कल एक मठ बुद्धि के व्यापारी से बात हुई । मैं अक्सर उससे बात करने से दूर रहता हूं। लेकिन वह मेरी बहुत इज्जत करता है बस इसीलिए।‌ दूर इसलिए कि वह मोदी योगी का कट्टर भक्त है और कांग्रेस, केजरीवाल का कट्टर दुश्मन। ऐसों से बहस करना अपनी ही इज्जत उतरवाना है। फिर भी कल डरते डरते पूछा, बुरा न मानें तो एक सवाल करूं कि मोदी जी अडानी के मुद्दे पर मौन क्यों हैं, जवाब क्यों नहीं दे रहे । सवाल सिर्फ इतना सा है कि उनका अडानी से रिश्ता है या नहीं । बस इसका जवाब दे दें । वह बोला, है न ! मैंने कहा यह तो आप कह रहे हैं मोदी जी क्यों नहीं बोल रहे । मैंने बार बार पूछा तो वह मुस्कुरा दिया। मैंने कहा जनता में इस बात की बेचैनी है। तो उसने कहा, जनता ही जवाब पूछेगी । विकल्प मिलेगा तो जनता ही जवाब देगी । मैं पहली बार उसके मुंह से ऐसी बात सुन कर हैरान था । मैंने कहा, यानी जनता परेशान है न । उसने कहा, है न । सब तरफ से बर्बादी हो रही है जनता को जिस दिन विकल्प मिल जाएगा उस दिन बता देगी। हमको कांग्रेस चलती नहीं, केजरीवाल चलता नहीं । इनको तो नहीं ही देना है । फिर उसने एक बात कही कि मोदी ने जो अच्छे काम किए मैंने बीच में काट कर पूछा एक भी अच्छा काम बताइए। वह बोला, मैं नहीं चाहता कि मेरे बच्चे को आगे चल कर कलमा पढ़ें । सारा मामला बस यही था । वह व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से लबरेज था। एक तरफ परेशान है । जीएसटी का बिल उसकी हैसियत से ज्यादा आया । लेकिन मुसलमानों के मुद्दे पर आकर बात ठहर जाती है।
कल मनीष सिसोदिया को गिरफ्तार कर लिया गया है। मुझे उन लोगों की याद आई जो ‘आप’ को हमेशा बीजेपी की बी टीम बताते रहते हैं । खासतौर से मित्र अनिल त्यागी की। उनसे कुछ पूछिए तो उनका एक ही जवाब होता है आप लोगों को बहुत कुछ अंदर का नहीं पता । पत्रकारों में ही यह सवाल लटक रहा है । एक अनिल सिन्हा हैं मुंह से हवा निकालते हुए वो एक ही भविष्यवाणी कर गये ,देख लीजिएगा बीजेपी आप को एमसीडी सौंप देगी । यह सब नूरा कुश्ती है । धन्य हैं ऐसे पत्रकार । हैरानी तब होती है जब आज के पत्रकारों की भाषा यह होती है कि मुझे लगता है … दिखता तो यही है …. कहा नहीं जा सकता… माफ़ कीजिए मुझे इसकी जानकारी नहीं है …. आदि आदि। किसी जमाने में पत्रकार की कलम और पत्रकार की जुबान पत्थर की लकीर जैसी होती थी। समाज में सबसे ज्यादा विश्वसनीयता पत्रकारों की होती थी ।
आज की राजनीति में विकल्प की बात चौतरफा हो रही है । कल लाउड इंडिया टीवी पर अभय दुबे ने राजनीति और विपक्ष पर जो कुछ कहा वह तो सत्य ही है पर उनका एक मत सदा सवालों के घेरे में रहेगा कि जनता बहुत समझ बूझ कर वोट देती है । वे यह नहीं मानते कि 2014 में जनता ‘हिप्नोटाइज’ हुई थी। बल्कि उनके विचार में जनता ने समझ बूझ कर अपना फैसला दिया था। प्रताप भानु मेहता और पत्रकार शरत प्रधान जैसों ने तो यक़ीनन मोदी जी को समझ बूझ कर ही वोट दिया होगा । ये दो अकेले नहीं हैं। और भी अनेक ऐसे लोग हैं। लेकिन बात उस जनता की है जिसके लिए एक सिद्धांत तय है – ‘कोई होई नृप , हमें का हानि ‘ । क्या यह जनता भी समझती बूझती है। क्या वह जनता भी समझती बूझती रही होगी जिसने