तुम्हारी मति मारी गई थी, आ गए ‘दिनमान’ में पत्रकारिता सीखने ?

और फिर तुम्हे रख कैसे लिया , ? वह किसी को ट्रेनी नही लेता

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चंचल भू
वरिष्ठ पत्रकार

-तुम्हारी मति मारी गयी थी , आ गए ‘दिनमान’ में पत्रकारिता सीखने ? और फिर तुम्हे रख कैसे लिया , ? वह किसी को ट्रेनी नही लेता ।
– इसी लिए तो , सीखूं या न सीखूं एक नाम तो दर्ज होगा न , पहला और आखिरी ।
– सहाय जी ( मरहूम रघुवीर सहाय जी , उस समय दिनमान के संपादक थे ) ने तुम्हे रखा कैसे ?
– संक्षेप में बताऊं तो – केबिन में बे बुलाये नही घुसा , तिवारी जी ( चपरासी थे , चपरासियों में सहाय थे , संजीदा चेहरा , कम लोग होंगे जिन्होंने उन्हें मुस्कुराते हुए देखा होगा , दिनमान बड़े गर्व के साथ तिवारी जी की गाथा सुनाता था – बिहार के मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर पूरे आधे घंटे तक तिवारी जी से बैठ कर बतियाते रहे , क्यों कि सहाय जी को सम्पादकीय लिखना था , तिवारी जी ! कोई भी आये तो अंदर मत आने दीजिएगा , सम्पादकीय लिखना है ‘ लेकिन कर्पूरी ठाकुर को क्या मालूम कि आज ही इस तरह का फरमान लागू होगा । और फरमान जारी होनेवाले सहाय जी को क्या मालूम कि देश के सबसे बड़े सूबे का सबसे प्रिय मुख्य मंत्री उनसे मिलने आ रहा है ? सहाय जी के जमाने मे दिनमान आडम्बरी अनुशासन की सारी हदें पार कर पत्रकारिता के कीर्तिमान को स्थापित कर रहा था । दस बजे दफ्तर खुलने का वक्त , बारह बजे से सम्पादकीय लोंगो का आना शुरू होता लेकिन उनकी रपट , रपट की चुस्त चूड़ीदार भाषा , अकारथ , निरर्थक शब्दों को बीन पछोर कर खड़ा हुआ संवाद कुछ इस अदा से डकारता कि पत्रकारों के हाथ बढ़ आते – दिनमान देखा जाय । बहरहाल वह दिन भी और दिनों जैसा ही शुरू हुआ था , फर्क इतना पड़ा था कि सहाय जी वक्त के पहले दस बजे ही घर से आ गए थे , क्यों कि सम्पादकीय लिखना था । ग्यारह बजे के करीब सर्वेश्वर जी जो उन दिनों दिनमान के मुख्य उप संपादक थे कुर्ता पजामा पहने नमूदार हुए । और बगैर किसी को देखे सीधे अपनी बड़ी मेज की तरफ़ बढ़ गए और पानी के लिए जब तिवारी जी तरफ़ मुड़े तो कर्पूरी ठाकुर पर निगाह पड़ी । दोनो लोंगो ने एक दूसरे को देखा और दुआ सलाम के बाद कर्पूरी जी सर्वेश्वर जी पास आकर बैठ गए ।
– कब से आप आये हैं ?
– दस बजे आ गया था । सहाय जी से बात हुई थी , मिलना था , सो आ गया । वे कुछ लिख पढ़ रहे हैं ।
सर्वेश्वर जी का पारा गर्म हो गया होगा क्यों कि जब हम यह कथा सर्वेश्वर जी बता रहे थे तो उस समय भी वे थोड़ा गुस्से में हुए । सर्वेश्वर जी उठे और सीधे सहाय जी का दरवाजा खोला ।
– कर्पूरी जी पैन घंटे से बाहर बैठे हैं और आप ?
सहाय जी हड़बड़ा कर उठे और कर्पूरी जी को अंदर ले गए । यह दुर्घटना हमारे ज्वाइन करने से पहले घट चुकी थी , । दिनमान में घुसने के बाद इस तरह की अनेक कहानियां बिखरी मिली ।
– तुम अपना बातावो , तुम कैसे घुसे ?
सर्वेश्वर जी के पास गया । उन्हें बताया कि बतौर ट्रेनी आया हूँ , हमारे डीन और विभागाध्यक्ष अंजन कुमार बनर्जी ने चिट्ठी दिया है , उसी सिलसिले में आया हूँ । सर्वेश्वर जी मुस्कुराये । हमारी जगह दूसरा कोई होता तो सर्वेश्वर जी बैरन वापस भेजते निहायत निर्दयता के साथ, लेकिन हमसे उनके रिश्ते बहुत पहले से ही बहुत अच्छे रहे चुनांचे सीधे कसाई बड़ा में ही भेज दिए , गर्दन वहीं अतरे , कत्ल का इल्जाम हम क्यों लें , सोचते हुए सर्वेश्वर जी ने संपादक जी की केबिन दिखा दिया – मिल लो मुंशी जी अंदर हैं । सर्वेश्वर जी कभी कभी सहाय जी को मुंशी जी बोलते थे लेकिन सार्वजनिक रूप से नही । असल खेला यहां हुआ ।
