जैसलमेर के पास भादरिया में स्थित है एशिया की सबसे बड़ी भूमिगत लाइब्रेरी
राजस्थान देश के सुंदर और संपन्न राज्यों में है ।यहां का इतिहास शौर्य के पन्नों से पटा हुआ है,कला-संस्कृति-साहित्य यहां की बेमिसाल है,यहां के रजवाड़ों की ख्याति सर्वव्यापी है और यहां की लोक संस्कृति के तो क्या कहने ।मोटे तौर पर राजस्थान को तीन भागों में बांटा जाता है-मारवाड़,मेवाड़ और शेखावाटी ।इन तीनों क्षेत्रों की पेंटिंग्स लाजवाब हैं ।नवलगढ़ में तो मैंने डॉ. डी. एस. जांगिड का अस्पताल बनाम निवास देखा जो शेखावाटी पेंटिंग्स का प्रतीक है ।उनका निवास अस्पताल में ही है ।वहां जितने भी कमरे हैं उनकी साजसज्जा शेखावाटी पेंटिंग्स की झलक प्रदान करती है और डॉ. जांगिड़ बड़े गर्व से इन पेंटिंग्स का बखान करते हैं ।जोधपुर से जैसलमेर-बाड़मेर तक मारवाड़ कहलाता है तो उदयपुर-राजसमन्द का क्षेत्र मेवाड़,शेखावाटी के अन्तर्गत सीकर,झुंझनूं और चूरू आते हैं ।वही चूरू जहां गर्मियों में सबसे ज़्यादा गर्मी पड़ती है तो सर्दी में सबसे ज़्यादा सर्दी ।राजस्थान की धार्मिक एवं अध्यात्मिक राज्य की ख्याति भी है जहां किसी न किसी त्योहार पर मेले लगते रहते हैं जैसे हनुमान जी के जन्मदिन पर सालासर में मेला तो कृष्ण जी से जुड़ी तिथियों पर खाटू श्याम जी और नाथद्वारे पर मेले तो पोखरण के समीप रामदेवरा का मेला।लेकिन आज हम एक अलग प्रसंग की बात करेंगे जिसने देश में ही नहीं एशिया में कीर्तिमान स्थापित किया है ।
जोधपुर से जैसलमेर की तरफ जाते हुए रास्ते में दो प्रमुख पड़ाव पड़ते हैं ।ये हैं तो पोखरण में लेकिन इनका महत्व अलग अलग है। पोखरण में ही दो परमाणु परीक्षण हुए थे-पहला 1974 में जब इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थीं और दूसरा 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में । इन परमाणु परीक्षणों से देश और विदेश में भारत की साख काफी बढ़ गयी थी ।दूसरा पड़ाव भी पोखरण में है बाबा रामदेवरा मंदिर के रूप में । लोक देवता बाबा रामदेवरा की आस्था में हर साल यहां मेला लगता है जिसमें लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं,कुछ तो अपने घरों को खुला छोड़ कर, बिना ताला लगाए, पैदल चलते हुए तो कुछ रेंगते हुए भी ।कह सकते हैं कि हरिद्वार से अपनी कांवड में गंगा जल लाने वाले कांवाडियों जैसा दृश्य होता है । दो बरस से यह मेला नहीं भरा था,इस बरस अगस्त के अंत में भरने की उम्मीद है जिसके लिए बड़ी तादाद में दुकानें लगनी और सजनी शुरू हो गयी हैं ।
