाओं के लिए प्रतियोगी परीक्षाओं के माध्यम से कुशल लोगों का चयन होता है. इसलिए इन नीतियों के क्रियान्वयन के लिए ये अधिकारी सबसे बेहतर साबित हो सकते हैं, लेकिन क्या उनका सही इस्तेमाल हो रहा है? नहीं!
दुर्भाग्य से जो भी राजनीतिक दल चुनकर आए, उन्होंने छोटे-छोटे मुद्दों पर ही अपनी रुचि दिखाई, न कि बड़े व जरूरी विषयों पर. कोई भी राजनीतिक दल उन आधारभूत विसंगतियों को बदलना नहीं चाहता, जो समूचे देश में व्याप्त हैं. उदाहरण के तौर पर, जब विभाजन हुआ, तो दुर्भाग्य से जिन्ना ने विभाजन धर्म के आधार पर किया और पाकिस्तान का निर्माण भारत में रह रहे मुस्लिमों के लिए हुआ, लेकिन उसी दिन से, जिस दिन से विभाजन हुआ, यह बात स्पष्ट हो गई थी कि भारत में उससे ज्यादा मुस्लिम रह गए, जितने कि विभाजन के बाद पाकिस्तान गए. यह क्या दर्शाता है? और जो मुस्लिम भारत में ही रह गए, उन्होंने यहीं पर रहने को क्यों तरजीह दी? क्योंकि महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरु, सरदार पटेल, मौलाना आजाद ने देश की जनता को यह आश्वासन दिया था कि पाकिस्तान एक इस्लामिक राष्ट्र हो सकता है, लेकिन भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बना रहेगा और सरकार देश के नागरिकों के लिए धर्म को कभी आधार नहीं बनाएगी. धर्म एक व्यक्तिगत मसला है. इसका केवल इतना-सा मतलब है कि आप ईश्वर को बस किसी और नाम से याद कर रहे हैं. आप कहीं इसे भगवान कह सकते हैं, कहीं अल्लाह, कहीं जीजस क्राइस्ट, तो कहीं वाहे गुरु. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप उन्हें किस नाम से बुला रहे हैं, लेकिन क्या हम उस भावना के साथ चल रहे हैं? अगर मैं मुसलमान होता (जो कि मैं नहीं हूं) और भारत में रह रहा होता, तो निराश होता, क्योंकि देश के महान नेताओं ने जो वायदा किया था, उसे बाद की सरकारों ने निभाया नहीं. हां, यह सही है कि सबने हमें केवल वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल किया. इस देश की कुल आबादी का 15 प्रतिशत हिस्सा मुस्लिमों का है, लेकिन उनकी सहभागिता क्या है, यह बड़ा सवाल है. भारतीय प्रशासनिक सेवाओं में दो प्रतिशत, भारतीय पुलिस सेवा में दो प्रतिशत और कॉर्पोरेट जगत में तो बमुश्किल एक या दो प्रतिशत. फिर उन्हें क्या हासिल हुआ? साफ है कि मुसलमानों के साथ समानता का व्यवहार नहीं हुआ. उन्हें बराबर के अवसर नहीं मिले. उन्हें शिक्षा नहीं मिल पाई. ज्यादातर मुसलमान आज भी अनपढ़ हैं, अशिक्षित हैं. यह एक दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है. भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है, एक समाजवादी और लोकतांत्रिक देश है. अब यह बेहद जरूरी है कि मौजूदा सरकार संविधान में उल्लेखित नीति निर्देशक सिद्धांतों का पालन करे. यह मायने नहीं रखता कि किसकी सरकार बन रही है. कोई भी सरकार सत्ता में आए, हमें संविधान में उल्लेखित सिद्धांतों पर चलना ही होगा. सरकार को गरीबों के हित में सोचना होगा. छात्रों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, महिलाओं व अल्पसंख्यकों के हितों के बारे में सोचना होगा. कॉर्पोरेट तरीके से चलकर यह हासिल नहीं हो पाएगा.
गरीबी के बारे में जो आंकड़े आ रहे हैं, वे मुझ जैसे व्यक्ति को शर्म से सिर झुकाने को मजबूर कर रहे हैं. मैंने कभी गरीबी नहीं देखी, लेकिन मेरी यह समझ में नहीं आता कि कोई नेता यह कैसे कह सकता है कि पांच रुपये या 12 रुपये में पेट भरा जा सकता है. यह शर्मनाक है. आंकड़े महत्वपूर्ण नहीं है, जरूरी यह है कि हमें गरीबों के लिए जरूर कुछ करना चाहिए.
कांग्रेस पार्टी ने मनरेगा और खाद्य सुरक्षा जैसे कार्यक्रमों की शुरुआत की लेकिन यह न तो व्यवस्थित थी और न ही उन्हें सही ढंग से संचालित किया गया. इन योजनाओं के नाम पर बेशुमार पैसा खर्च हो रहा है. बेशक, यह योजनाएं सही दिशा में उठाया गया कदम है, लेकिन मनरेगा और खाद्य सुरक्षा विधेयक में जिस तरह पैसा बहाया जा रहा है, उसके लिए बड़े आर्थिक आधार की जरूरत है और इसके बिना इसे लागू नहीं किया जा सकता. यह सबसे जरूरी है कि योजना आयोग एक व्यवहारिक नीति बनाए. यह भी सोचना होगा कि हम किस तरह से सबसे निचले तबके या गरीब तबके को मध्यम वर्ग की श्रेणी में ले आएं. अमीर और अमीर हो रहे हैं, यह कोई समस्या नहीं है, लेकिन गरीब अभी भी वहीं है, जहां पहले था, जबकि देश के सकल घरेलू उत्पाद में भी
ब़ढोत्तरी हो रही है.
देश का मध्यम वर्ग बेहतरी के रास्ते पर है और आपके इर्द-गिर्द मॉल, मोटर गाड़ी, अच्छी सड़कों व विदेशी ब्रान्ड की चमक-दमक है, लेकिन यह उस आदमी की किसी भी तरह से मदद नहीं कर सकतीं, जिसके पास जमीन नहीं है. भूमिहीन श्रमिक अभी भी भूमिहीन श्रमिक ही है और गांव का गरीब व्यक्ति अभी भी गरीब है. वह केवल टीवी पर उभरती हुई तस्वीरों के माध्यम से ही इस चमक को देख सकता है और वह उसके भीतर टीस पैदा करती हैं. इस दौर में संविधान के अनुपालन की बेहद जरूरत है.
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