आख़िरकार, जीएसटी बिल पास हो गया. पिछले दो वर्षों में भाजपा ने इसे एक बहुत बड़ा मुद्दा बना दिया था, मानो देश का विकास जीएसटी पर ही निर्भर हो, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं था. जीएसटी कराधान का एक प्रारूप है, जिसे यूरोप के कई देशों ने का़फी पहले से अपनाया हुआ है. अमेरिका ने जीएसटी को नहीं अपनाया है. भारत में यह होना चाहिए या नहीं, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है. भारत में इसे लागू करने की प्रक्रिया का़फी पहले से चल रही थी. यूपीए सरकार के दौरान गुजरात अकेला ऐसा राज्य था, जिसने जीएसटी का विरोध किया था. यह आश्चर्यजनक है कि उसी गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी आज प्रधानमंत्री हैं और वही इसे लागू करने के लिए सबसे ज्यादा तत्पर दिख रहे थे.
मुद्दा यह है कि जिस किसी भी देश ने जीएसटी को अपनाया, वहां इस प्रारूप को सही ढंग से लागू करने में 5 से 7 साल तक का समय लग गया. क्योंकि यदि आप किसी भी राज्य का बिना नुक़सान किए इसे लागू करना चाहते हैं, तो आज आपको जीएसटी को 27 फीसदी रखना होगा. इससे महंगाई का़फी बढ़ जाएगी जिसे सहन कर पाना का़फी मुश्किल होगा. आदर्श रूप से जीएसटी 12 या 12.5 फीसदी से अधिक नहीं होना चाहिए. यह सब काम समय लेता है. मैं ख़ुश हूं कि भाजपा और कांग्रेस दोनों अब तार्किक होकर एक दूसरे से बातचीत कर रहे हैं. कांग्रेस 18 फीसदी की सीलिंग चाहती थी, जो तार्किक है. 18 फीसदी से अधिक का जीएसटी बहुत दिनों तक टिकने वाला नहीं है, लेकिन वे इसे संविधान में चाहते थे. यह सही नहीं है. भाजपा ने महसूस किया कि आप कराधान के आंकड़ों को संविधान में तय नहीं कर सकते हैं और न ही करना चाहिए. यह एक प्रयोग है, सभी लोगों को इसे देखना चाहिए, सभी लोगों को इस पर मिलकर काम करना चाहिए. पेट्रोलियम और अल्कोहल को इसके दायरे से बाहर रखा गया है, जबकि कम से कम पेट्रोलियम को इसके भीतर लाना चाहिए, अन्यथा 40 फीसदी का स्कोप इस दायरे से बाहर हो जाएगा, जो सही नहीं है.
अब बात कश्मीर गतिरोध की करते हैं. कश्मीर एक संक्रामक समस्या बन चुका है. कश्मीर में आम धारणा यह है कि नई दिल्ली, कश्मीर के साथ एक कॉलोनी की तरह व्यवहार करता है. ऐसा एहसास किसी को पसंद नहीं आता है. नई दिल्ली को कश्मीरियों को यह एहसास कराना चाहिए कि वे इस लोकतंत्र में बराबर के भागीदार हैं. बेशक पाकिस्तान की संलिप्तता और आतंकवाद की वजह से वहां सेना की मौजूदगी है. लेकिन जैसाकिसी भी सेना के साथ होता है, लंबे समय तक उसकी मौजूदगी हालात को एक वृहत स्वरूप दे देती है और अफस्पा इस दुखती रग पर हाथ रखने जैसा हो जाता है. कश्मीर के मसले को का़फी चतुराई और कूटनीतिक ढंग से निपटाए जाने की ज़रूरत है.
महबूबा मुफ्ती जो कर सकती हैं, उनकी अपनी सीमाएं हैं. बेशक, भाजपा और पीडीपी गठबंधन ने महबूबा की साख को कम किया है. कश्मीर में भारतीय जनता पार्टी को एक हिंदू पार्टी की तरह देखा जाता है. यहां तक कि कश्मीर के लिए कोई दूसरी गैर कश्मीरी पार्टी भी ठीक नहीं है, लेकिन एक हिंदू पार्टी को लेकर वे समझते हैं कि इस पार्टी के साथ उनका भविष्य उज्ज्वल नहीं है.
