1
प्रश्न बिजूका का
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खेतों में खड़ा हँसता है बिजूका
खेतिहर की नादानी पर आज
कहाँ बचे अब वे पागल परिंदे
जिनसे भय था फसलों के
नष्ट हो जाने का
धान, गेहूँ, चना, दालों को
चुग-चुग खाने का
इस ढीठ समय में अब
थोड़े-मोड़े बचे परिंदे
डरते हैं कहाँ
एकदम पाँवों के पास जम
दानों को चुगते हुए,
आँखों की ओट की भी
जरूरत रही कहाँ
हाथों पर रखे
चावल-दालों को
बड़े मन से खाते
ये कम बचे ढीठ पंछी
फिर ऐसे में क्यों
है बिजूका की जरूरत ?
क्या बच गए परिंदों को
बचाना नहीं है ??
पूछता फिर रहा
खुद बिजूका!
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2
गाछ ने कहा था
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गाछ ने कहा था इक दिन
मुझे मारोगे, तुम मरोगे
समझ नहीं पाया
भूख का सताया मानव
उसका पेट कभी भरता नहीं
सदा सुरसा सम मुँह खोले
लेता रहता बलि
गाछों की, माटी की
नदियों की, पोखर-तालाबों
और
मनुष्य के हिज़ाबों की
कितने उसने पंछी मारे
कितने तो बिन गिने पशु
उसकी बंदूक-गोली से
स्वर्ग सिधारे
खेतों की ली उसने जान
समझा नहीं, उसमें थे
किसी बेबस के प्राण
अब वह बचे-खुचे
पेड़ों के पीछे पड़ा है
उनको भी करने हलाक
अपनी जिद पर अड़ा है
लो, जंगलों ने भी ठान लिया
गाछों का बदला गिन-गिन लेगा
विनाश ऐसे में कौन पाया रोक
कल तुमने,
आज प्रकृति
तुम्हें जार-जार रूलाएगी।
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3
बोनसाई
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बोनसाई नहीं है जिंदगी
ना ही जीवन का नाम
पतझड़
सूखी पत्तियों पर बिछा
वह तो एक
निर्बाध बहती
हर पल की है नदी
शैल की ऊँचाई
रत्नाकर की गहराई
बोनसाई कहाँ है जिंदगी
केवल घर की
चहारदीवारी में कैद
मेहमान कक्ष में सज
अतिथि को आकर्षित करना
स्त्री का प्रारब्ध नहीं
वह बहती रहे
सदा छल-छल
कल-कल
बढ़ती रहे आगे ही आगे
इसी में छुपी बैठी
उसके जीवन की सार्थकता
नहीं!
केवल बोनसाई
नहीं है उसकी जिंदगी!
-अनिता रश्मि