मनमोहन सिंह का तीसरा लक्ष्य समतामूलक विकास था. यह देश के सामने सबसे बड़ी विडंबना और मुश्किल है. बीते दो दशकों में अमीरी भी बढ़ी है, पर हैव्स और हैव्स नॉट के बीच फासला बढ़ा है. यह फासला हर स्तर पर बढ़ रहा है. यदि भारत बनाम इंडिया की भाषा में बात करें, तो इंडिया की बढ़ती हुई क्रयशक्ति ने देश के संसाधनों को अपनी ओर खींचा है, जिससे भारत की बुनियादी ज़रूरत की वस्तुओं का उत्पादन पर्याप्त मात्रा में नहीं बढ़ रहा है. इसीलिए देश में दालों, अनाज, खाद्य तेल, सब्जियों एवं दूध आदि का उत्पादन ज़रूरत के मुताबिक नहीं बढ़ रहा है, किंतु दूसरी ओर विलासिता की वस्तुओं का उत्पादन तेजी से छलांगें लगा रहा है.
polविक्टर ह्यूगो ने कहा है कि दुनिया की कोई भी ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती, जिसका वक्त आ चुका है, तो मैं सदन से कहता हूं कि आर्थिक शक्ति के रूप में भारत का उदय भी ऐसा ही एक विचार है. पूरी दुनिया साफ़ सुन ले. भारत अब जाग चुका है, हमें बढ़ना होगा, जीतना होगा. 1991 में जब मनमोहन सिंह देश के वित्तमंत्री बने, तो 24 जुलाई, 1991 को अपने बजट भाषण का समापन उन्होंने इन्हीं शब्दों के साथ किया था. देश गंभीर आर्थिक संकट से जूझ रहा था, ऐसे में मनमोहन सिंह के उक्त शब्द देश के सामने एक उम्मीद के तौर पर उभर रहे थे. लोगों को एक बार लगा कि सोना गिरवी रखने को मजबूर और भुगतान संकट के चलते दिवालियेपन की कगार पर पहुंचा मुल्क इन चिंताओं से आगे बढ़कर वैश्‍विक आर्थिक ताकत की सूची में शुमार हो जाएगा.
नंबे के दशक से भारतीय अर्थव्यवस्था में नव-उदारवाद, खुली अर्थव्यवस्था एवं पूरब की ओर देखो जैसी कई नव-अवधारणाएं शुरू हुईं. आर्थिक बदलावों के प्रतिफल कोई एक-दो दिन में सामने आते भी नहीं, इसलिए जिन आर्थिक नीतियों की पक्षधरता बतौर वित्तमंत्री मनमोहन सिंह कर रहे थे, उनका अवलोकन भी लंबे समय तक होता रहा. लेकिन इस अवलोकन में उस लाभ की पैरोकारी ज़्यादा की गई, जो बड़े तबके को हासिल हो रही है और समाज के आख़िरी स्तर पर जी रहे भारतीयों को इस मनमोहनी अर्थव्यवस्था का लाभ कितना मिला, इसका पक्ष हमेशा स्याह ही रहा. और आज जब मनमोहन सिंह स्वयं यह मान रहे हैं कि बतौर प्रधानमंत्री यह उनका आख़िरी दौर चल रहा है, तब इस बात की पड़ताल ज़रूरी हो जाती है कि अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत करते हुए बतौर वित्तमंत्री उन्होंने देश की जनता में जो उम्मीद जगाई थी, उसे लक्ष्य तक लाने में वह कितने सफल रहे.
पिछले दिनों मनमोहन सिंह ने एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान कहा कि यूपीए सरकार नौकरियां पैदा करने और महंगाई रोकने में असफल रही. उन्होंने 10 सालों में 1369 भाषण दिए और 88 बार महंगाई की चर्चा की, उसे अपनी असफलताओं की ढाल बनाया. तो क्या यह माना जाए कि 1991 में उन्होंने बतौर वित्तमंत्री देश में आर्थिक पहलुओं पर जो आस जगाई थी, वह आस स्वयं मनमोहन सिंह भी छोड़ चुके हैं. इसलिए जिस भाषण को भारतीय अर्थव्यवस्था के इतिहास में दस्तावेज के तौर पर माना जाता है, उसका अवलोकन करने की ज़रूरत है कि मनमोहन सिंह ने क्या कहा था और उन्होंने किया क्या?
