पहुँचना सही जगह पर…
वाशी, नवी मुंबई के पश्चिमी छोर पर महाकाय अरब सागर थका-माँदा सा पहुंचता है | सागर के विशाल वक्ष पर शक्तिप्रदर्शन करने के बाद लहरें यहाँ खाड़ी में विश्राम करती दिखाई देती हैं जैसे बेटियाँ मायके आने पर बेफिक्र दिखाई देती हैं | यहाँ लहरों के स्वभाव में, गर्जन-तर्जन वाली उनकी चिरन्तन प्रकृति की कोई प्रतिध्वनि सुनाई नहीं देती | वे निचाट स्तब्धता धारण किये रहती हैं | अन्य समुद्रतटों सी गहमागहमी नहीं यहाँ | वातावरण में एक अबोलापन उपस्थित रहता है जो मन को वाचाल बनने का अवसर देता है |
पिघलती हुई उस शाम को सिन्दूरी वस्त्र पहने सूरज परले किनारे की अट्टालिकाओं से बतियाता अधिक देर के लिए रुका हुआ था | हवा, सामुद्रिक गंध की गलबहियाँ डाले धीरे-धीरे बह रही थी | तट पर बालू से अधिक मिट्टी की चादर पसरी हुई थी | उदास सी एक दूसरे को ताकती छोटी-बड़ी नावों को देखकर जाने क्यों बुद्ध याद आए, “मैंने तुम्हें नदी पार करने के लिए नाव दी थी, नदी पार करने के बाद कन्धे पर ढोने के लिए नहीं |” नदी की अजेय धारा को पार करने के लिए उपयोगी नाव को सदा साथ रखने की इच्छा करना मानव की शाश्वत वृत्ति है | जिसने साहस कर लिया नाव को छोड़ सागर में उतरने का, लहरें उसके हौसले को लाड़ लड़ाती हैं | किनारे की सुविधा और नावों का मोह तजना, अपने अंदर बुद्धत्व के लिए छोटी ही सही, एक खिड़की को खुलते पाना है |
तट से लगा हुआ एक बगीचा था | सरकारी देखभाल का शिकार | गमलों की बेतरतीब कतारें थीं और गमलों में उबासियाँ लेते पौधे थे | नीचे खरपतवार का साम्राज्य था, उसके बीच-बीच में घास अस्तित्व की लड़ाई लड़ती नज़र आ रही थी | सीमेंट की कुछ कुर्सियाँ सीधी बैठी थीं और कुछ घुटने टेके | हाँ, बगीचे में कुछ बच्चों का खेलना दृश्य में जीवन भर रहा था |
तट के निकट भी कम ही लोग थे | शायद वे थे, जो बातें करना चाहते हैं, अपनेआप से | इन भागते-दौड़ते शहरों में चारों तरफ लोगों की भीड़ है पर फिर भी साथ कोई किसी के नहीं है | किसी के पास दूसरे के लिए समय और सहानुभूति नहीं है | “भीड़ है कयामत की फिर भी हम अकेले हैं…..” यही अकेलापन सबका वर्तमान है | इसी से जूझते वे स्व के निकट आते हैं | सागर का यह सुनसान किनारा स्व से सम्बोधित होने की संधि उपलब्ध कराता था | आधुनिक जीवनशैली में यह दुष्कर हो गया है , अपरिहार्य भी |
