पांच राज्यों के हालिया चुनावों के पहले देश के बौद्धिक समाज में एक चर्चा थी कि यह चुनाव इसलिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि देश जागरूकता के स्तर पर आगे बढ़ रहा है. चुनाव परिणाम आए और इन परिणामों में नेता नहीं जीते, जनता जीती. वह जनता जिसने अपने ऊपर इन आरोपों की चादर ओड़ ली थी कि वह वोट देने घर से बाहर नहीं निकलती. जिसके ऊपर आरोप थे कि वह जातिवादी सोच के साथ मतदान केंद्र तक आती है. वह जनता जिसके ऊपर आरोप थे कि वह क्षेत्रवाद के दायरे में कैद है. यह जनता के द्वारा चौतरफ़ा पैदा किए गए दबाव की ही जीत है कि सरकार जनलोकपाल जैसे जनसरोकारी विषयों पर चर्चा करने के लिए मज़बूर हुई है. इन सबसे बढ़कर जनता को जो सबसे बड़ी जीत मिली वह है पॉवर टू द पीपल.
ग़ौर करें तो बदलाव की इस मुहिम की पृष्ठभूमि एक दिन में तैयार नहीं हुई है. इसे समझने के लिए हमें दो वर्ष पीछे लौटना होगा, जब अन्ना हजारे ने जंतर-मंतर और रामलीला मैदान से जनलोकपाल की मशाल जलाई थी. देश ने करवट बदली और फिर से एक बार ‘सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है’ जैसे जुमले लोगों की ज़ुबान पर चढ़ने लगे. उसी दौर में अन्ना ने कहा था कि मैं तो एक निमित्त मात्र हूं, असली लड़ाई तो आपको लड़नी है. देश के युवा बधाई के पात्र हैं कि वे उस मशाल को लेकर आगे बढ़े और बदलाव के साक्षी बने.
बीते दो सालों में देश में सामाजिक स्तर पर कई बार हमने अवाम की आवाज़ सुनी, जो सिस्टम को सही रास्ते पर लाने के लिए ज़ोर-आज़माइश कर रही थी. कोई भी तबका हो, जब उसे लगा कि व्यवस्था बदलनी ज़रूरी है, तो उसने आवाज़ उठाई और लोग साथ हो लिए. फिर चाहे वह लाखों साधकों के साथ होने का दावा करने वाले तथाकथित धर्मगुरु हों, पत्रकार हों, न्यायाधीश हों, राजनेता हों. जो भी शक के दायरे में आया, उसे जनता की अदालत में आना ही पड़ा. दामिनी को न्याय दिलाने के इंडिया गेट पर उमड़ी भीड़ और यूपीएससी में अंग्रेज़ी के बढ़ते प्रभुत्व का विरोध कर रहे संसद का घेराव करने वाले छात्र वास्तव में उसी शांतिपथ पर बढ़ते हुए अपनी मांगों को रख रहे थे, जिसका रास्ता अन्ना हजारे ने सुझाया है. देश भर से ऐसे ही उदाहरण सामने आने लगे.
