ब्रज श्रीवास्तव द्वारा लिखित एक संस्मरण
गुमनाम सा लेखक और किताबों का आशिक
सुलखान सिंह हाड़ा
नरेन्द्र जैन से रिश्ता बनने के दौरान मैंने उनसे जब पूछा कि शहर के सैकड़ा भर कवियों में से आप किसे पसंद करते हैं तो वह थोड़ा रूके और बोले, मुझे एक ही कवि या लेखक, पसंद है जो किताबों का दीवाना है और समकालीन दृश्य के साथ साहित्य का पुरा दृश्य पर भी अपनी नजर रखता है, उस शख्स का नाम है.. सुलखान सिंह हाड़ा. मैं तब तक उन्हें जानता भी नहीं था. यह ९६ की बात है.
पर मन ही मन उन्हें तलाशता रहा, मिले नहीं.
फिर एक दिन, जब मैं शलभ श्री राम सिंह के घर गया तो एक शख्स थमकर कुछ साहित्यिक बात कर रहा था, जब वह चला गया, तो मैंने पूछा कि यह कौन थे. शलभ जी ने कहा.. यह सुलखान सिंह हाड़ा हैं, मैंने कहा कि अच्छा.. और मेरी एक तलाश को एक सिरा मिला.
मैंने सोच लिया था एहि सन हठि करहों पहचानीसाधु ते होय न कारज हानी*
ज़ाहिर है मेरा कारज सबद था,अदब था,और ये सज्जन इस दुनिया के मेरे लिए साधु हो सकते थे।नरेन्द्र जैन और शलभ की पंक्ति में एक और नाम हो सकते थे।
फिर हम मिलने लगे. परिचय होने लगा, सड़क के किनारे खड़े होकर बतकहियां होने लगीं. यह तो तय था कि सुलखान सिंह हाड़ा का स्थान, गंभीर और अध्ययन शील साहित्यकारों में था. उनसे किसी भी विषय पर बात करो तो वो बहुत पीछे से उस विषय को संदर्भ सहित प्रस्तुत कर सकते हैं. अंततः मैंने यह अपने मन में स्थापित कर लिया कि वह विशेषज्ञ तो हैं मध्यकालीन साहित्य के और छायावादी सिद्धांतों के. उनकी मूल तासीर, कविता लिखते हुए आत्ममुग्धता की नहीं है, साहित्य के रसिकता की है, साहित्य की संगत में वक्त गुजारना उनके मन का काम है. किताबों का इतना बड़ा दीवाना विदिशा में तो कोई नहीं।इनकी निजी पुस्तकालय में लगभग तीन हजार किताबें हैं।अभी भी किताबें खरीदने के लिए वह उतने ही उद्यत रहते हैं जितने बच्चे खिलौने के लिए या महिला जेवर के लिए।कथाकार और वर्षों तक साक्षात्कार जैसी पत्रिका के संपादक रहे हरि भटनागर अक्सर रचना समय के विशेषांक मुझे भेजते हैं और सुलखान सिंह हाड़ा उसे लपक के क्रय कर ले जाते हैं।इतना ही नहीं वह किताबों को करीने से रखने के लिए भी बजिद होते हैं।उनके पास पढ़ी हुई किताब भी नई सी मिल जाएगी,एक पोलिथीन में रखी हुई।कहा जा सकता है कि किताबें उनके लिए प्राणों से भी प्यारी होतीं हैं।उनकी बेटी शर्मिष्ठा ने बताया था कि ” किताबें पढ़ने के अलावा किताबें संभाल कर रखने का भी उन्हें उतना ही शौक है उनकी लाइब्रेरी की किताबें पढ़ने से पहले उन्हें किस तरह से पलटा जाए कि वह बिना पढी़ हुई लगे।यह सीखना जरूरी है नहीं तो डांट खाने के लिए तैयार रहो, उनके किताब पढ़ने का तरीका भी बड़ा विचित्र है ,वह जब भी किसी नई किताब को उठाते, तो हमेशा उसे बीच से खोलकर कुछ प्रश्नों पर सरसरी निगाह डाल कर जांच लेते की पुस्तक कैसी होगी पापा इसको को पुस्तक की आत्मा ग्रहण करना बोलते हैं”