मैं फुरसत का एक टुकड़ा साथ लिये इस उनींदे तट पर चली आई थी | हम नर्मदा तीरे बसने और उसे प्राणों में धारण करने वालों को तो जलतत्व का सम्मोहन घुट्टी में मिलता है | अकूत जलराशि का सान्निध्य हमें अध्यात्म की देहरी पर ला खड़ा करता है | हमारे देश में कोटि-कोटि लोगों के लिए नदियाँ आराध्या हैं.. प्रार्थना हैं…संवेदना हैं | नदियाँ देख सिर झुक जाना संस्कार है हमारा |
यही अनाम आसक्ति खींच लाई थी मुझे यहाँ | स्थूल अर्थ में मैं अकेली थी पर समुद्र का विराट अकेले कहाँ रहने देता है किसी को ! वह हमारे एकान्त में साधिकार प्रवेश करता है और अंतस तक भिगोकर ही मानता है | इसी से अव्यक्त को व्यक्त होने की राह मिलती है |
आत्मा तक आर्द्रता को उतरते अनुभव करना ही साध्य था मेरा | दृष्टि सोती-जागती लहरों के साथ डोल रही थी और हृदय के किसी झरोखे से बरमान की सुधियाँ एड़ियाँ उठा-उठाकर झाँक रही थीं | श्यामशिलाओं के बीच सहस्त्रधारा रेवा का फेनिल महाराग याद आ रहा था | अवचेतन में टेर रही थीं रेवाप्रिया सिंधिया रानी की लालकोठी से जुड़ी गाथाएँ जो कभी राजसी रूपमयी इमारत थी पर आज वीरान जर्जर खंडहर |
विगत के इन धागों को पकड़े हुए मैं तट पर दूर तक चली आई थी | छोटे दादुर क़दमों की आहट सुनते तो की तरह पानी में डुबकी लगा देते और नन्हीं मछलियाँ पी टी ऊषा की तरह सरपट्टा मार जातीं | चिकनी लिरबिरी गोंचों से बच कर चलना पड़ रहा था | कुछ अनजान जीव आँखें तरेर कर और विचित्र ध्वनि निकालकर ही मुझे ही चौंका देते | वहाँ सीपियाँ थीं, घोंघे थे, शंकु थे | बालू के बीच बीच में बटइयाँ बिखरी हुई थीं |
तभी नज़र पड़ी…प्रतिमा सी दिखती उस आकृति पर | किनारे पर एक जगह कुछ समुद्र के लाये, कुछ मनुष्य के जुटाये कूड़े-करकट के बड़े से ढेर में औंधी पड़ी थी वह | रोक नहीं सकी स्वयं को | बढ़ चली उस ओर |
इस पृथ्वी पर सबसे बड़ा कचरा-उत्पादक मनुष्य है | समुद्र, नदी, जंगल, अन्तरिक्ष…किसी को नहीं छोड़ा हमने अपनी इस कृतघ्न वृत्ति का शिकार बनाने से | यहाँ तक कि अपने मनों में भी टनों मैला इकट्ठा कर लिया है हमने…..!
कीचड़ और कचरे के बीच बामुश्किल जगह बनाते हुए उस तक पहुँच सकी | प्लास्टिक पन्नियों की संख्या देख झुंझलाहट हो रही थी | वनस्पति और भोज्यपदार्थों के क्षय से निकलती दुर्गन्ध भी वहाँ उपस्थित थी | निकट से देखा, वह एक काष्ठप्रतिमा थी | गंदगी में लिथड़ी पड़ी थी | उसे सीधा करना चाहा तो भारी लगी | दोनों हाथ लगाकर सप्रयास सीधा किया | गणेश की त्रिमुखी-षट्भुज-सम्पूर्न्नांग ( सम्पूर्ण+अंग) काष्ठप्रतिमा | लहरों के साथ यहाँ आ टिकी हुई | लग रहा था, महिनों पानी में रही है | छोटी अँगुलि की चौड़ाई वाली पाँच-छै: इंच लम्बी दरारें पड़ गई थीं | प्रतिमा को खड़ी रखने के लिए आधार भी रहा होगा जो अब साथ छोड़ चुका था | दोनों पैरों की कुछ अँगुलियों को भी साथ ले गया था | इस सबके बावज़ूद प्रतिमा अपने सौन्दर्य का स्वयंप्रमाण थी |