पोखरण से जब जैसलमेर की तरफ़ बढ़ते हैं तो रास्ते में भादरिया गांव पड़ता है ।मुख्य सड़क पर दाईं ओर साहित्य की कुछ दुकानों को देखकर लगता है कि यह कोई महत्वपूर्ण स्थान है ।मैं गाड़ी रुकवाता हूं ।साहित्य बेचने वाला दुकानदार बताता है कि यह बाबा हरबंससिंह निर्मल का डेरा है जिन्हें भादरिया महाराज के नाम से जाना जाता है ।थोड़ा सा आगे बढ़ने पर पता चलता कि यहां बहुत बड़ी गौशाला है ।यह सीमवर्ती इलाका है ।अक्सर गायें भटक कर पाकिस्तान बॉर्डर की तरफ चली जाती हैं ।ऐसी गायों को पकड़ कर यहां के गौशाला में लाया जाता है और उनकी पूरी देखभाल की जाती है । 2009 में मैं यहां गया था ।तब इस गौशाला में दस हज़ार से अधिक गायें थीं जिनकी सेवा और देखभाल का बहुत बेहतरीन प्रबंध था । दूसरी बार 2017 में यहां आने पर सभी कुछ बदला बदला सा लग रहा था । सामान्य-सा दीखने वाला शक्तिपीठ भादरिया राय मंदिर अब भव्य भवन बन गया था और श्रद्धालुओं की संख्या भी सत्तर हज़ार बताई गायी ।यह भी पता चला कि गौवंश का आंकड़ा 40 हज़ार पार कर गया है ।जैसलमेर की तरफ जाने वाले इस मंदिर में माथा टेकना नहीं भूलते ।इसे आप तीसरा और महत्वपूर्ण पड़ाव कह सकते हैं ।
यह भी बताया गया कि स्वयं बाबा जी पूरे गौशाला के कई चक्कर लगाते हैं ताकि उनकी देखभाल में किसी तरह की कोताही न बरती जाये । इन गायों के दूध का पूरा सदुपयोग होता है । बाबा का आदेश है कि जो भी व्यक्ति यहां आये उसे लस्सी पिए बिना न जाने दिया जाये ।उन्हें लोग ‘लस्सी वाले बाबा’ भी कहते हैं ।इस बाबत एक प्रसंग सुनने को भी मिला ।कुछ भादरिया महाराज से मिलने के लिए आये ।बाबा से मिलने के बाद यह कह कर कि वह बहुत व्यस्त हैं,बिना लस्सी पिये ही वहां से निकल गये ।थोड़ी दूर जाने पर उनकी कार यकायक बंद हो गयी ।उनके बहुत कोशिश करने पर भी जब कार स्टार्ट नहीं हुई तो उन्हें अपनी गलती का अहसास हो गया ।वह उल्टे पांव दौड़ते-हांफते भादरिया महाराज के पास गये और उनके चरणों पर गिर पड़े ।बाबा ने उन्हें उठाते हुए कहा कि यह लस्सी यहां का ‘प्रशाद’है,उसको लेने से आप मना कैसे कर सकते हैं ।अब बाबा ने एक की जगह दो गिलास लस्सी पीने के लिए कहा ।लस्सी जब खत्म हो गयी तो भादरिया महाराज ने आदेश दिया कि जाइये,आपकी कार भी स्टार्ट हो जायेगी और जिस काम के लिए आप हड़बड़ी मचा रहे थे,वह भी हो जायेगा ।और बाबा की वाणी सच साबित हुई।।यह भी पता चला कि बाबा बहुत पढ़े लिखे हैं और काफी देर तक समाधि में रहते हैं ।मुझे उनके दर्शन तो नहीं हुए लेकिन लस्सी अलबत्ता पी।
सारे परिसर को देखते हुए अचानक मेरी नज़र वहां भूमिगत में रखी कुछ पुस्तकों पर पड़ी जिन्हेँ आल्मरियों में करीने से सजाया जा रहा था ।उन किताबों के रखरखाव पर एक व्यक्ति नज़र रख रहा था । निवेदन करने पर वह व्यक्ति हमें नीचे ले गया जो पूरी तरह से वातानुकूलित था । यह ज़मीन की सतह से सोलह फीट नीचे भूमिगत में निर्मित ग्रंथालय था,देश में अपने किस्म का अनोखा और असाधारण भूमिगत पुस्तकालय ।बेशक भादरिया महाराज ने 1983 में इस भूमिगत लाइब्रेरी की नींव रख दी थी और 1998 में वह काफी हद तक तैयार भी हो गयी थी लेकिन यह कार्य इतना दुर्गम, विशाल,विस्तृत, चुनौतीपूर्ण और महत्वाकांक्षी है जो निरंतर चलते रहने वाला है। 2009 में मैंने लाइब्रेरी का एक चक्कर लगाया ।