भारत सही मायनों में दुनिया के उन बहुभाषीय और जातिबहुल समाजों में है, जहां न केवलविविध धर्म, भाषा और संस्कृति के लोग रहते हैं, बल्कि दुनिया में मौजूद लगभग सभी मतों और धर्मावलंबी भी रहते हैं. भारतीय संविधान की रचना करने वाले इस तथ्य को जानते थे, इसलिए संविधान बनाने में काफी उदार रवैया अपनाया गया. संविधान में न केवल सभी धर्मों और विश्वास को समान अवसर दिया गया, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया गया कि धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यकों को उनकी परंपरा और संस्कृति संरक्षित करने के लिए उपाय किए जाएं.
भारतीय संविधान को बनाते समय संविधान सभा के सदस्यों ने उसके विभिन्न बिंदुओं पर गंभीरता से चर्चा की. वैसे, 10 दिसंबर 1948 को विश्व के राजनीतिक परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण बदलाव हुआ, जब संयुक्त राष्ट्रसंघ की महासभा ने मानवाधिकार की वैश्विक घोषणा की और अनुच्छेद 18 को अपनाया. अनुच्छेद 18 के अनुसार सभी लोगों को उसके विवेक, विचार और धर्म को लेकर स्वतंत्रता का अधिकार मिलना चाहिए. इसमें धर्म बदलने की स्वतंत्रता या फिर अपने धार्मिक विश्वास के हिसाब सेपूजा, पढ़ाई या अभ्यास की स्वतंत्रता को शामिल किया गया. इसलिए जब हमारे संविधान को लिखा जा रहा था, तो संविधानसभा के सदस्यों ने महसूस किया कि नागरिकों को विचार, अभिव्यक्ति और धर्म की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए. इसके अलावा उसके नागरिकों को समान अवसर भी दिए जाने चाहिए और उनके साथ जाति, धर्म और लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए. हमारे संविधान निर्माता इससे भी सहमत थे कि धार्मिक और भाषायी अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा भी होनी चाहिए, ताकि उन्हें किसी चीज़ का भय न हो या बहुसंख्यक समुदाय और राज्य के द्वारा उन पर अत्याचार न हो.
अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार समाज में असमानता उत्पन्न करने के लिए नहीं दिया गया, बल्कि समानता लाने के लिए, अल्पसंख्यकों को उनकी भाषा और संस्कृति को सुनिश्चित और संरक्षित करने के लिए दिया गया था. इसके अलावा हमारे संविधान निर्माताओं ने न्याय और समानता का क़ानून बनाने से पहले संविधान में विचार और धर्म की स्वतंत्रता का विशेष प्रावधान किया, जो अनुच्छेद 25 से 30 तक मौलिक अधिकार के रूप में बताए गए हैं.
इसके साथ ही वे लोग जो धार्मिक या भाषायी अल्पसंख्यकों की श्रेणी में आते हैं, उन्हें संविधान में अनुच्छेद 29 और 30 के तहत विशेष अधिकार दिए गए हैं. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 में अल्पसंख्यकों के लिए संस्कृति और शैक्षणिक अधिकार का प्रावधान किया गया है. संविधान के अनुच्छेद 29(1) के अनुसार किसी भी समुदाय के लोग जो भारत के किसी राज्य में रहते हैं या कोई क्षेत्र जिसकी अपनी आंचलिक भाषा, लिपि या संस्कृति हो, उस क्षेत्र को संरक्षित करने का उन्हें पूरा अधिकार होगा. नागरिकों को उसकी भाषा, संस्कृति इत्यादि को संरक्षित रखने के लिए संविधान में जो व्यवस्था की गई है, वह पूर्ण है. सुप्रीम कोर्ट ने माना कि किसी उम्मीदवार द्वारा अपने संसदीय क्षेत्र की भाषा को संरक्षित करने के लिए किया गया वादा भ्रष्ट और ग़लत नहीं है. यह प्रावधान जनप्रतिनिधित्व क़ानून 1951 के तहत है.