मैंने सोचा, यह किसी पक्के आस्तिक या पक्के नास्तिक की अमानत रही होगी | पक्का आस्तिक, जिसने प्रतिमा खंडित होने के कारण या किसी अन्य धार्मिक कारण से प्रवाहित जल में इसका विसर्जन किया होगा | या, पक्का नास्तिक होगा वह, जिसने संस्कृतिप्रियता दर्शाने के लिए कभी इसे खरीदा होगा और ऊब जाने के बाद या नई वस्तु के लिए जगह बनाने के उद्देश्य से घर से बेघर कर दिया होगा |
यहाँ महाराष्ट्र के गणेशोत्सव की छवियाँ भी
जो हो, एक सुंदर कलाकृति की यह स्थिति हृदय को कचोट रही थी….जाने किस कलाकार के हुनर का प्रमाण थी यह ! दक्षिण-भारतीय मूर्तिकला…कांचीपुरम के आसपास की निर्मिति लग रही थी | सुडौल देहयष्टि और नक्काशी का बारीक काम बता रहे थे कि बहुत समय लगाकर, बड़ी लगन से इसे गढ़ा गया होगा |
हमारे देश में कला के लोक पर उपेक्षा का स्याह पर्दा पड़ा दिखाई देता है | कला आमदनी का समुचित ज़रिया नहीं मानी जाती | जाने कितने कलाकार दुर्दशा का शिकार हैं | बस्तर के डोकरा कला-उपादान और मधुबनी की मिथिला चित्रकारी हमारे अंतरराष्ट्रीय विमानतलों पर देश की सांस्कृतिक विरासत के रूप में शोभायमान हैं पर रौंदी पासवान जैसा पटु मधुबनी कलाकार गुमनामी के अंधेरों में घिरकर चिरविदाई ले लेता है, हमारी दुनिया में कोई हलचल नहीं होती | हबीब तनवीर के ‘चरणदास चोर’, दीपक तिवारी की दुनिया विपन्नता के श्राप के साथ-साथ अंधी भी हो चुकी है, यह बात भी हमारे सरोकारों में शामिल नहीं |
इन कुछ कलाविदों के नाम अकस्मात मस्तिष्क में कौंध गए और यह विचार कि पता नहीं इस कलाकार को भी अपनी मेहनत और कौशल का उचित मूल्य मिला होगा या नहीं…….! इसे बेचकर कितने दिन भरपेट भोजन कर पाया होगा वह ? लोककलाकारों को तो न नाम मिलता है न दाम | सारी मलाई बिचौलियों के पेट में जाती है |
किसी श्रमजीवी रचनाकार की काव्यात्मक कारीगरी की यह जीर्णशीर्ण अवस्था व्यथित कर रही थी मुझे | अब भले ही अपना मौलिक सौन्दर्य खो चुकी थी, एक कलाकृति को सड़-गल कर दफ्न हो जाने के लिए वहां छोड़ जाने का मेरा मन न हुआ और मैंने उसे साथ ले जाने का इरादा बनाया |
तट पर टहल रहे महानगरीय आत्मलीन लोगों को तो किसी से कोई मतलब नहीं | महत्वाकांक्षाओं और व्यस्तताओं ने इतना स्पेस छोड़ा ही कहाँ है उनके भीतर !