हाड़ा जी से परिचय और गाढ़ा तब हुआ जब मैं हर तीन माह में उनके घर जाने लगा था, बहाना होता था, वसुधाऔर पहलको देना, मैंने उन्हें सदस्य जो बना लिया था, कई बार बीच में भी मुलाकात हो जाती, क्योंकि जब हम नये मित्र, आलोक, आशुतोष, रवींद्र, दफैरून, मिलकर गोष्ठी करते तो चाहते कि हाड़ा जी जरूर आयें. और हाड़ा जी हमारी नई तरह की पहल में आते, और गहन चर्चा करते हुए अलग से रेखांकित होते. फिर पता नहीं क्या हुआ कि उन्होंने हमारी गोष्ठियों में आना बंद कर दिया. इधर हम सब गुस्से में होते कि यह क्या बात हुई।
एक बार ज़रूर मैं उनके अनअपेक्षित व्यवहार पर चकित रह गया. दरअसल मैं उनसे कह रहा था कि हम लोग कार्यक्रम करते हैं तो आपको या तो आना चाहिए या न आने का कारण मिलने पर तो बताना चाहिए, तो वह तुनक कर बोले, नहीं आना, न ही बताना, जो करना हो कर लीजिए, मैं ठगा रह गया था. मेरे कहने को उनके ग्रहण करने ने इस अंदाज में लिया कि मुझे और निराशा हुई. पर मैंने ही कुछ बदलाव अपने अंदर करने का सोचा. लेकिन यह हमारे समूह के लिए जवाब था जो कदाचित किसी वजह से रचनात्मक काम करने के बावजूद विरोध झेलने लगा था.
हाड़ा जी प्रायः स्मृति के कार्यक्रमों में शामिल होते रहे हैं और अपना आलेख बांचकर ईमानदार श्रद्धांजलि देते हैं, शलभ पर उनके पत्र की गूंज हमेशा मेरी स्मृति में मौजूद रहती है. मेरे स्मृतिशेष पिता श्री घनश्याम मुरारी पुष्प पर उनकी स्मृतियों को मैंने चाहा, पर वह या तो अति भावुक होने की आशंका में नहीं दे सके या स्वास्थ्यगत वजूहात से, तीसरी वजह मुझे खोजना भी नहीं है .रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति ने एक जगह लिखा है।
एक बार मैं उनसे मिला कि आप अखबार में कुछ लिखिए
उन्होंने योजना बनाई मैंने उनके नाम को बुक कर लिया।लेकिन समय पर वे उसे नहीं दे सके।मैं परेशान हुआ।फिर यह समझा कि वे अपने पढ़ने में इतना डूब जाते हैं कि कि लिखना उनके लिए मुश्किल होता होगा।रवीन्द्र की इस बात से मेरी उनसे पिताजी पर न लिखने की वृत्ति को भी विवशता मान कर संतुष्ट हो सका।
हाड़ा जी वैसे स्मृतियों से बहुत समृद्ध हैं, उन्हें कामायनी के अनेक पद, याद हैं,
वह लिखते भी हैं तो प्रसाद की शैली में ,छायावाद की रंगत लिए हुए,
देखिए न ये पद ….
विरहानल के स्फुलिंग वे
उड़े सभी जुगनू बनकर
व्योम पटल पर चपला तरूणी
सीख रही लिखना अक्षर।
या यह
पलकों का उठना गिरना भी
कितना मादक होता है।
एक प्राप्य के हित ही नेही
निखिल विश्व को खोता है।
ये दोनों पद उनके संग्रह देवदारू से लिए गए हैं।हमारे शहर में रहकर हिन्दी के लिए अप्रतिम योगदान करने वाले आलोचक विजय बहादुर सिंह ने उनके लिए लिखा है।
सुलखान सिंह मेरी कक्षा के छात्र थे,अपने चेहरे मोहरे से तो कम पर अपनी चुप्पी और एकाग्रता से वे जरूर मुझे प्रभावित करते थे,बाद में पता लगा कि उनके प्रिय महाकवि
प्रसाद हैं।यह भी जानकारी हुई कि प्रसाद जी की भाषा उनकी गति,और लय भी उन पर बुरी तरह छाए हुए हैं।
बिल्कुल सही अब भी हम प्रसाद पंत निराला की अनेक पंक्तियां हाड़ा जी की जुबान से सुन सकते हैं