लोकसभा में अपना पहला बजट पेश करने उठे सिंह ने 1991 की गर्मियों में देश का हाल इन शब्दों में बयां किया था, अर्थव्यवस्था पर गहरा और चिंताजनक संकट है. आज़ाद भारत के इतिहास में कभी ऐसा नहीं हुआ. हमारे पास महज 25,000 करोड़ रुपये की विदेशी मुद्रा है, जिससे बमुश्किल एक पखवाड़े भर का सामान आयात हो सकता है. लेकिन सबसे ज़्यादा आश्‍चर्यजनक बात यह है कि उन्होंने जिन समस्याओं को जाना और उनके समाधान के नुस्खे प्रस्तुत किए, वे अब भी उतने ही अर्थपूर्ण हैं, जितने 1991 में थे और आज भी उतने ही व्याप्त हैं, जितने तब थे. ऐसे में सवाल उठता है कि अर्थव्यस्था के स्तर पर क्या हम वहीं खड़े हैं, जहां से हमने तेजी से आगे बढ़ने का सपना देखा था?
समस्याओं का हल सुझाते हुए मनमोहन सिंह ने कहा था कि उदारीकरण और भूमंडलीकरण की राह पर बढ़ते हुए चरणबद्ध ढंग से सब्सिडी के बोझ एवं राजकोषीय घाटे को कम करने, कई घरेलू उद्योगों के द्वार विदेशी निवेश के लिए खोलने और रुपये का 22 फ़ीसद अवमूल्यन करने जैसे क़दम उठाने की ज़रूरत है. लेकिन मौजूदा दौर में उनके इन वक्तव्यों पर ग़ौर करें, तो सब्सिडी के बोझ के तले दबे मनमोहन सिंह देश को यह भरोसा भी नहीं दे पाते कि हम आधारभूत संसाधनों में इजाफा कर सब्सिडी के बोझ को कम करेंगे, बल्कि वह यह कहकर असहाय हो जाते हैं कि पैसा कहां से लाऊं, पैसा पेड़ पर नहीं उगता. रुपये के अवमूल्यन के स्तर पर भी मनमोहन सिंह बड़े पैमाने पर विफल ही साबित हुए. 1991 में रुपये की विनिमय दर अमेरिकी डॉलर के मुकाबले 21 रुपये थी, लेकिन जिस रुपये के मजबूत होने की उम्मीद मनमोहन सिंह जगा गए थे, वह आज डॉलर के मुकाबले धराशायी होकर 66 रुपये के क़रीब आ चुका है. रुपये की इस हालत पर एक बड़ा ही रोचक जुमला सियासी गलियारों में चटखारे लेकर कहा जाता है कि डॉलर के मुकाबले रुपये की क़ीमत यूपीए के सत्ता में आने पर राहुल गांधी की उम्र 43 के आसपास थी, जो अब सोनिया गांधी की उम्र के क़रीब तक यानी 63 पर पहुंच रही है और अगर यही हाल रहा, तो प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की आयु 81 के बराबर तक जा पहुंचेगी. ग़ौरतलब है कि हम आज उस दौर में है, जब रुपया अमेरिकी डॉलर के मुकाबले सबसे निम्नतम स्तर पर है. इस तरह मनमोहन सिंह के 1991 में बतौर वित्तमंत्री कार्यकाल से लेकर अब तक के कार्यकाल तक रुपये के सफर की बात करें, तो यह 180 फ़ीसद लुढ़क गया है.
