अन्ना को अरविंद केजरीवाल कैसे समाप्त कर सकते हैं, यह मेरी समझ में नहीं आया, पर उन्हीं मित्र ने यह कहा कि अरविंद केजरीवाल ने पार्टी बनाने के बाद एक बार भी अन्ना हज़ारे से संपर्क नहीं किया. रिश्तों की एक ख़ूबसूरती होती है, लेकिन अरविंद केजरीवाल ने उसकी ख़ूबसूरती को भी समाप्त कर दिया. और वह ऐसी परिस्थितियां निर्मित कर गए कि अन्ना हज़ारे रालेगण में रहने के लिए मजबूर हो गए. अन्ना रालेगण में अरविंद केजरीवाल की वजह से रहे या वह चिंतन-मनन कर रहे थे, यह तो पता नहीं, पर नतीजा कुछ वैसा ही निकला और अब हमें अरविंद केजरीवाल के साथियों की भाषा सुनने को मिल रही है.
पिछले दिनों एक आश्चर्यजनक बात हुई. एक आंदोलनकारी मित्र मेरे पास आए और उन्होंने कहा कि अन्ना हज़ारे ने भस्मासुर पैदा कर दिया है. मैं चौंका! मैंने उनसे पूछा, भस्मासुर! कौन? तो उन्होंने अरविंद केजरीवाल का नाम लिया और कहा कि अन्ना ने आंदोलन की निष्पत्ति के रूप में अरविंद केजरीवाल देश को दिया. मैंने पूछा, इसमें भस्मासुर वाली क्या बात हुई, तो उन्होंने जवाब दिया कि अरविंद केजरीवाल अगर स़िर्फ अन्ना से अपने रास्ते जुदा होने की बात को सत्य साबित करते, तो कोई बात नहीं थी, क्योंकि दोनों ने अलग-अलग कहा है कि हमारी मंज़िल एक है, लेकिन हमारे रास्ते अलग हैं. पर अरविंद केजरीवाल तो अन्ना को समाप्त करने पर तुले हुए हैं.
अन्ना को अरविंद केजरीवाल कैसे समाप्त कर सकते हैं, यह मेरी समझ में नहीं आया, पर उन्हीं मित्र ने यह कहा कि अरविंद केजरीवाल ने पार्टी बनाने के बाद एक बार भी अन्ना हज़ारे से संपर्क नहीं किया. रिश्तों की एक ख़ूबसूरती होती है, लेकिन अरविंद केजरीवाल ने उसकी ख़ूबसूरती को भी समाप्त कर दिया. और वह ऐसी परिस्थितियां निर्मित कर गए कि अन्ना हज़ारे रालेगण में रहने के लिए मजबूर हो गए. अन्ना रालेगांव में अरविंद केजरीवाल की वजह से रहे या वह चिंतन-मनन कर रहे थे, यह तो पता नहीं, पर नतीजा कुछ वैसा ही निकला और अब हमें अरविंद केजरीवाल के साथियों की भाषा सुनने को मिल रही है. एक सिद्धांतशास्त्री कहते हैं कि आम आदमी पार्टी अन्ना के दम से नहीं चल रही है. दूसरे सिद्धांतशास्त्री कहते हैं कि आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में चुनाव जीतकर अन्ना हज़ारे को ग़लत साबित कर दिया. इनके अलावा तो ज़्यादातर यही कहते हैं कि अन्ना हज़ारे थे क्या? महाराष्ट्र में भी उनके आंदोलन को कोई नहीं पूछता था. हम लोग ही उन्हें दिल्ली लेकर आए, उन्हें देश में नेता बनाया और उन्होंने नेता बनने के बाद पहली बार अगर किसी को धोखा दिया या पहली बार अगर किसी को हाशिये पर लाने की कोशिश की, तो यह वही लोग थे, जिन्होंने उन्हें नेता बनाया.
अन्ना को लेकर एक दूसरी तरह की बात भी सारे देश में फैली हुई है और वह बात है एक अफ़वाह जैसी. लोग कहते हैं कि दिल्ली में अन्ना की सरकार बन गई. यह वे लोग हैं, जिनका अन्ना की नैतिक ताक़त में भरोसा है. उनके आंदोलन से उन्हें ताक़त मिली, उनमें भरोसा जगा कि वे देश में कुछ कर सकते हैं. पहली बार इतने बड़े देश में लोग खड़े हुए. बच्चे-बूढ़े-जवान, सबने नारे लगाए और कमाल की बात यह कि समूचे देश में कहीं एक खोमचा भी नहीं लुटा. अब तक लोग राजनीतिक दलों के जुलूसों को देखते थे. उनमें भाग लेने जब भीड़ चलती थी, तो स्टेशन के स्टेशन लुट जाते थे. शायद इसीलिए दिल्ली में हुए परिवर्तन ने देश में एक धारणा पैदा की कि यह सरकार अन्ना की सरकार है. दोनों ही बातें सही नहीं हैं. आंदोलनकारी मित्र का यह मानना कि अन्ना ने भस्मासुर पैदा किया, जितना ग़लत है, उतनी ही ग़लत यह धारणा है कि दिल्ली में अन्ना की सरकार चल रही है.