मैं केंद्र सरकार और नरेंद्र मोदी को इस बात के लिए क्रेडिट दूंगा कि वे कश्मीरियों का दिल जीतने की पूरी कोशिश कर रहे हैं, लेकिन ये देर से किया गया एक छोटा प्रयास है. कश्मीर को लेकर कुछ ऐसे कदम उठाए जाने की ज़रूरत है जो आमूल-चूल परिवर्तन ला सके, सुधार ला सके. आर्टिकल 370 और जितने भी वादे भारत ने कश्मीर से किए हैं, उन्हें दोबारा बहाल किया जाना चाहिए. हालांकि ये आरएसएस और भाजपा की नीतियों के खिलाफ है. वे चाहते हैं कि आर्टिकल 370 को समाप्त कर दिया जाए, लेकिन समाधान इसके ठीक उलट है. आर्टिकल 370 को और मज़बूत बनाया जाना चाहिए. कश्मीरी अवाम से अलगाव की भावना ख़त्म कर लोकतांत्रिक भावना पैदा करने का प्रयास करना चाहिए. इससे कोई ़फर्क़ नहीं पड़ता है कि वहां महबूबा मुफ्ती सत्ता में हैं या उमर अब्दुल्ला सत्ता में हैं या फिर कल गिलानी सत्ता में हों. कोशिश ये की जानी चाहिए कि कश्मीरी लोगों का दिल जीता जा सके.
तीसरा महत्वपूर्ण विषय ओड़ीशा से जुड़ा हुआ है. 2016 बीजू पटनायक का जन्म शताब्दी वर्ष है. बीजू पटनायक की पहचान सिर्फओड़ीशा तक सीमित नहीं थी. वे अपने दौर के एक क़द्दावर नेता थे. सबसे पहली बात ये कि वे एक पायलट थे. 1948 में कश्मीर में पाकिस्तान के साथ युद्ध की स्थिति थी. जब श्रीनगर में भारतीय वायु सेना का कोई पायलट लैंड करने की हिम्मत नहीं कर रहा था, उस वक्त बीजू पटनायक ने जय प्रकाश नारायण और अरुणा आसफ अली को लेकर अपना प्लेन श्रीनगर में उतारा. यह बताता है कि वे कितने बहादुर थे. विश्व युद्ध में बर्मा की सरकार ने उन्हें बहादुरी का सर्वोच्च पुरस्कार दिया था. एक पायलट की हैसियत से उनकी उपलब्धियां क़ाबिले तारी़फहैं. इसके बाद वो राजनीति में आए. लेकिन इससे पहले उन्होंने कलिंगा आयरन एंड स्टील इंडस्ट्री की शुरुआत की थी. उन्होंने ओड़ीशा के लोगों में हमेशा विश्वास भरने का काम किया. आज उनके पुत्र नवीन पटनायक ओड़ीशा की कमान संभाले हुए हैं और ओड़ीशा को आगे ले जा रहे हैं. नवीन पटनायक का अभी चौथा कार्यकाल चल रहा है. एक ऐसा व्यक्ति जो ओड़िया भाषा नहीं जानता है और जो राजनीति में दिलचस्पी नहीं रखता था, उसे लोगों ने बीजू पटनायक की वजह से खुले दिल से स्वीकार किया. बीजू पटनायक के योगदान की समीक्षा करना बहुत मुश्किल है. वे एक छोटे वक्त के लिए मुख्यमंत्री बने.
मोरारजी देसाई और वीपी सिंह सरकार में वे दो बार केंद्रीय मंत्री बने. बीजू पटनायक एक क़द्दावर व्यक्तित्व के मालिक थे. वे ओड़ीशा जैसे पिछड़े राज्य को मुख्यधारा में लाना चाहते थे, लेकिन वे यह काम अपने जीवनकाल में नहीं कर सके. मैं समझता हूं कि अगर नवीन पटनायक के नेतृत्व में बीजू जनता दल ओड़ीशा को देश के दूसरे राज्यों की जीडीपी स्तर के बराबर ला देती है, तो इसका श्रेय बीजू पटनायक को भी जाएगा.