अपने उस ऐतिहासिक भाषण में मनमोहन सिंह ने सुधारों के तीन अहम लक्ष्य रेखांकित किए थे, जिनमें पहला लक्ष्य सतत उच्च आर्थिक विकास दर हासिल करना था. इस बात से किसी को इंकार नहीं होगा कि बीते दो दशक उच्च आर्थिक विकास दर वाले रहे हैं,. 1990-91 में सकल घरेलू उत्पाद (स्थिर मूल्यों पर) 10,83,572 करोड़ रुपये था, जो 2010-11 में बढ़कर 48,79,233 करोड़ रुपये हो गया है. लेकिन अलग-अलग क्षेत्रों में इसका वितरण देखने पर कुछ सवाल उठते हैं. आर्थिक स्तर पर मजबूत होने के दिखावे के क्रम में भारत अपनी जड़ों से दूर होता गया. इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि इसी अवधि में कृषि और संबद्ध क्षेत्र का जीडीपी 3,33,356 करोड़ रुपये से बढ़कर महज 6,92,499 करोड़ रुपये हुआ. कुल आय में उसका हिस्सा भी लगभग एक तिहाई से घटकर 20 फ़ीसद रह गया.
यदि 2013 की तुलना 1991 से करते हैं, तो पाते हैं कि 1991 में हमारा भुगतान घाटा 10 अरब डॉलर था, जबकि 2013 में 90.7 अरब डालर है. यानी 2013 का घाटा 1991 के घाटे से 9 गुणा ज़्यादा है. यदि जीडीपी के अनुपात के रूप में भी देखें, तो पाते हैं कि तब वह जीडीपी का 3.3 प्रतिशत तथा जबकि वित्तमंत्री की अपनी स्वीकारोक्ति के अनुसार भी 4.8 प्रतिशत है. लेकिन ध्यान रहे कि वह वास्तव में यह 607700 करोड़ रुपये है, जो 2012-13 में कुल जीडीपी (10020620 करोड़ रुपये) का 6.1 प्रतिशत है.
खुली अर्थव्यवस्था और नव-उदारवादी अर्थव्यवस्था के नाम पर हमने आंकड़ों के आईने में ऊपरी चमक-धमक के तौर पर आर्थिक स्वावलंबन तो पा लिया, लेकिन कृषि आधारित अपनी अर्थव्यवस्था को पीछे धकेल दिया. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार, 1995 से अब तक दो लाख 90 हज़ार किसान आत्महत्या कर चुके हैं. यह वही सुनहरा दौर है, जब अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह का उदारवादी मॉडल भारत में फल-फूल रहा है. खेती को मल्टी नेशनल कंपनियों के हाथों में सौंपकर किसानों को क़र्ज़ और भुखमरी के ऐसे भंवरजाल में डाला गया कि जहां वे मर सकते हैं, लेकिन उबर नहीं सकते. कुछ समय पहले नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइज़ेशन ने आंकड़े जारी किए कि भारत में 45 प्रतिशत किसान किसी और रोज़गार में जाना चाहते हैं. उनका कहना है कि कृषि उनकी घरेलू ज़रूरतें पूरी करने में सक्षम नहीं है. जिस देश में अर्थव्यवस्था की रीढ़ कृषि हो, जहां 60 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर हो, वहां पर 45 प्रतिशत किसानों के कृषि से पलायन का अंजाम क्या होगा, सहज ही समझा जा सकता है. कृषि विकास दर महज 2.7 फ़ीसद पर अटकी हुई है, जबकि खेती पर भारत की 65 फ़ीसद से ज़्यादा आबादी निर्भर है. पिछले 20 वर्षों में देश में कृषि भूमि में काफी कमी आई है, जिसका मुख्य कारण बांधों, कारखानों, एसईजेड, टाउनशिप, शहरी विस्तार एवं राजमार्गों आदि में बड़े पैमाने पर खेती की जमीन का हस्तांतरण है. वर्ष 1990-91 और 2007-08 के बीच खेती के रकबे में 21.4 लाख हेक्टेयर की कमी हुई है. भारत में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न (अनाज-दालें) उपलब्धता 1991 तक तो बढ़ रही थी, लेकिन उसके बाद से लगातार कम हो रही है. दालों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता तो 1959 से ही कम होना शुरू हो गई थी, क्योंकि दालों की जगह दूसरी फसलों ने लेना शुरू कर दिया था. उसके बाद 1991 से प्रति व्यक्ति अनाज उपलब्धता भी गिरना शुरू हो गई. 1991 में देश में प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 468.5 ग्राम अनाज उपलब्ध था, जो 2008 में 374.6 ग्राम रह गया.