– कैसे हैं चंचल जी ? बनारस के क्या हाल हैं ? शिव प्रसाद जी ( स्वर्गीय शिव प्रसाद सिंह , हिंदी के प्रसिद्ध लेखक ) ठीक हैं ? बैठिए ।
तिवारी जी ! दो चाय लाइये ।
तिवारी जी चाय लेने गए तो हमने बनर्जी साहब की चिट्ठी पकड़ा दिया । ‘ क्या है ‘ के साथ सहाय जी ने चिट्ठी पढा और अचानक चेहरे का भाव बदल गया – चंचल जी ! यह धर्मयुग नही है । ( एक तरह से सहाय जी का यह तकिया कलाम था , सुषमा जी , जो मशहूर पत्रकार बनी उनदिनों दिनमान को ज्वाइन किया था और वे धर्मयुग से बतौर ट्रेनी टाइम्स आई थी , उन्हें अक्सर यह ताना सुनना पड़ता था , कई बार तो कारण हम बन जाते । सुषमा जी को सम्पादकीय के अलावा एक अतिरिक्त काम मिला था , चंचल से टाइम पर काम ले लेना । ) यहां किसी को ट्रेनी नही रखा जाता चंचल जी । ठीक है जाइये बाहर बैठिए सर्वेश्वर जी को अंदर भेज दीजिये ।
बड़ा गुस्सा आया । लेकिन क्या करता । सर्वेश्वर जी के पास आया उन्हें बताया – आपको बुला रहे हैं । हम बगैर चाय के बाहर बैठे रहे । थोड़ी देर में सर्वेश्वर जी बाहर आये , हमने जो चिट्ठी दी थी वह सर्वेश्वर जी के हाथ मे थी । – चलो ! संपादक जी राजी हो गए हैं ये लो चिट्ठी ।
– हम क्या करेंगे इसका ?
– सर्वेश्वर ने उस चिट्ठी पर , जहां सहाय जी ने लिखा था – सर्वेश्वर जी देखें , उसके नीचे सर्वेश्वर जी ने लिखा – महेश्वर दयाल गगवार देखें , यह चिट्ठी लिए हम हर टेबुल पर घूमते रहे ‘ सब लोग ‘ लिखते रहे , देखे । भाई त्रिलोक दीप को पहली बार उसी दिनमान में मिला । अंत मे घूम कर फिर सर्वेश्वर जी के पास आ गया क्यों कि उस पर नेत्र सिंह रावत का आखिरी नाम था जिस पर रावत जी ने लिखा श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना जी देखें । हम फिर सर्वेश्वर जी के पास आये ।
– अब ?
– अब सब को मालूम हो गया कि चंचल अब मेहमान नही है , मुलाजिम है । आपके बैठने का इंतजाम करते हैं , कहते हुए सर्वेश्वर जी जोर से चीखे – श्याम लाल !
इधर आइये ‘। पूरा दिनमान मुस्कुरा उठा , हम नए नए रहे समझ नही आया ये श्यामलाल हैं कौन ? गोल्डन फ्रेम का चश्मा तना । उठ कर सर्वेश्वर जी के पास आये , हमने कुर्सी छोड़ दी । श्याम लाल ( पूरा नाम श्याम लाल शर्मा , अंतराष्ट्रीय मुद्दों पर लिखनेवाले स्तंभकार , कमाल के जिंदादिल इंसान और सबसे मजेदार बात सर्वेश्वर के के स्थायी कालम ‘ चर्चे और चरखे ‘ के शर्मा जी ) कुर्सी पर बैठे नही , जबरन हमे बिठा कर अपने दोनो हाथ हमारे कंधे पर रख कर संजीदगी से बोले – सर्वेश्वर ! तुम्हे बोलने की तमीज नही हुई ? इसी के साथ हमारी मुलाकात हुई दिनमान के दो नायकों से । अब तक तिवारी जी ने खोज कर कहीं से एक कुर्सी लाये और शर्मा जी उस पर बैठ गए । पूरे दिनमान का काम रुक गया सब लोग इन दोनों के संवाद के शामिल होने लगे ।
– श्यामलाल जी ! चंचल को योगराज थानी के साथ लगा दिया जाय । वह सीखा देगा ।
श्याम लाल जी ने जोर का ठहाका लगाया – जो अज्ञेय जी को एडिट कर दे , पत्रकारिता सीखा दे उससे अच्छा कौन मिलेगा ? पूरा दफ्तर ठहाका लगा गया । थानी जी जो उस समय कुछ टाइप कर रहे थे , रुके और खुद हंसने लगे । अज्ञेय और थानी का किस्सा एक बार फिर कुछ संसाधनों के साथ ‘ दिनमान ‘ के चबूतरे पर फैल गया । अज्ञेय जी दिनमान के संपादक थे और योगराज थानी उनके टाइपिस्ट । ये बात दीगर है कि आगे चलकर यही योगराज थानी इसी टाइम्स हाउस से निकलनेवाली खेल पत्रिका के संपादक बने ।

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