तो यह हैं सुलखान सिंह।जो स्मृति संपन्न हैं,अध्ययन निपुण हैं और उतने ही जिम्मेवार एक इंसान।परिवार के लिए और मित्रों के लिए विश्वसनीय भी।
लेखकों की खुशकलामियों से वह आपको बहुत कुछ दे सकते हैं, और हां इतिहास के ज्ञान के लिए भी वह जाने जाते हैं, पर यह मेरा अारोप है कि उन्होंने अपना विस्तार विदिशा के बाहर लगभग न के बराबर होने दिया. मेरे ख्याल से यह प्रसिद्धि पाने की लालसा नहीं कही जाती, बल्कि अपने कौशल को बड़े फलक पर न भेजना कहलाता है. आखिर स्वांत सुखाय का स्लोगन देने वाले कवि ने सबसे ज्यादा लोक सुखाय का साहित्य रचा ही नहीं प्रबंधित भी किया,राम की कहानी को बाल्मिकी सृजन से उठाकर,श्लोकों और पुराने छंदों से बचकर जायसी के छंद को भी नये बाने में लपेटकर अगर तुलसी व्यवस्थित रूप से एक महाकाव्य लिखते हैं तो वे केवल इसे खुद के सुख के लिए नहीं लिख रहे थे,बल्कि कवि धर्म का निर्वहन करते हुए उसके प्रसार का मधुर स्वप्न भी देख रहे थे।खैर हम उम्मीद करते हैं कि रंग लाएगी उनकी भी फाकामस्ती एक दिन।और फिर उन्होंने केवल छायावादी तेवर में ही नहीं लिखा,अन्य विधाओं में भी लिखा है।
उन पर बात होती भी है तो उनकी अध्ययन शीलता पर जाकर ठहर जाती है।यही समीचीन भी है। किसी ने कहा भी है कि पढ़ो पांच किलो और लिखो पचास ग्राम।बिना पढ़े लिखना एक व्यर्थ परिश्रम में तब्दील होकर रह जाता है।हमारी दुनिया में हमारे वरिष्ठ जब भी आत्मीय परामर्श देंगे तो यही कहेंगे पढ़ो और पढ़ो,और पढ़ो।तो हाड़ा जी इस मशक्कत को आसानी से कर पाते हैं।यही बात उन्हें विशेष एवं असाधारण बनाती है।
मैं भी उनकी अध्ययनशीलता से प्रभावित हूं, काश मैं भी इतना सारा पढ़ पाता, जितना उन्होंने पढ़ा है, वैसे पढ़ता तो मैं भी खूब हूं लेकिन संदर्भ सहित मौके पर
उद्धरण देने का विवेक मुझमें वैसा कहां.ऐसा हो ही नहीं सकता कि आप किसी साहित्यकार का नाम लें और वे उसके बारे में आगे जिक्र न बढ़ाएं।प्रसाद का स्कंदगुप्त हो,यशपाल,राहुल सांकृत्यायन हो,या जब्त की हुई कविताएं हों वे सब जानते हैं।मैंने एक बार ग्यानरंजन के गद्य संग्रह कबाड़खाना पर चर्चा की तो उन्होंने रामनाथ सुमन के बारे में सब कुछ बता दिया।कबाड़खाना में खुद ग्यानरंजन ने एक निबंध अपने पिता और छायावादी अध्येता रामनाथ सुमन पर केंद्रित लिखा है।इतना ही नहीं,वह चेखव,टेरी इगल्टन,बर्तोल्त ब्रेख्त,पाब्लो नेरूदा,दास्तोवयस्की,मिलान कुंदेरा,काफ्का और ज्यां पाल सार्त्र के बारे में भी आपको चार बातें बड़ी आसानी से बता सकते हैं।मुझे हर बार बस यही अचरज होता है कि यह इतने अद्यतन कैसे रह लेते हैं।पुलिस की नौकरी में रहते हुए,आम आदमी की तरह पारिवारिक जिम्मेदारियां निभाते हुए,सेहत से उलझते सुलझते हुए उन्होंने कब आंखों से काजल चुरा लिया,कब इतना पढ़ लिया,जान लेना कठिन है।वह मेधावी साहित्यकार हैं लेकिन ऐसे जिनका लिखा कदाचित विदिशा की परिधि में ही रह गया।पर यह कथन भी कदाचित असत्य हो क्योंकि हम जिसे मुख्य धारा मानते हैं उसे कुछ लोग मुख्य धारा नहीं मानते,उनका उड़ने का आकाश कोई दूसरा होता है।हो सकता है हाड़ा जी का आकाश दूसरा हो।है ही विदिशा