अपने भाषण में सुधारों का दूसरा लक्ष्य मनमोहन सिंह ने रखा था मुद्रास्फीति पर काबू पाना. 1991 में चालू खाता घाटा जीडीपी का 2.5 प्रतिशत था, जो पिछले साल पांच प्रतिशत हो गया. 1991 में भारत का चालू खाता घाटा (आयातों तथा निर्यातों के कुल मूल्य का अंतर) सकल घरेलू उत्पाद के 2.5 फ़ीसद के बराबर था. इतना चालू खाता घाटा तब अस्वीकार्य माना गया था. आज यही घाटा सकल घरेलू उत्पाद के 4.8 फ़ीसद के स्तर पर है. 1991 में ऋण संबंधी भुगतानों का बोझ चालू खाता प्राप्तियों के 21 फ़ीसद के क़रीब था, आज यही आंकड़ा 35.09 फ़ीसद है. भारत का विदेशी मुद्रा संचित कोष ज़रूर तब इतना कम था कि कुछ हफ्तों का आयात बिल भरने के लिए ही काफी था. आज विदेशी मुद्रा संचित कोष की स्थिति कहीं बेहतर है, हालांकि इसके बावजूद यह छह महीने से ज़्यादा के आयातों के भुगतान के लिए काफी नहीं है. 1991 में सभी आवश्यक वस्तुओं की क़ीमतों में बढ़ोत्तरी के चलते बेलगाम मुद्रास्फीति चल रही थी, आज भी स्थिति उससे बदतर न हो, तो भी वैसी ही ज़रूर है. 2012-13 में विकास दर गिरकर 10 वर्षों के न्यूनतम स्तर 5 फ़ीसद तक आ गई. अब अगर महंगाई दर और मंदी की बात करें, तो 1991 में जहां महंगाई दर 12 फ़ीसद थी, वहीं 2012 आते-आते वही दर सुधार के साथ 8 फ़ीसद पर आ गई. देश महंगाई की चपेट में आता रहा है और इस स्थिति से बचने के लिए मनमोहन सिंह जो तर्क देते रहे, जरा उन पर भी ग़ौर कर लीजिए. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जुलाई 2009 में कहा कि भारत की महंगाई दर दिसंबर 2009 तक नीचे 6 प्रतिशत तक आ जाएगी, क्योंकि सामान्य मानसून से खाद्य क़ीमतें कम हो जाएंगी. फरवरी 2010 में उन्होंने कहा कि मैं समझता हूं कि खाद्य महंगाई में बुरे दिन अब बीत चले हैं. हाल के दिनों में खाद्य क़ीमतें कम हुई हैं और उम्मीद करता हूं कि यह प्रक्रिया जारी रहेगी. जुलाई 2010 में उन्होंने कहा कि महंगाई की वर्तमान ऊंची दर मुख्य रूप से खाद्य क़ीमतों में वृद्धि के कारण है. सरकार ने महंगाई को काबू करने के लिए कई क़दम उठाए हैं. हम उम्मीद करते हैं कि दिसंबर तक थोक क़ीमतों में महंगाई की दर 6 प्रतिशत तक नीचे आ जाएगी और 20 जनवरी, 2011 को आख़िर मनमोहन सिंह ने यह मान ही लिया कि मैं कोई ज्योतिषी नहीं हूं, लेकिन मुझे भरोसा है कि क़ीमतों की स्थिति काबू में आ जाएगी.