अनुच्छेद 30 (1) के तहत सभी अल्पसंख्यकों-चाहे धर्म या भाषा के आधार पर- को अपनी पसंद के आधार पर अपनी शैक्षिक संस्था को स्थापित करने का अधिकार है. संविधान में अल्पसंख्यक शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है. हालांकि केरल एजुकेशन बिल के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह कहना बहुत आसान है कि जो समुदाय 50 फीसदी से कम हो वह अल्पसंख्यक है, लेकिन महत्वपूर्ण सवाल यह है कि किसका 50 प्रतिशत. क्या यह 50 फीसदी पूरे भारत की जनसंख्या का होना चाहिए या उस राज्य का, जहां वे रहते हैं. संभवत: एक समुदाय राज्य के किसी हिस्से में केंद्रित हो सकता है, वह वहां बहुसंख्यक हो सकता है, लेकिन पूरे राज्य में वह अल्पसंख्यक हो सकता है. सुप्रीम कोर्ट निश्चित रूप से इस बिंदु पर विचार नहीं करता. हालांकि यह स्वीकार करना होगा कि अल्पसंख्यकों का निर्धारण उस विधान के द्वारा किया जाता है, जो ख़ुद अपंग है. अल्पसंख्यकों की स्थिति का निर्धारण मुख्य रूप से उस राज्य की कुल जनसंख्या के आधार पर होना चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था के अनुसार अगर हिंदुओं के विभिन्न वर्गों और जातियों को संविधान के अनुच्छेद 30(1) के तहत रखा जाए तो हिंदू विभिन्न वर्गों और जातियों में बंट जाएंगे और बहुसंख्यक नहीं रहेंगे. सुप्रीम कोर्ट ने 1976 में दिल्ली के आर्य समाज एजुकेशन ट्रस्ट बनाम डायरेक्टर एजुकेशन के केस में कहा कि धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक शब्द का प्रयोग स़िर्फ धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए होना चाहिए, जैसे मुसलमान, ईसाई, जैन, बौद्ध और सिख इत्यादि. एक अल्पसंख्यक वर्ग कोई शैक्षणिक संस्था चलाने का दावा तभी कर सकता है, जब वह उसी के द्वारा स्थापित की गई हो. सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 30 के संबंध में कहा कि कोई भी परोपकारी व्यक्ति जो अल्पसंख्यक समुदाय से संबंध रखता हो, अपने लिए कोई भी संस्था स्थापित कर सकता है. एसपी मित्तल बनाम भारतीय गणराज्य के मामले मेंसुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 30 के तहत लाभ के लिए जो दावा किया है, उस समुदाय को यह दिखाना होगा कि वह एक धार्मिक या भाषायी अल्पसंख्यक है और दूजे उसके द्वारा संस्था स्थापित की गई है. इन दोनों शर्तों कोपूरा किए बिना दावा नहीं किया जा सकता है.
संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यकों के विकास और रक्षा के लिए जो अधिकार दिए गए हैं, उसकी जांच इससे की जा सकती है कि उसका दावा सही है कि नहीं. क्रिश्चियन मेडिकल एसोसिएशन बनाम आंध्रप्रदेश राज्य के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने ज़ोर देते हुए कहा कि यह महत्वपूर्ण और आवश्यक है कि व्यवस्था कुछ इस तरह की हो जिससे लगे कि यह शैक्षणिक संस्था अल्पसंख्यकों की है.
सेंट स्टीफेंस के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 30 (1) का मतलब यह नहीं है कि अल्पसंख्यक अपने समुदाय के लोगों के फायदे के लिए संस्था स्थापित नहीं कर सकता है. अल्पसंख्यकों को स़िर्फ अपने फायदे के लिए इस तरह की संस्था स्थापित करने का कोई हक़ नहीं है. कोर्ट ने पाया कि सभी शैक्षणिक संस्थाएं किसी भी समुदाय विशेष की हों, हमारे राष्ट्रीय जीवन के चरित्र को अपनाने वाली होनी चाहिए. साथ ही यह भी आवश्यक है कि हरेक शैक्षणिक संस्थान में विविध पृष्ठभूमि वाले विद्यार्थियों की पर्याप्त उपस्थिति हो.
अल्पसंख्यकों को संविधान ने दिया है पूरा अधिकार
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