उनके संस्मरण अभी तक लल्लूसिंह हैरां,शलभ जी,विजय बहादुर सिंह शंभुदयाल शर्मा विमल ,और महाराज सिंह हाड़ा पर आए हैं,।यह आसान भाषा में गहन की शैली में लिखे गए बड़े रोचक लेख हैं।उन्होंने बच्चन की आत्मकथा पढ़ने के बाद भी एक अच्छा लेख लिखा है।
।दरअसल विदिशा में शायर लल्लू सिंह हैरां से लेकर नर्मदेश भावसार तक अनेक ऐसे कवि शाइर हैं जिन्होंने महदूदियत को ही वरेण्य किया।वैसे भी यह काम खुद कवि लेखक का नहीं है,उनके मित्रों का है,प्रशंंसकों का है,पाठकों और उनकी बिरादरी के लोगों का है कि वे अपने प्रिय लेखक की बातों और रचनाओं का प्रसार करें।सुलखान सिंह हाड़ा इतने अकिंचन नहीं है,इतने मित्रहीन नहीं हैं।उनके अति प्रशंसक और कृतग्य मित्रों की एक लड़ी विदिशा में है जिनमें लक्ष्मीकांत कालुस्कर ,धर्म चतुर्वेदी,व्यंग्यकार डा सुरेश गर्ग,और केवल कृष्ण पंजाबी सहित अनेक हैं।जिन्होंने एक विराट कार्यक्रम विदिशा में किया था,जिसकी अध्यक्षता विजय बहादुर सिंह ने की थी,जिसमें मैंने भी दो बातें कहीं थीं।उन पर यह एक यादगार आयोजन था,ऐसी मित्रताएं बड़भागियों को ही मिलतीं हैं वरना साहित्य और राजनीति की संगतों की दुनिया बहुत ज्यादा स्वार्थ और आर्टिकुलेटिव हो चली है।
एक कविता की याद आ रही है
टालस्टाय और साइकिल
———————
आपने कभी सोचा है
महान ताज में क्यों नहीं रही
वह पहले सी चमक
वह पहले सी गूंज
रोम के घंटे में
वह आश्चर्य पहला सा
दीवार में चीन की
पर क्यों क्यों
आपकी गली से गुज़रती
हुई
एक जर्जर सायकिल की छोटी सी घंटी में
वही जादू है
जो उस दिन था जब टालस्टाय ने
पहले पहल देखी थी सायकिल
केदारनाथ सिंह
टाल्सटाय और सायकिल केदारनाथ सिंह की एक कविता है,इसके संदर्भ यहां केवल इस बात से मिलते हैं कि हाड़ा जी ने विदिशा की सड़कों को अपनी सायकिल से नापा है,वह अपनी गाय के लिए घास लेने एक सायकिल से ही जाते रहे।अपनी नौकरी और मुलाकातें इसी वाहन के सहारे करते रहे।
एक उपकार उनका मुझ पर साहित्येतर है ।जब मुझे स्लिप डिस्क का देहदुख मिला तब इन्होंने आग्रह कर कर के अपने पड़ोसी योग विशेषग्य केवल्य रथ उर्फ अनिल गुप्त से राब्ता कायम कराया था।उनके जतन से ही चमत्कार की तरह मुझे उस रोग से मुक्ति मिली थी सत्तर पार होने के बावजूद वह अब भी साइकल पर पैडल मारते हुए आगे बढ़ रहे हैं।
उनके रचे में अभी एक कविता संकलन देवदार है।और अप्रकाशित संग्रहण का तो हिसाब नहीं,मुमकिन है उनके पास अपने लिखे के खजाने के खजाने निकलें,आखिर कितने कार्यक्रमों में उन्होंने लिखा होगा। कितनी जगह वक्तव्य दिए होंगे।सार्वजनिक वाचनालय के नियमित सदस्य और कार्यकारिणी में होते हुए कितना पढ़ा होगा।
जिस तरह से उन्होंने अपने होने से विदिशा में साहित्य के वातावरण निर्माण में अपना योगदान दिया है,उस वास्ते मैं उन्हें विदिशा की बगिया का माली कहता रहा हूं।उनका एक पद यहां उल्लेख पाना चाहता है।
मैं उद्यान लगाऊं कैसे
यद्यपि मेरा मन माली
हुआ उदवहन सिंच,अंशु ने
शाखें सब झुलसा डालीं
ब्रज श्रीवास्तव
9425034312