बजट आम तौर पर वह रेखाचित्र होता है, जिसके तहत कोई भी सरकार अगले एक वर्ष तक काम करने की अपनी योजना जनता के सामने रखती है. केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने वित्तीय वर्ष 2015-16 के लिए बीती 28 फरवरी को संसद में बजट पेश किया. इस बजट को देखकर आम राय यही देखने को मिली कि यह आम जनता को निराश और कॉरपोरेट घरानों को खुश करने वाला है. यह बजट देश के क़रीब 19 प्रतिशत अल्पसंख्यकों के चेहरे पर मुस्कुराहट लाने में भी असफल रहा. अल्पसंख्यकों की शिकायत यह रही कि बजट में उनके लिए इस बार केवल चार करोड़ रुपये का साधारण इज़ाफ़ा किया गया, जबकि पहले यह इज़ाफ़ा सैकड़ों करोड़ रुपये का हुआ करता था. ग़ौरतलब है कि 2009-10 के बजट में अल्पसंख्यक कल्याण की मद में 740 करोड़, 2010-11 में 760 करोड़, 2011-12 में 330 करोड़ और 2012-13 में 305 करोड़ रुपये का इज़ाफ़ा किया गया था. अल्पसंख्यकों को उम्मीद थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सबका साथ-सबका विकास का नारा हमेशा लगाते रहे हैं, इसलिए अपने इस पहले बजट में वह अल्पसंख्यकों के लिए कोई बड़ी घोषणा करेंगे. 2013-14 में चूंकि अंतरिम बजट पेश किया गया था और अल्पसंख्यकों के लिए 23 करोड़ रुपये का इज़ाफ़ा भी किया गया था, इसलिए किसी को ज़्यादा शिकायत नहीं थी, लेकिन इस बार केवल चार करोड़ रुपये के मामूली इज़ा़फे से अल्पसंख्यकों को बड़ी मायूसी हुई है.
अल्पसंख्यकों की दूसरी शिकायत यह है कि अरुण जेटली ने नई मंजिल नामक जो योजना शुरू करने का बजट में ऐलान किया है, उसका नाम तो 2006 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के दौरान केंद्रीय अल्पसंख्यक मंत्रालय द्वारा तैयार किए गए एक प्रेजेंटेशन में भी शामिल था. इसके अलावा अल्पसंख्यक मामलों की मंत्री नजमा हेपतुल्लाह ने 24 जुलाई, 2014 को लोकसभा में दिए गए अपने बयान में भी अल्पसंख्यकों के लिए मोदी सरकार की ओर से शुरू की गई योजनाओं की घोषणा करते समय नई मंजिल योजना का नाम लिया था. उन्होंने बताया था कि यह योजना मदरसों के उन विद्यार्थियों के लिए होगी, जिन्होंने अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ दी थी और शिक्षा के मामले में अपने साथियों से पीछे छूट गए थे. नजमा हेपतुल्लाह के उस बयान के बाद भी नई मंज़िल योजना इसलिए शुरू नहीं हो सकी, क्योंकि केंद्र की ओर से इसके लिए कोई धनराशि मंत्रालय को नहीं मिल पाई थी. अब जबकि वित्त मंत्री ने यह योजना शुरू करने का बाक़ायदा ऐलान कर दिया है, तो हो सकता है कि इसके लिए अलग से धनराशि भी आवंटित की जाए. नई मंजिल योजना के तहत मदरसे के उन विद्यार्थियों को दोबारा पढ़ाई शुरू करने के लिए केंद्र सरकार की ओर से आर्थिक सहायता दी जाएगी और साथ ही उन्हें रोज़गार प्राप्त करने के योग्य भी बनाया जाएगा.
24 जुलाई, 2014 को लोकसभा में नजमा हेपतुल्लाह ने नई मंजिल के साथ ही अल्पसंख्यकों के पारंपरिक व्यवसाय की सुरक्षा के लिए उस्ताद योजना, अल्पसंख्यकों की अमूल्य विरासतों की सुरक्षा के लिए हमारी धरोहर योजना और अजमेर में ख्वाजा ग़रीब नवाज़ सीनियर सेकेंडरी स्कूल स्थापित करने की बात भी कही थी, लेकिन उक्त योजनाओं पर अब तक कितना काम हुआ, इसका उल्लेख कहीं नहीं मिलता. हालांकि, अल्पसंख्यकों को रोज़गार योग्य हुनर सिखाने के लिए मानस (मौलाना आज़ाद नेशनल अकेडमी फॉर स्किल्स) नामक एक संस्था 10 नवंबर, 2014 को अवश्य स्थापित कर दी गई और उसका पहला क्षेत्रीय कार्यालय चेन्नई में खोल दिया गया है. आने वाले दिनों में मुंबई, कोलकाता एवं गुवाहाटी में भी इसके क्षेत्रीय कार्यालय खोले जाएंगे. यह योजना अल्पसंख्यकों के लिए उम्मीद की एक किरण लेकर ज़रूर आई है, लेकिन यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि इससे अल्पसंख्यकों को कितना फ़ायदा पहुंचता है.
अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों को हमेशा शिकायत रही है कि अल्पसंख्यक मंत्रालय अपनी विभिन्न योजनाएं लागू करने के लिए राज्यों को प्रतिवर्ष जो पैसा भेजता है, वह ख़र्च नहीं किया जाता और साल ख़त्म होने पर केंद्र को वापस कर दिया जाता है. इसके लिए केंद्र सरकार जहां एक ओर राज्य सरकारों को दोषी ठहराती है, वहीं अल्पसंख्यक समुदाय के लोग इसके पीछे सरकारी अधिकारियों के भेदभाव भरे व्यवहार को. कारण चाहे जो भी हो, लेकिन नुक़सान स़िर्फ अल्पसंख्यकों का हो रहा है. सरकारें, चाहे वह केंद्र की हो या राज्यों की, अल्पसंख्यकों को आगे बढ़ाने और उन्हें विकास के अवसर देने के वादे तो करती हैं, लेकिन उन पर गंभीरता से अमल नहीं करतीं. विडंबना तो यह है कि सरकार ने अल्पसंख्यकों के कल्याण से संबंधित जितनी भी योजनाएं घोषित की हैं, उनकी ज़मीनी सच्चाई क्या है, उन पर अमल हो रहा है या नहीं, यदि हो रहा है, तो फिर उनकी स्थिति क्या है और राह में आने वाली बाधाओं को दूर कैसे किया जाए आदि के लिए सरकार के पास न तो कोई निगरानी कमेटी है और न कोई जांच प्रणाली. यही कारण है कि सरकार के प्रयासों और प्रतिवर्ष नई घोषणाओं के बावजूद अल्पसंख्यकों की हालत जस की तस है.
दूसरी कमी खुद मुसलमानों की ओर से है, जो सरकार को इसके लिए मजबूर नहीं कर पाते. उनकी ओर से इन मुद्दों पर कोई बड़ा धरना-प्रदर्शन नहीं किया जाता. कहने के लिए तो देश में सैकड़ों मुस्लिम संस्थाएं मौजूद हैं, लेकिन ज़मीनी स्तर पर वे अपने मुस्लिम भाई-बहनों की मदद नहीं कर पा रही हैं. सबको केवल अपनी चिंता है. देश के दूरदराज़ क्षेत्रों में रहने वाले मुसलमानों को तो यह भी पता नहीं चल पाता कि केंद्र या राज्य सरकार की ओर से उनके विकास एवं कल्याण के लिए योजनाएं चलाई जा रही हैं, उनसे लाभ उठाने की बात तो बहुत दूर रही. मुस्लिम संस्थाओं एवं संगठनों को घर-घर जाकर मुसलमानों को इन योजनाओं के बारे में बताने और उन्हें इनसे जोड़ने की कोशिश करनी चाहिए. सरकार, खासकर अल्पसंख्यक मंत्रालय की ओर से ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है, जिससे देश के अल्पसंख्यकों को इन योजनाओं की जानकारी मिल सके. अल्पसंख्यकों का वह वर्ग, जो शिक्षित है, अख़बार पढ़ता है, टीवी देखता है, कुछ हद तक इन योजनाओं से फ़ायदा उठा लेता है. लेकिन, एक बड़ा वर्ग, जो गांव-देहात में रहता है, वह अपने बच्चों को इन योजनाओं से कोई लाभ नहीं दिला पाता. सरकार के साथ-साथ मुस्लिम संस्थाओं एवं संगठनों को भी यह खामी दूर करने की कोशिश करनी चाहिए, तभी इन योजनाओं का मूल उद्देश्य पूरा हो सकेगा और देश के अल्पसंख्यक विकास की राह पर अग्रसर हो पाएंगे.