कुछ किताबों पर नज़र भी डाली ।मेरे साथ चल रहे व्यक्ति ने बताया कि बाबा जी इसे ऐसा स्वरूप देना चाहते हैं जो भारत में तो उत्कृष्ट हो ही दुनिया में नहीँ तो एशिया महाद्वीप में उसका कोई सानी न हो ।मुझे बताया गया कि विश्व का कोई ऐसा विषय नहीं है जिसपर यहां ग्रंथ उपलब्ध न हों।विज्ञान,खगोलशास्त्र, से लेकर इतिहास,वेदों की संपूर्ण शृंखला, आयुर्वेद ,पुराण,उपनिषद,सभी धर्मों के ग्रंथ।केवल हिंदी और अंग्रेज़ी ही नहीं अपितु संस्कृत,फारसी,उर्दू,तमिल आदि भाषाओं के दुर्लभ ग्रंथ भी ।बाबा को वहां के लोग भादरिया महाराज कहा करते थे ।इस भूमिगत लाइब्रेरी में काफी पुस्तकें भेंट मेँ प्राप्त हुई थीं लेकिन एक करोड़ रूपए से अधिक की लागत से खरीदी भी गयी हैं ।भादरिया महाराज ने यूरोप की यात्रा कर विभिन्न विषयों पर कुछ नायाब पुस्तकें भी मंगायी थीं ।भादरिया महाराज से जब पूछा जाता कि इस रेगिस्तानी इलाके में क्यों कोई शोधकर्ता या विद्वान आयेगा उनका उत्तर होता था कि जब किसी ज्ञान पिपासु और शोधकर्ता को एक स्थान पर ही उसकी ज़रूरत का सारा साहित्य उपलब्ध होगा, वह दूसरी जगह भला क्यों भटकेगा ।एक अनुमान के अनुसार इस समय इस ग्रंथालय में नौ से दस लाख पुस्तकें,दुर्लभ सामग्री और ग्रंथ मौजूद हैं ।
भादरिया महाराज की पृष्ठभूमि के बारे में जब मैंने दरयाफ्त किया तो लाइब्रेरी में काम करने वाले एक सज्जन ने बताया कि भादरिया बाबा का जन्म 1930 में पंजाब के फिरोजपुर में हुआ ।वह संन्यासी हैं ।एक बार वह यहां शक्तिपीठ भादरिया राय मंदिर में दर्शन करने के लिए आये थे। देर हो जाने पर रात को वह मंदिर में ही टिक गये थे ।विश्वास किया जाता है कि रात को भादरिया मां ने उन्हें दर्शन दिये और कहा कि यहां रहकर ही मानवता की सेवा करो ।तभी से वह यहीं पर हैं और हरबंस सिंह निर्मल से भादरिया महाराज बन गये हैं ।उन्हीं की सरपरस्ती में यहां सारा सामाजिक और धार्मिक कामकाज होता है ।लोगों को नशे से मुक्त कराने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है ।
मैं डालमिया सेवा ट्रस्ट के सौजन्य से 1997 से हर माह राजस्थान आया करता था। ट्रस्ट की ओर से चिकित्सा शिविर लगते हैं ।मैं समाजसेवी उद्यमी संजय डालमिया के प्रतिनिधि के तौर पर शिविर स्थलों का निरीक्षण करने के लिए आता था ।ऐसे ही जोधपुर से जैसलमेर जाते हुए भादरिया के मंदिर में दर्शन करने और भूमिगत लाइब्रेरी को देखने के लिए रुक गया ।एक बार फरवरी 2010 को जब मैं जोधपुर में था तो मुझे खबर लगी कि भादरिया महाराज अस्वस्थ हैं और उन्हें किसी अस्पताल में दाखिल कराया गया है मन में उनसे मिलने की उत्कट इच्छा हुई ।अभी उनसे मिलने का मैं मन बना ही रहा था कि सूचना मिली कि उन्हें वापस भादरिया ले जाया गया है,संभवतः उनका देवलोकगमन हो गया था ।दूसरी बार भी मैं उनके दर्शनों से वंचित रह गया ।