राजनीतिक स्तर पर अभी ऐसे उदाहरण सामने नहीं आ रहे थे. इसी बीच अक्टूबर, 2011 में हरियाणा के हिसार में उपचुनाव हुए. अन्ना हजारे ने हिसार की जनता से आह्वान किया कि चूंकि कांग्रेस जनलोकपाल के माध्यम से आपके हाथों में ताक़त नहीं देना चाहती, इसलिए आप इसे हराइए. कांग्रेस चुनाव हार गई. अन्ना के साथ आकर जनता ने तभी इस बात की आहट दे दी थी कि देश एक बार फिर राजनीतिक जागरूकता के उसी दौर में लौट रहा है, जिसकी एक बानगी 70 के दशक में दिखाई दी थी. लेकिन 70 के दशक में राजनीतिक जागरूकता और आज की राजनीतिक जागरूकता में फ़र्क है. अन्ना ने इंदिरा हटाओ की तर्ज पर सोनिया हटाओ की अपील नहीं की. अन्ना की अपील है सिस्टम में व्यवहारिक परिवर्तन लाने की. जनता की भागीदारी बढ़ाने की व पक्ष और पार्टियों द्वारा किए गए सांविधानिक अतिक्रमण को ख़त्म करने की. राजनीति से जातिवाद-क्षेत्रवाद व परिवारवाद ख़त्म करने की. अन्ना राइट टू रिजेक्ट, राइट टू रिकॉल, नन ऑफ दि एबव व ग्राम पंचायतों को और ताक़त देने जैसे मुद्दों की मांग करते रहे. पिछले दो वर्षों से अन्ना अपने इस संदेश को लेकर जनता के बीच जनतंत्र यात्रा करते रहे. उस यात्रा के बाद यह पहला मौक़ा था, जब देश में कोई बड़ा चुनावी माहौल बना था. इसलिए पांच राज्यों के इस विधानसभा में जितनी परीक्षा अन्ना हजारे के सिद्धांतों की थी, उससे कहीं ज्यादा इन राज्यों की जनता की थी कि वे वास्तव में बदलाव चाहते हैं या उसी बदहाल राजनीतिक ढर्रे पर बने रहना चाहते हैं. और इन चुनाव परिणामों ने स्पष्ट कर दिया कि लोग बदलाव चाहते हैं, बस उसे सही नेतृत्व और सही पथप्रदर्शक की ज़रूरत है.
सभी राज्यों में ज्यादातर मौजूदा विधायक मंत्री चुनाव हार गए, जनता ने उनकी अकर्मण्यता को नकारा. संसदीय इतिहास में पहली बार दिल्ली से 70 में से 55 और छत्तीसगढ़ में 90 में से 49 विधायकों को पराजय का मुंह देखना पड़ा. छत्तीसगढ़ में भाजपा ने अपने 50 में से 37 विधायकों को दोबारा मौक़ा दिया था, जिनमें से 21 चुनाव हार गए. वहीं कांग्रेस ने 38 में से 34 विधायकों को फिर से मौक़ा दिया था, जिनमें से 27 चुनाव हार गए. राजस्थान में गहलोत सरकार के 22 मंत्री चुनाव हारे. मध्य प्रदेश में शिवराज के 10 मंत्री चुनाव हार गए. दिल्ली में कांग्रेस के नेता चौधरी प्रेम सिंह 1958 से आज तक लगातार चुनाव जीतते आ रहे थे, वह भी बदलाव की इस बयार में बह गए. वास्तव में यह केवल एंटी इन्कमबैंसी नहीं है. यह नाराज़गी है उन प्रत्याशियों से, जो स़िर्फ वादे के सहारे अपनी राजनीतिक ज़मीन तलाश रहे थे. जनता ने उन्हें नकारा है.
बदलाव की इस मुहिम की पृष्ठभूमि एक दिन में तैयार नहीं हुई है. इसे समझने के लिए हमें दो वर्ष पीछे लौटना होगा, जब अन्ना हजारे ने जंतर-मंतर और रामलीला मैदान से जनलोकपाल की मशाल जलाई थी. देश ने करवट बदली और फिर से एक बार ‘सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है’ जैसे जुमले लोगों की ज़ुबान पर चढ़ने लगे. उसी दौर में अन्ना ने कहा था कि मैं तो एक निमित्त मात्र हूं, असली लड़ाई तो आपको लड़नी है. देश के युवा बधाई के पात्र हैं कि वे उस मशाल को लेकर आगे बढ़े और बदलाव के साक्षी बने.