इंदिरा गांधी की मौत के तुरंत बाद राजीव गांधी को संसद में 403 का आंकड़ा दे दिया था । पत्रकारों ने कहा वह सहानुभूति का वोट था । क्या लोकतंत्र में अपनी संसद के लिए अपने नीति निर्माताओं या नीति निर्धारकों को भावनाओं (सहानुभूति) के आधार पर चुना जाना चाहिए या समझ बूझ कर। हमारा मानना है कि उस समय यदि जनता ने समझ बूझ से काम लिया होता तो राजनीति में शून्य या राजनीति के अनाड़ी राजीव गांधी कभी चुने नहीं जाते । राहुल गांधी के मामले में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है।‌ राजनीति के परिप्रेक्ष्य में राहुल गांधी खालिस तौर पर अनाड़ी आदमी है । पर हमारे पत्रकार बंधु भी राहुल गांधी के सामने बिछे हुए हैं । राहुल गांधी कोई एक प्रेस कॉन्फ्रेंस अच्छी कर लें, संसद में कोई एक भाषण अच्छा दे दें तो पत्रकार मित्र कई दिनों तक गदगद रहते हैं। ‘सत्य हिंदी’ की चर्चाएं इसीलिए बेमानी हो जाती हैं । पत्रकार, पत्रकार ही नहीं लगते । राहुल गांधी के लिए आमतौर पर माना जाता है कि वे अच्छे, सभ्य, सुशील और अन्य चीजों में पारंगत हैं । लगभग साढ़े तीन हजार किमी की यात्रा मात्र एक टीशर्ट में पैदल पूरी करके राहुल गांधी ने सिद्ध किया है कि वह सामान्य व्यक्ति नहीं हैं । सामान्य से कुछ अलग हैं। और हम तो यहां तक उनको समझदार मानते हैं कि उन्हें स्वयं में यह भान है कि फिलहाल उनमें राजनीति को लेकर आत्मविश्वास की कमी है । अपनी इस कमी को वे अच्छे से जानते समझते हैं । इसीलिए ‘जिद’ से अध्यक्ष पद छोड़ा और गांधी परिवार को पर्दे के पीछे रखने की चाहत दिखाई। यह अलग है कि चापलूस कांग्रेसी गांधी परिवार से अलग कांग्रेस को शून्य समझते हैं। मल्लिकार्जुन खड़गे भी कभी कभी देवकांत बरुआ जैसे दिखने लगते हैं जब वे राहुल गांधी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर देते हैं। सच है किसी के मानस को पढ़ने के लिए तमाम तरह के ‘औरों’ (औरा)से अलग नितांत अकेले में बैठ कर उसे पढ़ना चाहिए। …. विजय विद्रोही सुबह के अखबारों का वाचन करते हैं तो कम से कम उन लोगों को तो ताजगी मिलती है जो दिल्ली से बहुत दूर रहते हैं, क्योंकि अखबार दिल्ली के रहते हैं। राहुल गांधी पर लोगों की राय बताते हुए उन्होंने कहा कि कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि राहुल गांधी को कृष्ण की भूमिका निभानी चाहिए और अर्जुन किसी और को बनाना चाहिए। यह कहते हुए उनके चेहरे पर मुस्कान दिखी । उसके कई मायने हो सकते हैं। आप अंदाज लगाइए। विजय विद्रोही को चाहिए कि वे अखबार उठा कर दिखाने की बजाय कुछ ऐसा करें कि अखबार अलग से ‘विंडो’ में दिखे । यह संभव है।
तो सत्ता से विपक्ष और कांग्रेस तक सवाल ही सवाल हैं। समाधान कहां है, किसके पास है। क्या राहुल गांधी ने रायपुर अधिवेशन में अपने बोर से भाषण में आम कांग्रेसियों से इस बात का आह्वान किया कि हर कांग्रेसी अपने गांव, कस्बे और जिले में जाकर अडानी और मोदी के रिश्तों पर बात करे और तब तक करता रहे जब तक मोदी जी इस विषय पर अपना मुंह नहीं खोलते। आम बुद्धि का इंसान तब तक नहीं चेतता जब तक उसे चेताया न जाए । राजनीति खुद में ठस दिमाग हो चुकी है। राहुल गांधी अपनी कैसी छवि