कोरोना हमसे बहुत से लोगों को छीन रहा है। हाल ही पत्रकार अरुण पाण्डेय को हमसे छीन लिया। अरुण को ओम थानवी ने याद किया। उर्मिलेश जी ने और आलोक जोशी ने याद किया। अरुण पाण्डेय का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था जो सौम्य तो था ही, आकर्षक भी था। वह नामी गिरामी नहीं था पर शांत और अकेले में वह कुछ ऐसा था जो हर समय और हर जगह अपनी मौजूदगी दर्ज कराता चलता था। अरुण के व्यक्तित्व पर बात करते हुए आप ‘आनंद’ फिल्म के नायक को याद कर सकते हैं।
मैं अरुण को नब्बे के दशक से याद करता हूं जब वह मेरे लिए एक छोकरा ही था और उसके बाद अचानक उसे अजीत अंजुम के साथ बंगाल चुनाव के दौरान बंगाल में देखा। टीकरी बार्डर पर भी अजीत अंजुम के साथ रहा। इतने अंतराल के बाद उसे देखना मेरे लिए सुखद आश्चर्य था। इसलिए कि 2000 के बाद से मैं दिल्ली से कट गया हूं। लेकिन मैं जानता हूं अरुण का दायरा बहुत विशाल रहा है।
अरुण पाण्डेय की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि वह एक बार जिससे मिल लेता था तो वह व्यक्ति उसका चहेता बन जाता था। उसे मैंने काम में डूबते हुए देखा। बड़े बड़े लोगों को उसे सलाम करते देखा। याद आता है सहारा में जब सीढ़ियां चढ़ कर उदयन शर्मा ऊपर आते थे तो अपने कमरे में घुसने से पहले अरुण पाण्डेय को सलाम बजाते थे और अरुण उन्हें देखते ही खिलखिलाते हुए खड़ा हो जाता था। उदयन शर्मा तब सहारा के संपादक हुआ करते थे। अक्सर शाम को अरुण पाण्डेय नोएडा में मेरे घर चाय पीने आया करता था क्योंकि मेरा घर सहारा के सामने ही था।
अरुण पाण्डेय के साथ कई लोगों के घर जाना हुआ जिनमें डा. नामवर सिंह, डा. रामविलास शर्मा, नीतीश कुमार, खुशवंत सिंह जैसे नाम प्रमुख थे। चन्द्रशेखर के भौंडसी आश्रम में तो तीन चार बार हम गये। हर जगह मैंने पाया अरुण की मौजूदगी कुछ अलग और निराली ही थी। खिलखिलाने का अंदाज ऐसा कि सामने वाला भी चहक उठे। अरुण पाण्डेय ने जब ‘सूचना के अधिकार’ (यानि जानने का अधिकार) पर पुस्तक लिखी तब उसने मुझसे कहा था आपका हिंदी पर अच्छा कमांड है, इसलिए मैं चाहता हूं कि आप मेरी पुस्तक को पढ़ें और हिंदी की त्रुटियों और प्रूफ की दृष्टि से जो भी संभव है, सुझाएं। दरअसल हम दोनों में पूरब और पश्चिम (इलाकों) का भेद था।
मैंने वह पुस्तक पूरी पढ़ी और जहां तक संभव हुआ करैक्शन किए। इसका जिक्र मेरे नाम सहित अरुण पाण्डेय ने पुस्तक की भूमिका में किया है। वह पुस्तक आज भी मेरे पास सुरक्षित है। उर्मिलेश जी को वह नहीं मिल पा रही है। वे चाहें तो मुझसे ले सकते हैं। सहारा के ‘हस्तक्षेप’ को अरुण ने स्थापित किया। लेकिन वह उससे आकर जुड़ा था। अरुण के पहले से ही इस पर काम चल रहा था। लेकिन उसने जो पकड़ा तो कमाल ही कर दिया।
यह अलग है कि दो चार साल बाद यही हस्तक्षेप स्टीरियो टाईप लगने लगा था। पर शुरुआती सालों में उसने देश भर के मीडियाकर्मियों और पाठकों के बीच जो झंडे गाड़े उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। यह अरुण पाण्डेय का कमाल था। उसकी पत्नी पुतुल भी उतनी ही सौम्य है। दो चार बार उसके यहां जाना हुआ। ऐसे व्यक्तित्व बेमिसाल हुआ करते हैं जो परदे के पीछे रहते हैं और वहीं से वे अपनी दमदार दस्तक देते हैं।
सहारा में आने से पहले वह इलाहबाद में कितना लोकप्रिय हो चुका था इसका जिक्र उर्मिलेश जी ने किया ही है। उसका चुंबकीय व्यक्तित्व हर उस व्यक्ति के लिए महत्व का रहा, जो उससे परिचित था। ऐसे व्यक्ति का इस तरह कोरोना के प्रकोप से चुपचाप चले जाना अंदर तक भेद गया होगा हर किसी को। अब तो केवल स्मृति शेष है, वह रहेगी ही।
अब कुछ सप्ताह के कार्यक्रम