बदलाव की इस बयार ने जातिवादी और क्षेत्रवादी राजनीति के दायरे को भी तोड़ा. हालांकि, जिन राज्यों में चुनाव हुए वहां मुख्य पार्टी के तौर पर भाजपा और कांग्रेस ही थी, लेकिन तीसरा कोण बनने के लिए सपा और बसपा ने पूरी ताक़त झोंक दी थी. मध्य प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सपा का खाता भी नहीं खुल सका. पिछली बार सपा को मध्य प्रदेश और राजस्थान में एक-एक सीट मिली थी. दिल्ली और छत्तीसगढ़ में भी उसका कोई प्रत्याशी नहीं जीत सका. बसपा भी 17 से आठ सीटों पर आ गई. दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ के पिछले विधानसभा चुनावों में पार्टी को 17 सीटें मिली थीं. इस बार सीटों का आंकड़ा आठ पर सिमट गया. दोनों ही पार्टियों का आधार जातिवाद है और उसी में वह अपना भविष्य तलाश रही हैं. जातिवाद से आगे बढ़कर क्षेत्रवाद की तरफ़ चलें तो इसे आधार बनाकर चुनाव लड़ने वाले दलों को भी मतदाताओं ने आईना दिखाया. दिल्ली में अपनी पार्टी के पक्ष में प्रचार करते हुए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार दिल्ली में घूम-घूमकर बिहारी आबादी को अपनी माटी की याद दिलाते हुए वोट मांग रहे थे, बिहारी गौरव की याद दिला रहे थे. लेकिन जब परिणाम आए तो जदयू के 27 प्रत्याशियों में 26 की ज़मानत ज़ब्त हो गई. जिस मटियामहल विधानसभा क्षेत्र से जदयू का प्रत्याशी चुनाव जीता है, वहां बिहारी मतदाता नगण्य हैं. मुख्यमंत्री वहां सभा करने भी नहीं गए थे. साफ़ है, मतदाताओं ने मत क्षेत्र के आधार पर नहीं, व्यक्ति के आधार पर दिया.
अन्ना हजारे ने राजनीतिक दलों में स्वच्छता के लिए तक़रीबन हर मंचों से कहा कि राजनीति को अगर अपनी खोई हुई आभा हासिल करनी है, तो राजनीति से अपराधी प्रवृत्ति के लोगों को बाहर करना होगा. मप्र विधानसभा में इस बार चुने गए विधायकों में 67 प्रतिशत प्रत्याशी ऐसे हैं, जो पढ़े-लिखे हैं. यह आंकड़ा मध्य प्रदेश ही नहीं, बल्कि हालिया संपन्न हुए चारों राज्य मप्र, राजस्थान, दिल्ली और छत्तीसगढ़ में सबसे ज्यादा है. मध्य प्रदेश में भाजपा, कांग्रेस और बसपा तीनों दलों के कुल 120 प्रत्याशियों में से 77 प्रत्याशी ऐसे थे, जिनके ख़िलाफ़ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं और यह सभी चुनाव हार गए.
राजनीतिक दलों के भीतर विचार मंथन चल रहा है. नए पद, नए नेतृत्व और मेकओवर पर चर्चाएं हो रही हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि उन्हें भी यह लगने लगा है कि जनता के भीतर से अब ऐसी आवाज़ें उठने लगी हैं कि अगर अब भी वे न बदले, तो बदल दिए जाएंगे. चुनावी माहौल के भीतर से निकले यह निष्कर्ष यह साबित करते हैं कि देश की जनता सकारात्मक परिवर्तन की ओर देखती रही है और देख रही है. बस उसे एक नेतृत्व की ज़रूरत रही है और अब भी है. जब भी जड़ हो चुकी व्यवस्था को बदलने की कोशिश हुई, उसे एक नायक की ज़रूरत पड़ी.
दिल्ली में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले विधायकों की संख्या में सात फ़ीसदी की कमी आई है. बीते चुनाव में 43 फ़ीसदी (29 संख्या) विधायक विधानसभा में पहुंचे थे. यह आंकड़ा इस बार 36 फ़ीसदी (25 संख्या) तक सिमट गया है. 94 गंभीर अपराध वाले उम्मीदवारों में से 74 को नकारा. नक्सल प्रभावित राज्य छत्तीसगढ़ अपराध की दृष्टि से चारों राज्यों में सबसे स्वस्थ विधानसभा के तौर पर उभरकर आया है यानी इस बार वहां के सदन में सबसे कम अपराधी पहुंच सके. इन चुनावों में परिवारवाद को भी आघात पहुंचा. कई नेताओं के पुत्र-पुत्री चुनाव हार गए. राजनीतिक बपौती का दंभ टूटा. शीला दीक्षित का नाम ऐसे ही उदाहरणों में शामिल किया जाएगा.