कृषि विकास दर महज 2.7 फ़ीसद पर अटकी हुई है, जबकि खेती पर भारत की 65 फ़ीसद से ज़्यादा आबादी निर्भर है. पिछले 20 वर्षों में देश में कृषि भूमि में काफी कमी आई है, जिसका मुख्य कारण बांधों, कारखानों, एसईजेड, टाउनशिप, शहरी विस्तार एवं राजमार्गों आदि में बड़े पैमाने पर खेती की जमीन का हस्तांतरण है. वर्ष 1990-91 और 2007-08 के बीच खेती के रकबे में 21.4 लाख हेक्टेयर की कमी हुई है. भारत में प्रति व्यक्ति खाद्यान्न (अनाज-दालें) उपलब्धता 1991 तक तो बढ़ रही थी, लेकिन उसके बाद से लगातार कम हो रही है. दालों की प्रति व्यक्ति उपलब्धता तो 1959 से ही कम होना शुरू हो गई थी, क्योंकि दालों की जगह दूसरी फसलों ने लेना शुरू कर दिया था. उसके बाद 1991 से प्रति व्यक्ति अनाज उपलब्धता भी गिरना शुरू हो गई.

मनमोहन सिंह का तीसरा लक्ष्य समतामूलक विकास था. यह देश के सामने सबसे बड़ी विडंबना और मुश्किल है. बीते दो दशकों में अमीरी भी बढ़ी है, पर हैव्स और हैव्स नॉट के बीच फासला बढ़ा है. यह फासला हर स्तर पर बढ़ रहा है. यदि भारत बनाम इंडिया की भाषा में बात करें, तो इंडिया की बढ़ती हुई क्रयशक्ति ने देश के संसाधनों को अपनी ओर खींचा है, जिससे भारत की बुनियादी ज़रूरत की वस्तुओं का उत्पादन पर्याप्त मात्रा में नहीं बढ़ रहा है. इसीलिए देश में दालों, अनाज, खाद्य तेल, सब्जियों एवं दूध आदि का उत्पादन ज़रूरत के मुताबिक नहीं बढ़ रहा है, किंतु दूसरी ओर विलासिता की वस्तुओं का उत्पादन तेजी से छलांगें लगा रहा है. वर्ष 2010 में कारों की बिक्री 25 से 30 फ़ीसद बढ़ी है और कारों के नित नए मॉडल निकल रहे हैं, लेकिन देश में साईकिलों का उत्पादन कम हो रहा है. महंगाई एक तरह के पुनर्वितरण का काम भी करती है. इससे साधारण लोग ज़्यादा प्रभावित होते हैं, यदि उनकी मौद्रिक आय बढ़ती भी है, तो उसे दूसरी जेब से निकालने का काम महंगाई करती है. अर्जुन सेनगुप्ता की अध्यक्षता वाले एक सरकारी आयोग ने बताया था कि देश के 77 प्रतिशत लोग 20 रुपये रोज से नीचे गुजारा कर रहे हैं. दूसरी सरकारी (तेंदुलकर) कमेटी ने माना है कि देश के 42 प्रतिशत लोग घोर ग़रीबी में जीवनयापन कर रहे हैं. 1990-91 में कुल आबादी में से 35.11 प्रतिशत लोग ग़रीब थे, आज भी उनकी तादाद लगभग 50 करोड़ है.
आख़िर में यह सवाल उठता है कि अर्थव्यवस्था का यह मनमोहनी रूप किसके लिए है, जो न देश की जनता को रोटी दे पा रहा है और न उसके हाथों में रोज़गार. महात्मा गांधी चाहते थे कि रोज़गार को संविधान के मौलिक अधिकार में जगह दी जाए. हमारे जहीन अर्थशास्त्री उस दिशा में तो कोई काम करते नहीं दिख रहे हैं. हां, वह यह कहकर अपनी ज़िम्मेदारियों से ज़रूर भाग लेते हैं कि हम रोज़गार नहीं पैदा कर पा रहे हैं, रोज़गार नहीं दे पा रहे हैं. 1991 में जब मनमोहन सिंह ने अपने इस भाषण से विश्‍व को चौंकाया था, तो हमें बतौर प्रतिस्पर्धी देश मानते हुए दुनिया के अन्य देशों ने भारत को पिजड़े में बंद शेर कहा था. आज मनमोहन सिंह ने उस बात को बिल्कुल सटीक साबित कर दिया. दरअसल, वह पिजड़े में ही बंद हैं, जहां पर दहाड़ते नहीं, बस चुप रहते हैं, एक असफल अर्थशास्त्री के तमगे के साथ.

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