मैं इसको इस तरह से देखता हूं कि घनघोर कोहरा था और उस कोहरे में अन्ना आशा की किरण बनकर उभरे, लोगों को दिशा दिखाई. एक मंथन हुआ. उस मंथन से विचार के तौर पर दो रास्ते निकले. अन्ना लोकसभा को परिवर्तन का रास्ता मानते थे और उनका मानना था कि लोकसभा के चुनावों में जनता के उम्मीदवार खड़े होने चाहिए. लेकिन दूसरी तरफ़ अरविंद केजरीवाल का मानना था कि दिल्ली के चुनाव अपेक्षाकृत छोटे हैं, कम ख़र्च में लोगों को लाया जा सकता है, इसलिए अगर यहां हम जीते, तो देश में हम एक नई आशा पैदा करेंगे. अन्ना का कहना था कि अगर ज़रा भी ग़लती हुई, तो दिल्ली का प्रयोग काउंटर-प्रोडक्टिव हो जाएगा और लोकसभा की संभावनाएं धूमिल हो जाएंगी. अन्ना का यह भी मानना था कि ज़रूरी नहीं, विधानसभा के चुनाव में जितने लोग उम्मीदवार बनें, वे वैचारिक रूप से सहमत हों ही.
पर अन्ना ने उस मंथन से देश को एक शख्सियत दी, जिसका नाम अरविंद केजरीवाल है और जो एक नए धूमकेतु के रूप में उभरा. अन्ना आज भी कहते हैं कि अरविंद केजरीवाल की वैयक्तिक प्रतिबद्धता में कोई भी शंका नहीं है और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल अपनी क्षमता के हिसाब से जो करेंगे, वह ठीक करेंगे. अब अन्ना के सामने लोकसभा चुनाव की चुनौती है. अन्ना ने एक अरविंद केजरीवाल पैदा किया, लेकिन अब उनके सामने चुनौती है कि वह पांच सौ केजरीवाल कैसे पैदा करें? अन्ना इसी चिंतन और मनन में हैं, क्योंकि पांच सौ अरविंद केजरीवाल पैदा करना देश को बदलने के लिए ज़रूरी है. अगर एक केजरीवाल बने रहे, तो जहां देश के तमाम राजनीतिक नेताओं में स़िर्फ एक नेता की बढ़त मिलेगी, लेकिन अगर पांच सौ केजरीवाल पैदा होते हैं, तो देश में व्यवस्था परिवर्तन का रास्ता साफ़ होगा, क्योंकि उस स्थिति में लोकसभा में ज़्यादातर ऐसे सांसदों की ज़रूरत है, जिनका भरोसा देश के लोगों में हो, देश के लोगों की समस्याओं में हो और उन समस्याओं को सुधारने वाली नीतियां बनाने में उनकी दृष्टि साफ़ हो. अगर वे यह दृष्टि साफ़ नहीं रखते, तो फिर वे कुछ समस्याएं तो हल कर पाएंगे, लेकिन समस्याओं को हल करने और समस्याएं आगे न पैदा होने देने वाली नीतियां नहीं बना पाएंगे.
अन्ना हज़ारे ने यह तो कह दिया कि अरविंद केजरीवाल को लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ना चाहिए और उन्हें दिल्ली में अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए, तो फिर लोकसभा का चुनाव कौन लड़ेगा? शायद अन्ना के दिमाग़ में दो बातें हैं. या तो अन्ना हज़ारे स्थापित राजनीतिक दलों में ऐसी ताक़तों की तलाश कर रहे हैं, जिनका नई आर्थिक नीतियों में विश्वास हो और जो लोगों को विश्वास दिला सकें कि जो वायदा वे कर रहे हैं, उसे पूरा करेंगे. या फिर अन्ना हज़ारे चुनाव में खड़े होने वाले ऐसे उम्मीदवारों का चयन करेंगे, जो अपेक्षाकृत दाग़ी या अपराधी नहीं हैं और जिनका देश की जनता में भरोसा है. पर यहां सवाल उठता है कि अच्छा उम्मीदवार भी एक पार्टी सेट-अप में है और वह पार्टी उन नीतियों में भरोसा नहीं करती, जिनकी स्थापना अन्ना हज़ारे करना चाहते हैं. तो अगर वह जीत भी गया, तो संसद में क्या कर पाएगा?
तो क्या अन्ना हज़ारे देश में पचास या सौ ऐसे उम्मीदवार खड़े करने के बारे में सोचेंगे, जिनका मत नई आर्थिक नीतियों या बाज़ार आधारित आर्थिक नीतियों के विरोध में हो और जो अन्ना हज़ारे को अपना शपथ पत्र दें, जनता के प्रति अपना विश्वास साबित करें. लेकिन ऐसे निर्दलीय उम्मीदवार उन लोगों के आसान शिकार बन जाएंगे, जो पैसे के बल पर सरकारें ख़रीदते हैं, सरकारों से ़फैसले कराते हैं, सरकारें या फिर मंत्री बनवाते हैं.
ये सारे सवाल हैं. इन सवालों का जवाब क्या होगा, किसी को नहीं पता. आज शायद अन्ना हज़ारे के पास भी इसका जवाब नहीं है. लेकिन मैं इस राय से सहमत नहीं हूं कि अन्ना हज़ारे ने राजनीति में भस्मासुर पैदा किया है, बल्कि मैं इस राय से सहमत हूं कि अन्ना हज़ारे को अभी अरविंद केजरीवाल जैसे पांच सौ व्यक्तित्व पैदा करने हैं. और ऐसे, जो अगस्त 2011 के अरविंद केजरीवाल हैं, दिसंबर 2013 के अरविंद केजरीवाल नहीं, जो कोशिश करके अन्ना से अपनी दूरी बना रहे हैं.
अन्ना के सामने लोकसभा चुनाव की चुनौती है
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