इसी वर्ष नवंबर महीने में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अन्ना हजारे की एक सभा होनी थी, जिसमें प्रदेश के सभी विश्वविद्यालयों से छात्र शिरकत कर रहे थे. स्वास्थ्यगत कारणों से अन्ना हजारे उस सभा में शामिल नहीं हो पाए. उन्होंने विश्वविद्यालय छात्र संघ के पदाधिकारियों को संबोधित करते हुए पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने कहा कि लंबे समय से मैं यह कहता आ रहा हूं कि छात्र-शक्ति ही राष्ट्र-शक्ति है. अतीत में छात्र राजनीति ने हमेशा ही केंद्रीय राजनीति की दिशा तय की है. लेकिन पक्ष और पार्टियों ने इन्हें अपना ज़ेबी संगठन बना लिया है. छात्रों को इससे मुक्त होना होगा, तभी सही दिशा छात्र राजनीति की महत्ता स्थापित हो पाएगी. विश्वविद्यालय के छात्रों ने इसे आधार बनाते हुए एक अभियान छेड़ दिया. दिसंबर के पहले हफ्ते में चुनाव के परिणाम आए और विश्वविद्यालय छात्रसंघ की एक सीट को छो़डकर सभी सीटों पर पार्टियों की छात्र इकाई के पदाधिकारी चुनाव हार गए और निर्दलीय उम्मीदवारों ने विजय हासिल की.
चुनावी परिणामों के उलटफेर के ज़िम्मेवार कारकों में इस बार नन ऑफ दि एबव (नोटा) को भी जोड़ा जा रहा है. हालांकि, चुनावों से पहले ही इस बात के कयास लगाए जा रहे थे कि नोटा केवल प्रतीकात्मक विरोध का टैबू भर बनकर रह जाएगा. अन्ना हजारे ने सुप्रीम कोर्ट के नोटा की व्यवस्था के फैसले पर कहा था कि नन ऑफ द एबव ही हमें राइट टू रिकॉल और राइट टू रिजेक्ट की ओर ले जाएगा. यही हो रहा है. नोटा को लेकर अगर विधानसभा चुनाव परिणामों की समीक्षा करें, तो स्पष्ट होता है कि मतदाताओं ने इसे केवल प्रतीकात्मक विरोध के तौर पर ही नहीं लिया, बल्कि कई सीटों पर हार-जीत के खेल को नोटा के अंतर्गत पड़े वोटों ने ही बदला.
चार राज्यों में 16 लाख से अधिक मतदाताओं ने नोटा को चुना. कई सीटों पर हार-जीत के अंतर से ज्यादा नोटा विकल्प आज़माने वालों की संख्या थी. छत्तीसगढ़ में तेरह उम्मीदवारों के जीत के अंतर से ज्यादा वोट नोटा पर पड़े. राजस्थान की 11 सीटों पर यही स्थिति रही. राजस्थान में जदयपुर की आठ सीटों में से पांच सीटों पर नोटा तीसरे नंबर पर रहा. इन सीटों पर मतदाताओं ने भाजपा-कांग्रेस के बाद सबसे ज्यादा बटन नोटा के दबाए. मध्य प्रदेश में 6 लाख 43 हजार 144 मतदाता ने ईवीएम और डाक मतपत्र में नोटा यानी ‘इनमें से कोई नहीं’ का इस्तेमाल किया. ग़ौरतलब है मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ, जहां नोटा का सबसे ज्यादा प्रयोग हुआ है, वहां पर अन्ना ने अपनी जनतंत्र यात्रा के दौरान लोगों से अपनी पसंद का उम्मीदवार न होने की स्थिति में नोटा के प्रयोग की अपील की थी. अन्ना की ओर से जनसंसद अभियान समिति ने भी नोटा के बारे में जागरूकता अभियान चलाया था, जिन्हें सरकारी विरोध का सामना भी करना प़डना था.