लोकमित्र गौतम के शब्दों में कहूँ तो,
व्यस्तता ने हमें
अजनबी बना दिया
गूंगा, बहरा और अंधा बना दिया……
लोगों ने मुझे देखा-अनदेखा कर दिया था किन्तु तट पर देखरेख ( ! ) के लिए नियुक्त रक्षक ने मुझे किसी वस्तु में रुचि लेते देखा तो उसे अपनी ड्यूटी याद आ गई | जल्दी-जल्दी चलता हुआ वह निकट आ गया | मैंने उससे अनुमति लेना ही उचित समझा | खुशामदी लहज़े में भूमिका बनाने के बाद जैसे ही प्रतिमा को ले जाने के लिए पूछा, उसकी सपाट “ना” से मुझ पर घड़ों पानी पड़ गया | हाँ, समुद्र का |
भले ही प्रतिमा वहाँ पड़ी पड़ी घुल जाए, उसकी ज़िद थी कि किसी को कोई वस्तु न ले जाने देने की ज़िम्मेदारी निभाएगा | बुद्धिदाता को साथ ले जाने के लिए उस अक्खड़ और अड़ियल अधेड़ की बुद्धि को भरसक प्रयासों के बाद भी न पलट सकी | अब लौट जाने का समय भी हो गया था |
उसकी बुद्धि पलटने में मैं भले ही सफल नहीं रही, मेरी अक्ल का अंत:कपाट खुल चुका था |
घर लौटकर दोनों बेटों, दिव्य और यश को पूरा प्रसंग बताया | यह भी कि थोड़ी सी कलाकारी के बाद प्रतिमा बहुत भव्य दिखने लगेगी और ऐसी एंटीक वस्तुओं की कीमत हज़ारों में होती है | यश की टीनएजर खुराफ़ाती अक्ल को पूरा अभिप्राय बताने की आवश्यकता नहीं पड़ी | समाधान उपस्थित था, “हम रात को उठा लाएँगे |”
हमारे निर्णय भी समयसापेक्ष होते हैं न ! एक परिस्थिति में जो बात अनुचित प्रतीत होती है, दूसरी परिस्थिति में वही उचित लगती है | हम तटरक्षक को झाँसा देकर, बिना अनुमति प्रतिमा उठा लाएँ यह उचित तो नहीं पर विपरीत स्थिति में इसका नष्ट हो जाना भी निश्चित था | मैंने एक बार स्वयं पर अवसरवादिता का आरोप लगाया | फिर बुहार दिया |
“चोरी करना बुरी बात है” को परे झटकते हुए दोनों आधुनिक श्रवणकुमार रात्रिकालीन-जनविहीन-रक्षकविहीन तट से कार में, गजानन की ससम्मान विदाई करा लाए |
पतिदेव की प्रतिक्रिया का पूर्वानुमान था मुझे | सूखी जड़ें, तने, टहनियाँ ला-लाकर घर भरने की मेरी कलाप्रियता, कंप्यूटर और नई तकनीक के परम अनुरागी पतिदेव के पल्ले न पड़ती थी पर यह बात उनकी सहमति के आड़े भी न आती थी | घर को मनचाही शैली से सजाने में उनका कोई हस्तक्षेप न था | सो वही हुआ, मेरे इस अटपटे करतब पर उनकी भवें पहले तनीं किन्तु शीघ्र ही सम पर आ गईं |
प्रतिमा के साथ अब जो चुनौती थी, वह थी, मुंबई से गृहनगर नागपुर तक ले जाने की कवायद ! प्रतिमा का भार लगभग सात-आठ किलो था | आकार ढाई फीट गुणा दो फीट | इसे ले जाना सरल तो न था |
एक बार तो अपने निर्णय पर स्वयं मुझे पुनर्विचार की आवश्यकता महसूस हुई | हम दो विवाह- समारोहों में सम्मिलित होने मुंबई आए थे इसलिए बड़े-बड़े सूटकेस साथ थे | जिनमें सबसे अधिक भार तो मेरे ही परिधानों-प्रसाधनों का था | एक अनाकर्षक-अंगभंग प्रतिमा की उठाई-धराई, और हाँ ढुलाई भी, करे कौन, समय का सबसे बड़ा प्रश्न था |
