जेल की सलाखों के पीछे बिताए चौदह साल की कहानी सुनाते-सुनाते मोहम्मद आमिर की आंखें भर आती हैं और आवाज़ भर्रा जाती है. वह कहता है कि फरवरी 1998 की एक रात को वह दवा लेने अपने घर से निकला था, तभी उसे गिरफ्तार कर लिया गया था. उसपर यह आरोप लगाया गया था कि दिल्ली और दिल्ली के आसपास 1996-97 में जितने भी बम धमाके हुए थे, उनमें उसका हाथ था. उस समय आमिर की उम्र 18 साल थी. उस पर टाडा या पोटा के तहत मुकदमा दर्ज नहीं हुआ था, बल्कि भारतीय दंड संहिता की आम धाराओं के अंतर्गत उसे गिरफ्तार किया गया था. वह कहता है कि थर्ड डिग्री टार्चर कर उसे ज़बरन गुनाह कबूल करवाया गया था. उसे जान-बूझकर झूठे आरोप में गिरफ्तार किया गया था. बहरहाल चार्जशीट दाखिल करने और अदालती कार्रवाई में एक निर्दोष नौजवान, जिसने जीवन की दौड़ में अभी क़दम भी नहीं रखा था, को सुप्रीम कोर्ट से बाइज्जत बरी होने में जीवन के 14 बहुमूल्य साल जेल की काल कोठरी की भेंट चढ़ गए. आमिर कहता है कि इंसान अपने ऊपर हुए जुल्म और दर्द को सह लेता है, लेकिन परिवार पर जो बीतती है, वह असहनीय है और यह चीज़ दुनिया की नज़र से छिपी होती है. यह बात कहते-कहते उसकी आवाज़ भर्रा जाती है कि मेरे वालिद जब नमाज़ पढ़ने जाते थे, तो उनके परिचित भी उनसे मुंह मोड़ लेते थे. अगर कोई मेहमान मेरे मां-बाप से मिलने आता था, तो स्थानीय पुलिस उसे थाने ले जाकर पूछताछ करती थी. आमिर के जेल जाने के तीन साल बाद पिता की मृत्यु हो गई. उसकी मां अकेले दस साल तक उसकी बेगुनाही की लड़ाई लड़ती रहीं. फिर 2010 में जेल में रहते ही उसकी मां का ब्रेन हैमरेज हुआ और फिर पैरालिसिस अटैक हुआ और आज से दो साल पहले मां की भी मौत हो गई.
यह दर्द पीपल्स ट्रिब्यूनल के समक्ष पेश देश के अलग-अलग हिस्सों में आतंकवादी वारदातों के आरोप से बरी हुए हरेक शख्स का था. गिरफ्तारी से लेकर रिहाई तक और रिहाई के बाद तक इन सबका अनुभव तकरीबन एक जैसा ही था. इसमें कोई शक नहीं कि आतंकवाद एक बड़ा और संवेदनशील मुद्दा है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि जान बूझकर बेगुनाहों पर इसका आरोप मढ़ दिया जाए और एक सुस्त रफ़्तार जांच और न्यायिक प्रक्रिया अपनाकर उनके जीवन के सबसे सार्थक दिनों को सलाखों के पीछे बिताने पर मजबूर कर दिया जाए. जाहिर है, इसके लिए जहां पुलिस और जांच एजेंसियां ज़िम्मेदार हैं, वहीं हमारी न्यायिक प्रणाली में भी सुधार की जरूरत महसूस की जा रही है. दरअसल ट्रिब्यूनल के समक्ष पेश हुए लगभग सभी लोगों ने न्यायपालिका की तटस्थता की तारीफ की और यह भी माना कि वे आज आज़ाद हैं, तो वह केवल अदालत की वजह से. तो क्या न्यायपालिका से इस संबंध में कुछ सवाल नहीं पूछे जा सकते? भारत की न्याय व्यवस्था इस अवधारणा पर आधारित है कि भले ही सौ अपराधी छूट जाएं, लेकिन किसी एक बेगुनाह को सज़ा नहीं होनी चाहिए. पर यदि किसी बेगुनाह को 23 साल तक जेल में सड़ना पड़ जाए और 23 साल बाद उससे कहा जाए कि तुम निर्दोष हो तो उसे क्या कहा जाएगा.