जनता ने सही मायने में अब अपने लोकतांत्रिक मूल्यों को समझ लिया है. यही वजह है कि पांच राज्यों के इन चुनावों में रिकॉर्ड मतदान हुआ. मध्य प्रदेश में अब तक सर्वाधिक मतदान प्रतिशत 72.52 हुआ. दिल्ली में 66 प्रतिशत मतदान हुआ और इसमें पुरुषों और महिलाओं के मताधिकार की भागीदारी बराबरी की रही. वर्ष 2008 के विधानसभा चुनावों में मतदान का कुल प्रतिशत 57.58 रहा था. राजस्थान में भी ऐतिहासिक मतदान हुआ और 75.20 प्रतिशत मत पड़े. यहां महिलाओं ने 75.51 प्रतिशत मतदान कर पुरुष मतदाताओं को (74.91 प्रतिशत) पीछे छोड़ दिया. छत्तीसगढ़ में 77 प्रतिशत मतदान हुआ.
तो यह माना जाए कि देश अब राजनीतिक पैमाने पर भी न केवल संभल रहा है, बल्कि नई-नई इबारत लिख रहा है. पिछले दो वर्षों से समूचा देश जनलोकपाल के लिए लड़ रहा है और यह देश की राजनीतिक जागरूकता का ही परिणाम है कि सरकार को आख़िर इस दिशा में गंभीर होना ही प़डा. इस बदलाव की क़ीमत तब और बढ़ जाती है, जब समूचा देश परिवर्तन के रास्ते पर बढ़ चला है और आंदोलन में शुरू से अंत तक एक पत्थर नहीं चला, किसी बस का कांच नहीं टूटा, कहीं कर्फ़्यू नहीं लगा, कोई हताहत नहीं हुआ. क्योंकि यह बदलाव प्रतिरोध की संस्कृति का प्रतिनिधित्व नहीं करता. यह केवल अपनी बुनियादी मांगों को हासिल करने की लड़ाई है और यह बुनियादी ज़रूरतें हमारे संविधान में व्याख्यायित हैं. इसलिए देश वही मांग रहा है, जिसपर उसका अधिकार है. संविधान के ही रास्ते पर चलकर लक्ष्य को हासिल करने की मांग अन्ना हजारे ने हमेशा की है और यह सफलताएं उनके इस विचार को सौ फ़ीसदी जायज़ साबित करती हैं.
राजनीतिक दलों के भीतर विचार मंथन चल रहा है. नए पद, नए नेतृत्व और मेकओवर पर चर्चाएं हो रही हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि उन्हें भी यह लगने लगा है कि जनता के भीतर से अब ऐसी आवाज़ें उठने लगी हैं कि अगर अब भी वे न बदले, तो बदल दिए जाएंगे. चुनावी माहौल के भीतर से निकले यह निष्कर्ष यह साबित करते हैं कि देश की जनता सकारात्मक परिवर्तन की ओर देखती रही है और देख रही है. बस उसे एक नेतृत्व की ज़रूरत रही है और है. जब भी जड़ हो चुकी व्यवस्था को बदलने की कोशिश हुई, उसे एक नायक की ज़रूरत पड़ी. 1857 की आज़ादी की लड़ाई की असफलता के कारणों में पहली वजह यही गिनाई जाती है कि उस लड़ाई का कोई नायक नहीं था. इस लड़ाई के नायक के तौर पर समूचा देश अन्ना हजारे की ओर देख रहा है इसलिए अन्ना खुद भी मानते हैं कि मैं दूसरी आज़ादी की निर्णायक लड़ाई लड़ रहा हूं और इस लड़ाई के लिए अगर शहादत देनी पड़ी, तो पहला शहीद मैं ही हूंगा.
इस पूरे संदर्भ को हमें देश काल के अंतर से समझना होगा. महात्मा गांधी ने सत्य के लिए आग्रह के माध्यम से इस देश को बदला. नेल्शन मंडेला ने मानवता को वरीयता देकर समरसता का मार्ग सुझाया. अन्ना उसी कड़ी के हिस्से में आगे बढ़ते हुए इस देश-काल में सकारात्मक बदलाव के पुरोधा के तौर पर स्थापित हो रहे हैं. समाज को बल मिले, इसलिए आइए शांति के इस नवदूत को अपने स्तर से और बल प्रदान करें.