अमेरिका ने ईरान को यमन के मामले में हस्तक्षेप न करने की हिदायत दी है, लेकिन यह माना जा रहा है कि ईरान हौती विद्रोहियों की छुपे तौर पर मदद कर रहा है. वहीं दूसरी तरफ सऊदी अरब हौती विद्रोहियों के खिलाफ यमन के मौजूदा राष्ट्रपति अबद रब्बुह मंसूर हादी का समर्थन कर रहा है. सऊदी अरब ने हौती विद्रोहियों के खिलाफ अभी तक केवल हवाई हमले ही किए हैं.
पाकिस्तान की अंतरराष्ट्रीय नीति एक बार फिर इस देश के लिए परेशानी का सबब बनती दिख रही है. मामला है यमन में ईरान समर्थित शिया हौती विद्रोहियों के विरुद्ध सऊदी अरब की तरफ से फौजी करवाई का. इस कार्रवाई में सऊदी अरब पाकिस्तान से फौजी मदद की उम्मीद कर रहा था. शुरू-शुरू में पाकिस्तान की तरफ से सकारात्मक रुख का भी पता चला, लेकिन बाद में पाकिस्तान ने इस मामले में हस्तक्षेप न करने का फैसला लिया. ज़ाहिर है, इस फैसले से सऊदी अरब और इस क्षेत्र में उसके सहयोगी देश नाखुश हैं. कई देशों ने तो खुल कर अपनी नाराज़गी भी ज़ाहिर की है. ऐसे में पाकिस्तान के सामने जहां एक तरफ सऊदी अरब जैसे मित्र देश हैं, वहीं इस मामले का एक पक्ष ईरान जैसा एक पड़ोसी भी है, जिसे वह नाराज़ करने की जोखिम नहीं उठा सकता. पाकिस्तान की अ़फग़ानिस्तान नीति में बुरी तरह नाकामी भी उसके समक्ष है. ऐसे में यह मसला पाकिस्तान के लिए सांप और छुछुंदर का खेल बन गया है.
यमन के मौजूदा संकट के दौरान जो मुख्य लड़ाई है, वह राष्ट्रपति अबद रब्बुह मंसूर हादी की हिमायती फौजों और शिया हौती लड़कों के बीच की है, लेकिन इनके साथ-साथ अल-काएदा और आईएसआईएस से जुड़ा संगठन भी समय-समय पर अपनी मौजूदगी का एहसास दिलाते रहते हैं. कुल मिला कर देश में गृहयुद्ध की स्थिति बनी हुई है, लेकिन बुनियादी तौर पर यह लड़ाई एक बार फिर शिया-सुन्नी के सत्ता के संघर्ष की लड़ाई है, जो इराक और सीरिया में पहले से ही चल रही थी. अरब देशों में शिया-सुन्नी के दरमयान वर्चस्व की दौड़ में क्षेत्र के दो बड़े देश ईरान और सऊदी अरब अब खुल कर सामने आ गए हैं.
हालांकि अमेरिका ने ईरान को यमन के मामले में हस्तक्षेप न करने की हिदायत दी है, लेकिन यह माना जा रहा है कि ईरान हौती विद्रोहियों की छुपे तौर पर मदद कर रहा है. वहीं दूसरी तरफ सऊदी अरब हौती विद्रोहियों के खिलाफ यमन के मौजूदा राष्ट्रपति अबद रब्बुह मंसूर हादी का समर्थन कर रहा है. सऊदी अरब ने हौती विद्रोहियों के खिलाफ अभी तक केवल हवाई हमले ही किए हैं. जहां तक इन हमलों के प्रभाव का सवाल है, तो ज़मीनी हकीक़त यह बताती है कि इसका कोई अधिक प्रभाव नहीं पड़ा है. संयुक्त राष्ट्र संघ में यमन के राजदूत खलील अल-यमनी ने हौती विद्रोहियों खिलाफ ज़मीनी कार्रवाई करने की मांग की है और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय से यमन की मदद की गुहार भी लगाई है. इन्हीं खबरों के बीच से यह खबर भी आई कि सऊदी अरब ने 5 दिन के सशर्त युद्ध विराम की घोषणा कर दी है. अब इस युद्ध विराम का क्या अंजाम होता है, यह तो बाद में पता चलेगा, लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में पाकिस्तान बुरी तरह से उलझा हुआ दिखाई दे रहा है, क्योंकि सऊदी अरब ने पाकिस्तान से आधिकारिक तौर पर उसकी ज़मीनी ़फौज, लड़ाकू जहाज़ और टैंक इत्यादि की सहायती मांगी. पाकिस्तान ने इस आग्रह पर कुछ सकारात्मक संकेत दिए थे, लेकिन अभी सऊदी आग्रह पर विचार चल ही रहा था कि ईरान के विदेश मंत्री मुहम्मद जावेद ज़री़फ पाकिस्तान के दौरे पर आए. उसके बाद पाकिस्तानी सीनेट ने एकमत से यह फैसला किया कि पाकिस्तान यमन के मामले में तटस्थ रहेगा, लेकिन सऊदी अरब की सुरक्षा खतरे में पड़ी तो पाकिस्तान उसकी हर मुमकिन सहायता करेगा.