अनैच्छिक भारवाहक बनने से दिव्य और पापा ने हाथ खड़े कर दिए तो मेरी उम्मीदों के गिरते महल को टेका लगाने यश फिर अवतार रूप में प्रकट हुए, “मैं हूँ न !” उसकी तैयारी देखकर भैया और पापा ने भी हरी झंडी हिला दी |
इतना तो तय कि प्रतिमा से लगाव सिर्फ मुझे था | शेष तीनों मेरी इच्छा का मान रख रहे थे, मात्र | यह अनुभूति मेरे लिए सदैव सुखद और संतोषदायी रही है |
शेष सारे मेहमानों के लिए यह एक रोचक और अनूठा किस्सा था | भांति-भांति के सुझाव दिए जा रहे थे |
अंतत: गणपति एक बड़ी चादर में बंधकर बिना टिकट रेलयात्रा के लिए तैयार हो गए |
मुंबई में छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर दूरान्तो रेल का प्लेटफ़ॉर्म क्रमांक सोलह या सत्रह होता है | पादचाल की परीक्षा हो जाती है | एक तो करेला उस पर नीम का लेप भी….. कुली-सेवा पर कम से कम निर्भरता की फितरत है पतिदेव की | यही मानसिकता बच्चों में भी घर कर चुकी थी | तो कमर कस कर तैयार होना ही था सुपुत्र को |
लम्बी चलाई में यश की भुजाओं ने हार मानी तो उसकी पीठ पर लद गए गणपति बाप्पा मोरया | उसकी मेहनत देखकर, अपराधबोध में डुबकियाँ लगाती मैं मदद की पेशकश करती रही | जिम की साख पर बट्टा लगना उन्हें मंज़ूर न हुआ पर छुक-छुक के चलते न चलते फरमान आ ही गया, “ मम्मी, घर पहुँच के पीठ की मालिश कर दीजिएगा |”
खैर ! भवबाधाओं से घबरा जाएँ तो वे विघ्नहर्ता कैसे !!
उन्होंने यश को सद्बुद्धि और सद्शक्ति दोनों दी और उसने भारी काष्ठप्रतिमा को सुरक्षित घर पहुँचाने का पराक्रम कर दिखाया |
अब अगली चुनौती सीधे-सीधे मुझे लेनी थी | जिस भव्य स्वरूप की कल्पना मैंने की और दिखाई थी उसे साकार करना था | अब पीछे हटने का तो सवाल ही न था |
सिरेमिक पाउडर में फेविकोल मिलाकर तैयार मिश्रण से दरारें भरीं | अंग-प्रत्यंग सुधारे और सजाए | साधारण को सानुपातिक में बदलने में सफलता मिलते देख उत्साह का अनुपात भी बढ़ गया था |
साथ-साथ यश की पीठ की मालिश चल रही थी | शेष दो का रवैया भी सहयोगात्मक हो गया था | वे सुझाव देते और निरीक्षक की तरह ज़ायज़ा लेते, काम कहाँ तक पहुँचा है |
प्रतिमा ने पुराना चोला उतार दिया था, उसका आकर्षण झलकने लगा था | चेहरे पर नाक की प्रतिष्ठा हो गई थी | अंगुलियाँ भी रोप दी गईं थीं | उन्नत उदर पर आभूषण भी विराजमान थे | अब आधार बनवाना था | उसके बिना वह खड़ी नहीं रह सकती थी |
पाँच कारपेंटरों (बढ़ई नहीं हैं ये) ने “आड़ा-तिरछा” काम लेने से इनकार कर दिया |
यह प्रयोगात्मक टास्क लेने में छठवें ने रुचि दिखाई | पहले प्रतिमा को आगेपीछे, दाएँबाएँ घुमा-घुमा कर निहारा फिर सद्वाक्य उचारे, “पुरानी चीज़ है | टूट-फूट भी हो सकती है |”
यह अपने काम की कीमत बढाने का नुस्खा था उसका | मैंने कड़ी चेतावनी दी कि टूटना नहीं चाहिए | फीस के सन्दर्भ में, उसने अपनी अपेक्षा में थोड़ी कमी की, मैंने अपनी तय सीमा में थोड़ी बढ़ोत्तरी की और एक राशि पर हमारे बीच समझौता हो गया | समय माँगा गया, डेढ़-दो महीने | दैनंदिन कार्यों से अलग हटकर कार्य था सो इतनी अवधि के लिए भी हामी भर दी | अन्य कहीं से आश्वासन का उजाला आ भी नहीं रहा था | कल्पना में प्रतिमा की लुभावनी छवि लिये मैं पुलक के परों पर सवार घर लौटी |