ट्रिब्यूनल के समक्ष पेश हुए नेसरुद्दीन अहमद को गुलबर्गा कर्नाटक से रेलवे ब्लास्ट केस में गिरफ्तार किया गया था. नेसार कहते हैं कि जब 15 जनवरी 1994 को स्पेशल इन्वेस्टीगेशन टीम ने उन्हें गिरफ्तार किया था, तो वे फॉर्मेसी फाइनल इयर के छात्र थे. उन्हें अपने सभी आरोपों से बरी होने और खुद को निर्दोष साबित करने में 23 साल का समय लग गया. शायद इतना समय नहीं लगता, अगर अदालत ने अपने पहले के फैसलों की बुनियाद पर सबूतों को देखा होता. नेसार को एक इकबालिया बयान (कंफ़ेशनल स्टेटमेंट) की बुनियाद पर इतने दिनों तक जेल में रखा गया. उनका कहना है कि पुलिस के जो जांच अधिकारी थे, उन्होंने एक सिजर मेमो (जब्त किए गए सामान और साक्ष्य की लिस्ट ) तैयार की थी, जिस पर मेरे दस्तखत नहीं थे, बाद में उसी सिजर मेमो को कंफ़ेशनल स्टेटमेंट बना कर मुझे टाडा में बुक कर दिया गया. सिजर मेमो भी उस कंफ़ेशनल स्टेटमेंट के साथ गलती से चार्जशीट में आ गया. अगर यह गलती नहीं होती तो मैं आज यहां नहीं होता. 1996 में हैदराबाद की टाडा कोर्ट ने मुझे टाडा से डिस्चार्ज कर दिया व कंफ़ेशनल स्टेटमेंट को मानने से इंकार कर दिया. राज्य सरकार सुप्रीम कोर्ट गई सुप्रीम कोर्ट ने भी उसे मानने से इंकार कर दिया और टाडा कोर्ट के फैसले को बरक़रार रखा. फिर सीबीआई ने राजस्थान के ट्रेन ब्लास्ट के लिए उसी कंफ़ेशनल स्टेटमेंट को इस्तेमाल कर दस साल तक उस केस का ट्रायल चलाया और उसी के आधार पर टाडा कोर्ट अजमेर ने मुझे उम्रकैद की सजा दी. 2004 में फिर हमने सुप्रीम कोर्ट में उस फैसले को चैलेंज किया और 12 साल की लंबी लड़ाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया कि 1996 हैदराबाद की टाडा कोर्ट ने जो बात इस स्टेटमेंट के संबंध में कही थी, वही सही है. अब सवाल यह है कि जिस इकबालिया बयान को सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही ख़ारिज कर दिया है, उसे फिर से ख़ारिज करवाने में इतना लंबा समय कैसे लग सकता है और कोई निचली अदालत उसकी बुनियाद पर कैसे किसी को सजा दे सकती है?
जहां तक पुलिस के रोल का सवाल है, तो इस ट्रिब्यूनल में मौजूद देश के विभिन्न हिस्सों में हुए आतंकवादी हमलों या आतंकवादी गतिविधियों के आरोपों से बरी अब्दुल वाहिद, शोएब जागीरदार, निसारुद्दीन अहमद, ज़हीरुद्दीन अहमद, डॉ. फारूक मक्दूमी, वासिफ हैदर, अब्दुल अज़ीम और हाजी सलीस सभी लोगों ने यह आरोप लगाया कि पुलिस ने उन्हें टार्चर कर उनसे कंफेशनल स्टेटमेंटस लिए और महज़ अपनी जांच की ज़िम्मेदारी से मुक्त होने के लिए उनके निर्दोष होने के बावजूद उनपर चार्जशीट दाखिल कर दिया. कंफेशनल स्टेटमेंट पर सवाल उठाते हुए वर्ष 2001 में कानपुर ब्लास्ट और एडीएम रेवेन्यू की हत्या के आरोप में गिरफ्तार वासिफ हैदर कहते हैं कि जब कोई आरोपी पुलिस के सामने इकबालिया बयान देता है, तो उसी के ऊपर क्यों मुकदमा चलता है, लेकिन जब वही आरोपी कोर्ट में आकर कहता है कि उसने इकबालिया बयान दिया ही नहीं, तो उसको बिलकुल कंसीडर नहीं किया जाता, ऐसा क्यों? वासिफ आगे कहते हैं, उन्हें अपने मुक़दमे का फैसला लेने के लिए हाईकोर्ट से ऑर्डर लेना पड़ा. मेरे ऊपर 9 आरोप लगाया गए जिनमें से चार राजद्रोह के थे. जब मेरे केस का फैसला आने वाला था, तब पता चला कि चार्जशीट दाखिल करने में सभी प्रक्रियाएं पूरी नहीं की गई हैं और मुकदमा चला दिया गया है, लिहाज़ा अब फैसला टाला जाने लगा. चार साल तक फैसला नहीं आया. फिर हाई कोर्ट से आदेश लेकर आना पड़ा, तब जाकर ये फैसला आया और मुझे अदालत ने बरी किया. अब सवाल यह उठता है कि इस गलती के लिए किसी न किसी पर तो आरोप तय होना चाहिए?
