बदले राजनीतिक परिदृश्य में बिहार के सभी दलों और नेताओं की राजनीति-रणनीति बदल गई है. 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव के बाद से राज्य में एनडीए और महागठबंधन ही राजनीति के दो ध्रुव थे. लेकिन 20 महीने चली महागठबंधन की सरकार से जदयू के अलग होने और एनडीए की सरकार बन जाने के बाद बिहार की राजनीति ने अचानक एक अलग मोड़ ले लिया. अब सभी दलों के लोग बदले माहौल में अपने को फिट करने में लगे हैं. एनडीए गुट का अहम हिस्सा रहे रालोसपा के दोनों धड़े अभी से अपना संगठन मजबूत करने में जुट गए हैं.
तीन सांसद और तीन विधायकों वाली इस पार्टी के दोनों गुट अब अपनी राजनीतिक मजबूती का अहसास कराना चाहते हैं. रालोसपा प्रमुख केन्द्रीय राज्यमंत्री उपेन्द्र कुशवाहा और सांसद अरुण कुमार इस सियासी भिड़त में आमने-सामने हैं. केवल मगध क्षेत्र की बात करें, तो पिछले चुनाव में यहां के 26 विधानसभा सीटों में से रालोसपा ने 4 सीटों पर चुनाव लड़ा था, लेकिन उसे एक पर भी सफलता नहीं मिली. ये अलग बात है कि एनडीए का प्रत्याशी होने के कारण सभी दूसरे स्थान पर रहे थे. हालांकि लोकसभा चुनाव में रालोसपा को मगध में बड़ी सफलता मिली थी. इसके दोनों बड़े नेता चुनाव जीत गए थे. उपेन्द्र कुशवाहा कराकट तो अरुण कुमार जहानाबाद लोकसभा क्षेत्र से चुनाव जीते थे. तीसरे सांसद उत्तर बिहार से जीते थे. तभी से कहा जाने लगा था कि रालोसपा की मगध में अच्छी पकड़ है. ये अलग बात है कि लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी और भाजपा की लहर भी इनकी जीत का अहम कारण बनी थी. इस जीत के बाद विधानसभा चुनाव में रालोसपा के दोनों नेताओं ने मगध में अधिक सीटों की मांग की थी. लेकिन एनडीए में शामिल लोजपा और हम की भी यहीं मांग थी. इसलिए रालोसपा को मात्र 4 सीटेंं मिलीं, नवादा, गोविन्दपुर, जहानाबाद और कुर्था. हालांकि रालोसपा ये चारों सीटें हार गई. इससे पूर्व बिहार विधान परिषद् के गया शिक्षक निर्वाचक क्षेत्र से निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में जीतने वाले संजीव श्याम सिंह ने
रालोसपा का दामन थाम लिया. इससे समझा गया कि मगध में कुशवाहा, भूमिहार और राजपूत मतदाताओं पर रालोसपा की पकड़ मजबूत होगी.
लेकिन कुछ दिन बाद ही रालोसपा के दो बड़े नेताओं उपेन्द्र कुशवाहा और अरुण कुमार के रास्ते अलग हो गए. दोनों गुटों द्वारा एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया. इससे पार्टी से जुड़े कार्यकर्ता भी असमंजस में पड़ गए कि आखिर वे किसका समर्थन करें. दोनों गुट सम्मेलनों और विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए एक दूसरे को अपनी शक्ति का अहसास कराने लगे. इसी माध्यम से समर्थकों और कार्यकर्ताओं को भी जोड़े रखने का प्रयास किया जाने लगा. इसी प्रयास के मद्देनजर, मगध के विभिन्न क्षेत्रों में केन्द्रीय मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री उपेन्द्र कुशवाहा के कई कार्यक्रम हो चुके हैं. 20 अगस्त 2017 को गया के धर्मसभा भवन में भी
रालोसपा का शिक्षा सुधार जिला सम्मेलन किया गया, जिसमें उपेन्द्र कुशवाहा गुट के नेता शामिल हुए थे. पूर्व केन्द्रीय मंत्री नागमणी का भी क्षेत्र मगध का जहानाबाद और अरवल का कुर्था पड़ता है. इनके भी रालोसपा के उपेन्द्र गुट में शामिल होने से मगध में इस गुट को कुछ लाभ मिल सकता है. राज्य के पूर्व मंत्री भगवान सिंह कुशवाहा भी अब उपेन्द्र गुट के रालोसपा में शामिल हो गए हैं. हालांकि इनका क्षेत्र भोजपुर पड़ता है. लेकिन ये भी मगध को ही फोकस कर अनेक कार्यक्रम कर रहे हैं. वहीं दूसरी ओर रालोसपा के एकमात्र विधान पार्षद संजीव श्याम सिंह भी उपेन्द्र कुशवाहा गुट के साथ खड़े हैं. जबकि दूसरी तरफ अरुण कुमार गुट भी लोगों से जुड़ने के लिए प्रयासरत है. अरवल जिला के स्थापना दिवस समारोह और लारी महोत्सव में अरुण कुमार की भागीदारी इसी का संकेत है.
हालांकि मगध में रालोसपा संगठन को मजबूत करने में सांसद अरुण कुमार का ही ज्यादा योगदान है. गया स्नातक निर्वाचन क्षेत्र से 2 बार विधान पार्षद रहे अरुण कुमार की मगध के अलावा रोहतास, कैमूर, भोजपुर, क्षेत्र के मतदाताओं पर भी अच्छी पकड़ थी. ये सभी क्षेत्र गया स्नातक निर्वाचन क्षेत्र में आते हैं. यही कारण था कि रालोसपा के गठन के बाद एनडीए में शामिल इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष उपेन्द्र कुशवाहा ने लोकसभा चुनाव में अपने लिए कराकट तो अरुण कुमार ने जहानाबाद लोकसभा क्षेत्र का चयन किया. अरुण कुमार तो समता पार्टी से जहानाबाद के सांसद भी रह चुके हैं. प्रारंभ में तो रालोसपा में सब कुछ ठीक-ठाक चला, लेकिन दोनों नेताओं की अहम के टकराव ने इस छोटी सी पार्टी को दो फाड़ कर दिया. मगध में विधानसभा चुनाव लड़ने वाले चारों प्रत्याशी अरुण कुमार के समर्थक माने जाते हैं. हालांकि पार्टी में बंटवारा होने के बाद वे चारों किधर हैं, कहना मुश्किल है. रालोसपा के इन दोनों नेताओं के झगड़े का सबसे बडा खामियाजा पार्टी के विधायकों को भुगतना पड़ा है. यही कारण भी है कि बिहार की नई सरकार में रालोसपा कोटे से कोई भी मंत्री नहीं बन सका, जबकि रालोसपा को एक मंत्री का ऑफर था. अब दोनों गुटों ने निर्वाचन आयोग के समक्ष चुनाव चिन्ह और झंडे पर अपनी-अपनी दावेदारी पेश की है. मामला चुनाव आयोग में लंबित है.