आगे हुआ यह कि दो क्या…..कैलेण्डर पर एक–एक करके चार पन्नों ने मेरी तरफ पीठ कर ली | फोन करने पर कारपेंटर हर बार वही रिकार्डेड जैसा उत्तर देता, “अभी नहीं हुआ है मैडम |” मुझ अधीरा के लिए यह कड़ी परीक्षा थी | यश भी अपनी पीठतोड़ मेहनत का सुफल देखने के लिए लालायित थे | कारपेंटर के बार-बार के इनकार से यह विचार साँप की तरह फन उठाता कि प्रतिमा में टूटफूट की जो आशंका वह जता रहा था, कहीं सच न हो गई हो | वैसे भी मानवमन की वृत्ति ऐसी ही है, पहले आशंकित ही होता है, आशान्वित कम होता है |
अब दुकान की फेरियाँ प्रारम्भ हुईं | हर बार ढाक के तीन पत्ते ही हाथ लगते | दिक् होकर एक दिन धरना ही दे दिया, ले कर ही जाऊँगी आज अपनी धरोहर | इतने दिनों की टालमटोल का राज़ खुला तो लगा जैसे किसी बम्बइया फिल्म की कहानी का सर्पिल प्लाट हो |
कारपेंटर ने वार्तालाप को घुमाफिराकर प्रतिमा को स्वयं खरीद लेने का प्रस्ताव रख दिया | कौतूहल हुआ पर मैं सहमत नहीं हुई | प्रतिमा वापस देने का दबाव बनाया | जब उसकी समझ में आया कि किसी घोरहठीली से पाला पड़ा है, वह अंदर के कक्ष से प्रतिमा उठा कर ले आया |
ओहो ! तो यह बात थी !! प्रतिमा को देखकर चमत्कृत हो जाना स्वाभाविक था |
आयताकार आधार पर खड़ी किए जाने और चमकदार वूड वार्निश के बाद प्रतिमा बहुत भव्य और मोहक लग रही थी | प्रथम दृष्टिपात में तो वह पहचानी भी नहीं जा रही थी | खारे पानी से हुई क्षति विदा हो चुकी थी | किसी पञ्चसितारा कलावीथिका में प्रदर्शित मूल्यवान आर्टपीस का आभास हो रहा था | दुकान पर आने वाले कुछ लोगों ने प्रतिमा खरीदने के लिए कारपेंटर के सामने अच्छी-खासी राशि की पेशकश की थी और वह चाहता था मुझे कुछ कीमत देकर उससे अधिक की कमाई कर ले |
चंदामामा में पढ़ी थी कोई कहानी बचपन में | एक स्त्री को नदी में बहता हुआ एक सन्दूक मिलता है जिसमें गहने भरे हुए थे | एकबारगी मन ने आर्थिक लाभ से शेकहैण्ड करना चाहा पर प्रतिमा को अपने पास रखने के लोभ ने उसे फटकार दिया | इस सुख को प्राथमिकता दी कि किसी कलानिपुण, जो अनजाना था मेरे लिए, की विलक्षण रचना को वाशी तट पर शनैःशनैः शून्य हो जाने से बचाया और वह साक्ष्य बनकर मेरे पास सुरक्षित रहे |
प्रतिमा को देखने से उपजे आनन्द ने कारपेंटर के प्रति नाराज़गी का आयतन शून्य कर दिया था | उसके प्रति आभार का भाव भी कम न था | वह इस प्रतिमा का दूसरा जन्मदाता था |
अब अथाह और अछोर समुद्र की गोद छोड़कर, नये जन्म में गजानन मेरे घर में अधिक प्रसन्न दिखाई देते हैं | मुस्कान बताती है कि नया बसेरा उन्हें भा रहा है और भा रहा है आगंतुकों का उनके प्रति कौतुक |
उत्तराखंड के आध्यात्मिक गुरू अमित रे को कहीं सुना था, “कीचड़ में कमल के बीज सदैव होते हैं, अंकुरित होने की प्रतीक्षा में |” यह कीचड़ से प्राप्त अनुपम कमल ही तो है हमारे लिए !