बनाना चाहते हैं पता नहीं। मुझे लगता है किसी ने सुझाव दिया हो सकता है कि आप कुछ हल्की हल्की सी दाढ़ी बढ़ा लीजिए। भाई ने जो बढ़ानी शुरु की उसका तो कोई अंत दिखता नहीं । हम तो राहुल गांधी के लिए बस यही दुआ करते हैं कि काश इस व्यक्ति की वक्तृत्व शैली में जबरदस्त सुधार हो, काश ‘एक्सटेंपोर’ उम्दा शब्दों, मुहावरों, हास्यबोध के साथ उसका वाक्य विन्यास हो । और भाषण कला में निर्बाध सरस्वती का वास हो। अभी तो राहुल गांधी का भाषण होता है तो डर लगता है कि कब कौन सा वाक्य, कौन सी बात और कौन सा शब्द फूट जाए …. जैसे कल के भाषण में सत्याग्रह को सत्यग्राह बोल गए और एक बार नहीं दो तीन बार। वह तो अच्छा है यह शब्द मुद्दा नहीं बना।
मुकेश कुमार ने अरुंधति राय से अपने डेली शो में बातचीत की । अच्छा लगा। लेकिन मुकेश भाई को अरुंधति से उनकी और उन जैसे बुद्धिजीवियों और सिविल सोसायटी के लोगों की भूमिका पर भी सवाल पूछना चाहिए था। वे हर बात में विपक्ष पर ही टिकीं रहीं। अगर विपक्ष सड़क पर नहीं दिखता तो कलमकार और पत्रकार कहां हैं । प्रतिबद्ध प्रबुद्ध समाज कहां है । ये लोग शायद तभी आएंगे जब सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगा दिया जाएगा। लेकिन व्यक्ति जितना सुखी , समृद्ध और सुविधाओं की दुनिया का होता है उतना ही डरा हुआ होता है। मोदी जी ने बीबीसी को इंटरव्यू में अपनी एक ही कमी (मीडिया पर अंकुश) की ओर इशारा किया था। उसको उन्होंने सत्ता पाते ही साध लिया ।
देश के लिए अगले डेढ़ साल का समय चुनौती भरा है। खासतौर पर सत्ता विरोधी शक्तियों के लिए। सब लोग अपनी अपनी भूमिकाओं में लगे हैं पर संतुष्टि फिर भी नहीं दिखाई देती । …… एक रवीश कुमार अपनी उसी मुद्रा में दिखाई देते हैं । लेकिन अभी वो नाले और तालाबों को छोड़ कर केवल और केवल राजनीति पर ही अलख जगाएं तो बेहतर होगा। यों उनके पेरिस के सभी वीडियो पसंद आए । और सीवर के नारे में म्युजियम भी । वे पहले से ज्यादा आक्रामक हुए हैं लेकिन बोलने की रफ्तार बहुत तेज है । धीमी करें तो अच्छा हो। अच्छे से पचना जरूरी है। ‘सत्य हिंदी’ की चर्चाएं अपने आधे तक ही बहुत होती हैं। रोज बैठने वाले का भी उबाऊ परिचय। पांच पांच छः छः लोगों की उबाऊ बातें कौन सुने । इससे अच्छा वे कार्यक्रम ज्यादा अच्छे लगते हैं जिनमें किसी एक से बात होती है। इस संदर्भ में संतोष भारतीय ने पिछले हफ्ते दीपक शर्मा, अखिलेंद्र प्रताप सिंह और आलोक जोशी से बात की । बहुत शानदार रही । अखिलेंद्र जी ने कहा भी कि आप खुल कर बोलने का मौका देते हैं यह अच्छी बात है। आलोक जोशी के पंद्रह प्रोग्राम सुनना और यह एक अकेला प्रोग्राम सुनना। बात ‘लगभग’ बराबर सी है । ऐसे माहौल में भी लोग ‘साहित्य संवाद’ और ‘ताना बाना’ की बहसों में रुचि रखते हैं यह बड़ी बात है। चुनाव शुरु हो गये हैं दो मार्च को उत्तर पूर्व का पता चलेगा। फिर मार्च अप्रैल से दूसरे राज्यों की लाइन लगेगी। 2023 के नतीजे 2024 के लिए मायने रखते भी हैं और किसी अर्थ में नहीं भी । मोदी को हर हालत में चौबीस चाहिए। सवाल ही सवाल हैं – विकल्प कहां है और विपक्ष कहां है ।

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