भादरिया महाराज अपने पीछे भूमिगत पुस्तकालय के रूप में जो विरासत छोड़ गये हैं उसका लाभ केवल राजस्थान के विश्विद्यालयों के शोधकर्ता और ज्ञान पिपासु ही नहीं उठाते बल्कि देश के अन्य भागों से आने वाले विद्वान भी इस अद्भूत लाइब्रेरी का लाभ उठाते हैं । यह भूमिगत ग्रंथागार दो भागों में विभाजित है : एक अध्ययन के लिए और दूसरा पुस्तकों के संग्रह के लिये । अध्ययन हाल इतना बड़ा है कि उसमें एक साथ चार हज़ार शोधकर्ता और विद्वान बैठकर अध्ययन कर सकते हैं । 562 कांच की अलमारियों में रखी इन पुस्तकों और ग्रंथों में निस्संदेह आपकी रुचि वाले विषय की पुस्तक ज़रूर होगी । एक बार इस नायाब भूमिगत वातानुकूलित पुस्तकालय को देखना तो बनता है ।यह भूमिगत पुस्तकालय देख मुझे अनायास अमेरिका के बर्कले की याद हो आयी। 1979 में जब मैं वहां गया था तो वहां भी एक अति विशाल भूमिगत लाइब्रेरी देखने का अवसर प्राप्त हुआ जो भादरिया की लाइब्रेरी से कई गुना बड़ी थी ।पहली बार मुझे अहसास हुआ कि बेसमेंट का का इस्तेमाल किस तरह रचनात्मक ढंग से किया जा सकता है ।
मुझे इस बात पर नाज़ है कि राजस्थान के धुर गांवों-ढाणी तक जाने का अवसर मिला है । 1968 में मैं पहली बार खादी ग्रामोद्योग के सौजन्य से एक हफ्ते के लिए कार से राजस्थान के मारवाड़ और मेवाड़ देखने का अवसर मिला जबकि 1992 में पैलेस ऑन व्हील्स से मारवाड़ और मेवाड़ के अतिरिक्त सवाई माधोपुर और भरतपुर भी देखने को मिले, हालांकि ‘दिनमान’में रहते हुए ये दोनों क्षेत्र पहले मैं देख चुका था।लेकिन सही मायने मेँ राजस्थान मंथन मैंने डालमिया सेवा ट्रस्ट से जुड़ने के बाद किया – 1997 से 2017 तक। इसी दौर में मुझे कई बार भादरिया गांव और शक्ति पीठ के दर्शन करने के अवसर मिले।
राजस्थान के इस थार मरुस्थल की भीषण गर्मी में कदम कदम पर जहां परेशानियां मुंह बाय खड़ी रहती हैं वहां यह भूमिगत वातानुकूलित पुस्तकालय सुकून प्रदान करता है ।थार मरुस्थल भारत और पाकिस्तान के दो लाख किलोमीटर में फैला हुआ है । इसमें करीब 62 प्रतिशत क्षेत्र राजस्थान में पड़ता है ।इसकी जद में जोधपुर, जैसलमेर,बाड़मेर, हनुमानगढ़, श्रीगंगानगर ,बीकानेर आदि इलाके आते हैं जबकि पाकिस्तान का सिंध और कुछ पश्चिमी पंजाब के हिस्से । बीच बीच में नखलिस्तान देखने को मिल जाते हैं जैसे भादरिया गांव और वहां स्थित शक्तिपीठ भादरिया राय मंदिर, गौशाला और भूमिगत लाइब्रेरी ।आजकल एक तरफ थार मरुस्थल से तेल और गैस की खोज हो रही है तो कुछ लोग इस्राइल से शिक्षा प्राप्त कर अपनी बालू वाली ज़मीन को ज़रखेज बनाने के काम में जुटे हुए हैं । बावजूद इनके भादरिया लाइब्रेरी के प्रति आकर्षण लगतार बढता जा रहा है ।सुना तो यह भी जाता है कि कुछ विदेशी बौद्धिक,विद्वान,जिज्ञासु और ज्ञान पिपासु भी इस पुस्तकालय का लाभ उठा रहे हैं ।कहा भी जाता है कि ज्ञान की प्राप्ति के लिए जिज्ञासु के मार्ग में आने वाले अवरोध,व्यवधान और अड़चनें उसके लक्ष्य प्राप्ति के आड़े नहीं आ सकतीं।