आतंकवाद के मामले में निर्दोष को आरोपी बनाने के मामले में यह कहा जाता है कि पुलिस गलती से ऐसा करती है. लेकिन वासिफ का मानना है कि यह गलती से नहीं होता. वे कहते हैं कि यह स्टेट की पॉलिसी है. राज्य में सरकार बदलने से भी इस पॉलिसी में कोई फर्क नहीं पड़ता. बीजेपी की सरकार में मेरी गिरफ्तारी हुई, समाजवादी पार्टी की सरकार में मुझे सजा मिली और बसपा की सरकार में मेरे ऊपर गैंगस्टर की धारा लगाई गई. वासिफ का यह सवाल भी वाजिब है कि यदि गलती से भी किसी को इतने गंभीर मामले में गिरफ्तार किया जाता है और आरोपी के परिवार को कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है, तो क्या इसके लिए किसी की ज़िम्मेदारी तय नहीं हो सकती? कैसे किसी निर्दोष को वर्षों जेल में सड़ने के लिए मजबूर किया जा सकता है?
जब भी आतंकवाद के आरोप में किसी की गिरफ्तारी की खबर छप जाती है या टीवी पर दिखा दी जाती है तो उसको आतंकवादी मान लिया जाता है. क्योंकि टीवी पर दिखाई गई या अख़बारों में छपी ज्यादातर खबरों में ऐसे मामलों में आरोपी शब्द का प्रयोग नहीं होता, बल्कि सीधे तौर पर गिरफ्तार व्यक्ति को आतंकी कह दिया जाता है. यहां तक कि आतंकवाद के मामलों से बरी हुए लोगों के लिए भी स्थानीय अख़बार आतंकी शब्द लिखने से परहेज़ नहीं करते. कानपुर निवासी वासिफ हैदर कहते हैं कि आठ साल की अदालती कार्रवाई के बाद जब वे अपने ऊपर लगे हुए आरोपों से बरी होकर घर आ गए, तो उसी वक्त बनारस में दो ब्लास्ट हुए. वासिफ का कहना है कि कानपुर से प्रकाशित तथाकथित प्रसिद्ध अखबारों दैनिक जागरण, हिंदुस्तान और अमर उजाला ने यह लिखा कि आतंकी वासिफ जेल से छूट कर आ चुका है. उसका बनारस की घटना में हाथ हो सकता है. और ये कि उसके खर्चे कहां से चल रहे हैं, कौन-कौन उससे मिलने आ रहे हैं. बाद में भी उन्होंने अपनी खबरों में आतंकी वासिफ लिखना बंद नहीं किया. फलस्वरूप मुझे और मेरे परिवार को सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा. बहरहाल बाद में मैंने उन अखबारों के खिलाफ मानहानि का मुकदमा दायर किया, लेकिन अदालत ने कहा कि चूंकि आपके खिलाफ जांच चल रही थी इसलिए उन्होंने आपके बारे में आतंकी लिखा. कानूनी प्रक्रिया में जब तक किसी मामले में आखिरी फैसला नहीं आ जाता, किसी को अपराधी नहीं माना जा सकता है, उसे आरोपी कहा जा सकता है. चूंकि आतंकवाद एक ऐसा गंभीर और संवेदनशील मामला है, जिसमें न सिर्फ आरोपी व्यक्ति बल्कि उससे संबंध रखने वाले सभी लोगों को भी सामाजिक बहिष्कार से लेकर और कई तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. इसलिए मीडिया पर कुछ न कुछ अंकुश लगाने की ज़रूरत है.
आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तार लोगों को हर तरह के सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है. आम तौर पर ऐसे मामलों में नौजवानों को ही गिरफ्तार किया जाता है और उनपर मुकदमा चलाया जाता है. और जब तक वे अदालत द्वारा बरी किए जाते हैं तब तक उनकी उम्र का सबसे बेहतरीन समय खत्म हो गया होता है. तो ऐसे में क्या सरकार को उनके पुनर्वास के लिए कोई क़दम नहीं उठाने चाहिए? 14 साल तक जेल में रहे मोहम्मद आमिर का कहना है कि जब कोई आतंकवादी आत्मसमर्पण करता है तो उसका पुनर्वास किया जाता है, लेकिन पुलिस (सरकार के एक अंग) द्वारा किसी को गंभीर आरोप लगा कर फंसा दिया जाता है और लंबे समय तक उसको जेल में रखा जाता है और जब वह कोर्ट से बरी होता है तो उसके लिए कोई पॉलिसी नहीं है.
इस ट्राइब्यूनल की अध्यक्षता कर रहे दिल्ली हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस एपी शाह ने कहा कि हम सब जानते हैं कि टाडा, पोटा और यूएपीए का जांच एजेंसियों द्वारा अक्सर गलत इस्तेमाल होता है. हमारी पुलिस पक्षपातपूर्ण है. पुलिस सुधार की लंबे समय से मांग होती रही है, लेकिन मैं न्यायपालिका की भूमिका से निराश हुआ हूं. अदालत के संज्ञान में लाने के बाद भी कि साक्ष्यों को गढ़ा गया है और बचाव पक्ष के इस दलील को मानने के बाद भी न्यायपालिका ने पीड़ितों के अधिकार की रक्षा नहीं की. आईसीसीपीआर (इंटरनेशनल कोवनेंट ऑन सिविल एंड पॉलिटिकल राइट) का हवाला देते हुए जस्टिस शाह ने कहा कि भारत आईसीसीपीआर का हस्ताक्षरकर्ता है और आईसीसीपीआर में प्रावधान है कि यदि कोई व्यक्ति गैरकानूनी हिरासत का पीड़ित है, तो उसे मुआवजा हासिल करने का अधिकार है. यहां पर अपनी बात रखने वालों में से बहुतों ने कहा कि वे सामाजिक तौर पर अलग-थलग पड़ गए हैं. उनके लिए नौकरी की संभावना समाप्त हो गई है. सुप्रीम कोर्ट कहता है कि जीवन का अधिकार केवल जिंदा रहने का अधिकार नहीं है, बल्कि मर्यादित जीवन जीने का अधिकार है. लिहाज़ा अगर गलत मामलों में उनकी मर्यादा छीनी गई है तो उसे वापस की जानी चाहिए. वहीं दूसरे जूरी मेंबर और नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार प्रो. जीएस वाजपेयी ने कहा कि ‘जो लोग मुक़दमे से बाइज्जत बरी हो चुके हैं और जो लोग अब भी जेलों में बंद हैं, इन सब मुक़दमों का डिटेल स्टडी करना चाहिए और पूरी तैयारी के साथ जनहित याचिका दायर करनी चाहिए.’ बहरहाल, आतंकवाद या इस तरह के मामले जिनमें आरोपियों को ज़मानत नहीं मिल सकती, के लिए अदालती प्रक्रिया को त्वरित बनाने की आवश्यकता है, ताकि किसी निर्दोष को बहुत दिनों तक जेल में कैद नहीं रहना पड़े और दोषियों को जल्द से जल्द सजा मिल सके. साथ में सबूत गढ़ने और झूठे मुकदमे दायर करने वाले जांच अधिकारियों की ज़िम्मेदारी तय करनी होगी. साथ ही जो लोग अदालत से बरी हुए हैं, उनका पुनर्वास भी होना चाहिए.