यूट्यूब संतोष भारतीय के साथ क्या और क्यों खेल कर रहा है। समझ से परे है। कल ‘लाउड इंडिया टीवी’ के आफिस से पता चला कि यूट्यूब ने स्वीकृति देने के बावजूद पुन: ‘लाउड इंडिया टीवी’ को बंद कर दिया हमेशा के लिए। आखिर क्यों। ऐसा क्या संतोष भारतीय दे रहे थे जो दूसरे लोग नहीं दे रहे। ‘अन साइंटिफिक’ क्या होता है ? मलियाना और हाशिम पुरा में बरसों पूर्व हुई हिंसा पर तब के गाजियाबाद के एसपी रहे विभूति नारायण राय की पुस्तक आयी है। उस पर एक बेहतरीन चर्चा लाउड इंडिया टीवी पर हुई। यह कार्यक्रम यूट्यूब पर था। लेकिन इस एक कार्यक्रम के बाद सुना फिर चैनल पर हमेशा के लिए प्रतिबंध लगा दिया गया। चर्चा में संतोष भारतीय और राय के अलावा कुरबान अली और अशोक चव्हाण भी थे। सुनने लायक चर्चा थी। संभवत: इसी प्रतिबंध के चलते अभय कुमार दुबे का लाउड शो भी नहीं आ रहा। अभय जी का विश्लेषण बड़ा काम का हुआ करता है।संतोष जी अशोक चव्हाण के साथ ‘देश के क्राइसिस’ पर कार्यक्रम कर रहे हैं। लेकिन अशोक चव्हाण को जब वे स्टार जर्नलिस्ट कहते हैं तो थोड़ा आश्चर्य होता है। स्टार जर्नलिस्ट तो वे हैं जब संतोष जी ‘चौथी दुनिया’ निकालते थे। तब उस समय के पत्रकार स्टार जर्नलिस्ट हुआ करते थे। अशोक चव्हाण स्वयं स्टार जर्नलिस्ट के कहे जाने से हैरान से दिखते हैं। यह दीगर है कि संतोष जी उन्हें स्टार जर्नलिस्ट बना दें।
इधर पुण्य प्रसून वाजपेयी के विश्लेषण भी किसी किसी दिन बड़े काम के होते हैं। ‘ममता का परचम लहराया’ बहुत लाजवाब विश्लेषण था। उसके बाद भी। कुछेक बोर भी होते हैं। पर कतई ऐसे नहीं होते कि उनको सुना न जाए।
वरिष्ठ पत्रकार अनिल त्यागी के ‘ G-files’ के कार्यक्रमों के वीडियो हमें लगातार मिल रहे हैं।
‘प्रेस फ्रीडम’ पर उनका कार्यक्रम रोचक रहा। इधर ‘सत्य हिंदी’ के बीच बीच में बड़े रोचक और ज्ञानवर्धक भी, आप कह सकते हैं, कार्यक्रम प्रसारित हो रहे हैं।कल ही की चर्चा बेहद रोचक थी जिसमें मोदी के संदर्भ में ‘टीना फैक्टर’ पर ममता को लेकर बात की गई। इसमें खास यह था कि पूरा पैनल लगभग नये लोगों का था। शरद गुप्ता की इस बात में दम था कि ममता की उत्तर भारत में स्वीकार्यता कितनी है। नीरेंद्र नागर ने सही कहा कि प्रधानमंत्री उम्मीदवार के लिए अच्छी हिंदी जानना बहुत जरूरी है। फिर भी ममता ने अपनी दस्तक तो दी ही है। उनका विश्लेषण काफी अच्छा था। आधा ही अभी सुनने में आया है।
नीलू व्यास ने सुप्रीम कोर्ट के सीनियर वकील दुष्यंत दवे से इंटरव्यू लिया। हालांकि मैं उसे पूरा नहीं सुन पाया लेकिन जितना सुना काम का लगा। नीलू का ‘आज का एजेंडा’ में गायत्री मंत्र वगैरह से कोरोना गायब हो जाएगा। यह प्रोग्राम भी भाया।
भाषा सिंह का एक वीडियो मिला जिसमें उन्होंने ‘सैंट्रल विस्टा’ और नये प्रधानमंत्री आवास पर कोरोना के समय निरंतर होते काम पर सवाल उठाएं हैं। उर्मिलेश जी ने पांचों विधानसभा चुनावों के बाद के संदेश पर विपक्ष के लिए महती सुझाव रखे। उनका कहना है कि अब किसी एक व्यक्ति को उभारने की बजाय साझा मोर्चा और साझा कार्यक्रम पर जोर दिया जाना चाहिए। बात एकदम सही है। लेकिन तमाम विपक्षियों के एक साथ मिलने पर जो भय होता है वह अब सनातन सा हो गया है।
संविधान विशेषज्ञ फैजान मुस्तफा ‘लीगल अवेयरनेस वेब सीरीज’ चला रहे हैं। आजकल वे हर दिन हर नये मुद्दे पर अपनी बात रखते हैं। उनको सुनना भी बड़ा लाभप्रद होता है। ‘वायर’ में सिद्धार्थ वरदराजन की अपूर्वानंद से बंगाल चुनाव बाद की हिंसा पर वार्ता सुनी। आरफा का कोई वीडियो इन दिनों नहीं आया। किसी मैसेज का जवाब भी नहीं। रवीश कुमार कोविड से जूझ रहे हैं। विनोद दुआ भी इन दिनों ICU में हैं, सुना। बड़ा विचित्र और विकट समय है। न जाने आने वाला समय और कितना त्रासदी दायक होगा, कौन जाने !