अब सवाल यह उठता है कि आखिर सऊदी अरब ने पाकिस्तान से इतने हक से फौजी मदद क्यों मांगी? तो इसका साधारण सा जवाब यह है कि सऊदी अरब ने हर मुश्किल समय में पाकिस्तान की मदद की है. अब वह पाकिस्तान से बदला चाहता है. पाकिस्तान द्वारा 1998 के परमाणु हथियारों के परीक्षण के बाद अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने पाकिस्तान पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिया था. ऐसे समय में सऊदी अरब ने पाकिस्तान को आर्थिक सहायता के साथ-साथ 5 लाख बैरल पेट्रोल मुफ्त मुहय्या करवाया था. सऊदी सरकार ने अभी हाल ही में पाकिस्तान को 1.5 अरब डॉलर की सहयता दी है. इसके अलावा कई लाख पाकिस्तानी सऊदी अरब में काम करते हैं, जो अपनी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा अपने घर भेजते हैं. आर्थिक तंगी से गुज़र रहे इस देश के लिए यह पैसा बहुत ही अहम है. साथ ही पाकिस्तान के मौजूदा प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ अपने निर्वासन के दौरान सऊदी में ही पनाह ली थी. अतीत में पाकिस्तान ने कई मौकों पर सऊदी अरब की सहायता की है, जिसमें 1969 में हौती विद्रोहियों के खिलाफ फौजी कार्रवाई के दौरान और 1980 में इस देश के यमन से लगे सीमा को सुरक्षित करने में अपनी सहायता दी थी. इसलिए सऊदी अरब को इस बार भी पाकिस्तान से मदद की उम्मीद थी.
ज़ाहिर है यह फैसला सऊदी अरब और उसके सहयोगी देशों को खुश करने वाला फैसला नहीं था. जहां सऊदी अरब ने इस फैसले पर अपनी निराशा व्यक्त की वहीं यूनाइटेड अरब अमिरात (युएई) ने खुल कर पाकिस्तान को जता दिया कि इस फैसले का पाकिस्तान पर क्या असर होगा. युएई के विदेश मंत्री डॉ. अनवर मुहम्मद गारगश ने पाकिस्तान को चेतावनी दी कि उसे इस फैलसे की भारी कीमत अदा करनी पड़ेगी. अब सवाल यह उठता है कि पाकिस्तान ने यह फैसला क्यों लिया? चूंकि वह पहले भी यमन के मामले में सऊदी अरब की सहायता कर चुका है तो अभी क्यों नहीं? पाकिस्तान आखिर अपने मित्र देशों की नाराज़गी उठाने के लिए क्यों तैयार हो गया? दरअसल, पिछले दशक में पाकिस्तान और क्षेत्र की भू-राजनीति में बहुत ज़बरदस्त बदलाव आया है. अ़फग़ानिस्तान में पाकिस्तान ने पहले तालिबान को खड़ा किया, फिर 9/11 के बाद तालिबान के खिलाफ लड़ाई में अमेरिका के सहयोगी की भूमिका निभाई. बीच-बीच में अमेरिका द्वारा पाकिस्तान पर तालिबान और अल-कायदा की मदद के आरोप भी लगे. नतीजा यह हुआ पाकिस्तान पर अब न तो अमेरिका भरोसा कर सकता है और न ही तालिबान या अ़फग़ानिस्तान सरकार. वहीं पाकिस्तानी तालिबान देश में लगातार आत्मघाती हमले कर रहे हैं. साथ में देश के कई क्षेत्रों में गृहयुद्ध की स्थिति बनी हुई है. कहने का तात्पर्य यह है कि पाकिस्तान की विदेश नीति बुरी तरह से नाकाम रही है. इसलिए अब वह फूंक-फूंक कर क़दम उठा रहा है. पाकिस्तान का इस मामले से पीछे हटने की और बलुचिस्तान प्रान्त में चल रहा बलूच राष्ट्रवादीयों का अलगाववादी आन्दोलन भी है. पाकिस्तान पहले भी भारत और अफगानिस्तान पर बलुचिस्तान प्रान्त में अलगाववादियों के समर्थन का आरोप लगाता रहा है. अब चूंकि ईरान से बलुचिस्तान की सीमा मिलती है और ईरान शिया हौती विद्रोहियों का समर्थन कर रहा है, लिहाज़ा पाकिस्तान ईरान को नाराज़ करने का जोखिम नहीं उठा सकता. साथ में देश में शियाओं की आबादी तकरीबन 20 फिसद के आसपास है. देश में पहले से ही आए दिन शियाओं पर हमले होते रहते हैं. लिहाज़ा, एक बार फिर पाकिस्तान किसी और देश की समस्या की वजह से मैदान-ए-जंग बन सकता है. दरअसल, पाकिस्तान मध्य एशिया के वर्चस्व की लड़ाई में बुरी तरह से उलझा हुआ नज़र आ रहा है. वह न तो किसी का पक्ष ले सकता है और न ही तटस्थ ही रह सकता है. मज़े की बात यह है कि यह समस्या उसके द्वारा पैदा नहीं की गई है.