पांच राज्यों के चुनाव परिणाम हमारे सामने हैं और इसने भारतीय जनता पार्टी को बहुत उत्साहित किया है. भारतीय जनता पार्टी और सभी टेलीविजन चैनल यह कहते हुए नहीं थक रहे हैं कि भारतीय जनता पार्टी को बहुत फायदा हुआ है और आने वाले चुनावों में भारतीय जनता पार्टी बहुत बेहतर नतीजे दिखाएगी.
भारतीय जनता पार्टी को खुशी है, इसका स्वागत करना चाहिए. लेकिन, यह स्वागत सवाल खड़े करता है. देश में जितने भी समझदार लोग असम गए थे, मैं खुद असम गया था, उनमें से कोई यह नहीं कह रहा था कि कांग्रेस वापसी करेगी. कांग्रेस को सबसे ज्यादा 40 से 45 सीटें मिलने का अनुमान था और उसे बदरुद्दीन अजमल के सहयोग से सरकार बनानी पड़ सकती है, इसका अंदेशा था. जब मैं असम गया था तब मुझे यह साफ नज़र आ रहा था कि यहां पर भारतीय जनता पार्टी काफी मजबूती के साथ जीतेगी और अगर उसने अपने साथ प्रफुल्ल मोहंता और बोडो को मिला लिया तो उसकी जीत निश्चित है. इसके पीछे मेरा आकलन यह था कि जितनी भी हिल काउंसिल हैं, वह सब आदिवासियों से जुड़ी हुई हैं और वे सारे लोग भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में हैं.
इससे भी ज्यादा मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि मुस्लिम नौजवान खुलेआम मुझसे कह रहे थे कि कांग्रेस चोर है, हमारे विकास के लिए जितना पैसा आता है, उसे कांग्रेस खा जाती है, असम में विकास नहीं हुआ और तरुण गोगोई चोरों के सरदार हैं. यह शब्द मैंने अपने कानों से सुने और मैंने जब इनका विश्लेषण किया और जानकारी हासिल की तो यह पता चला कि वहां पर पचास साल से ऊपर के लोग तो बदरुद्दीन अजमल और कांग्रेस की बात कर रहे थे, लेकिन जो नौजवान तबका था, वह भारतीय जनता पार्टी की बात कर रहा था. उसे लग रहा था कि कांग्रेस का विकल्प भारतीय जनता पार्टी ही है. तीसरी पार्टी वहां प्रफुल्ल मोहंता की थी, लेकिन प्रफुल्ल मोहंता 15 सालों से सत्ता से बाहर हैं. हालांकि वह दो बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं और उनकी पार्टी ने ही उन्हें किनारे कर दिया है. संकेत साफ थे कि भारतीय जनता पार्टी असम में चुनाव जीतेगी, लेकिन इसके बावजूद कांग्रेस दिवःस्वप्न में रही और उसने सबसे पहले मुख्यमंत्री पद के लिए तरुण गोगोई का नाम घोषित कर दिया.
इसके पीछे रहस्य यह था कि तरुण गोगोई ने केंद्रीय नेतृत्व को धमकी दी थी कि अगर उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया गया तो वह क्षेत्रीय दल बनाकर चुनाव लड़ेंगे. कांग्रेस इससे डर गई. यह घटना पहले भी एक राज्य में दोहराई जा चुकी है जहां पर कांग्रेस को मुख्यमंत्री पद के लिए वही उम्मीदवार चुनना पड़ा जिसने कहा था कि वह अलग क्षेत्रीय दल बना लेंगे. कांग्रेस असम में प्रफुल्ल मोहंता से भी संपर्क नहीं कर पाई बल्कि वह इस भ्रम में थी कि उसका बहुमत आएगा, इसलिए किसी से गठबंधन की क्या जरूरत है और यहीं पर भाजपा कांग्रेस से बाजी मार गई. भाजपा के ऊपर न भ्रष्टाचार का
आरोप था, भाजपा के ऊपर न किसी और तरह का आरोप था. मुख्यमंत्री पद के लिए नौजवान चेहरा था. उसने मुस्लिम वोटरों को अपने साथ लाने के लिए कोई कोशिश भी नहीं की. इसके बावजूद मुस्लिम वोटरों ने भारतीय जनता पार्टी का साथ दिया. जब भारतीय जनता पार्टी ने प्रफुल्ल मोहंता को अपना सहयोगी बना लिया तो असम की जीत में कोई संदेह रहा ही नहीं.
लेकिन इसके बावजूद भारतीय जनता पार्टी की यह खुशफहमी कि उसने असम में, केरल में खाता खोल लिया है, यह शायद ज्यादा बड़ी खुशफहमी है क्योंकि इस तरह के खाते तो निर्दलीय कहीं भी खोल लेते हैं. भारतीय जनता पार्टी के लिए यह चुनाव एक सीख है. चुनाव से हफ्ते भर पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने सांसदों की क्लास ली थी और उन्हें डांटा था. सख्ती से समझाया था कि वे लोगों के पास जाएं और लोगों को सरकार द्वारा किए गए कामों के बारे में समझाएं. इसकी जड़ में भारत सरकार द्वारा कराया हुआ एक सर्वे है, जो यह कहता है कि भारत सरकार के प्रमुख छह या सात मंत्रालय कुछ काम ही नहीं कर रहे हैं या ऐसे काम कर रहे हैं जिससे जनता खुश नहीं है.
भारतीय जनता पार्टी को लोगों की आशाओं पर खरा उतरना पड़ेेगा और अपनी जीत को एक ऐसी जीत के रूप में लोगों को दिखाना जो न भूतो न भविष्यति की परिभाषा के दायरे में आती हो उसके खुद के लिए नुकसान दायक होगा. ये चुनाव कांग्रेस को एक सीख देते हैं कि क्या राहुल गांधी कांग्रेस में कोई प्राण फूंक सकते हैं? इन पांच राज्यों के चुनावों ने यह सवाल बहुत विशाल बना दिया है. कांग्रेस पार्टी चुनाव हारती है. चुनाव हारने के बाद विश्लेषण होता है. एक कमेटी बनती है. जो रिपोर्ट देती है, लेकिन उस रिपोर्ट के ऊपर कभी अमल नहीं होता. शायद इसीलिए कांग्रेस कार्यकर्ता निराश हैं और अब कार्यकर्ताओं की जगह वह
नव-धनाढ्य या ठेकेदार आ गए हैं जो किसी भी तरह राजनीति में चुनाव लड़कर अपने को, अपने क्षेत्र में राजनीतिक व्यक्ति घोषित करना चाहते हैं. कांग्रेस जीतती है तो सेहरा राहुल गांधी के सिर जाता है, हारती है तो वह सामूहिक हार होती है. यही बात इस चुनाव में भी कही जा रही है. कांग्रेस का यह अपना मामला है कि वह किसे अपना अध्यक्ष बनाए या किसे न बनाए, लेकिन कांग्रेस अगर राजनीतिक परिदृश्य से हटेगी या कमजोर होगी तो यह देश के लोकतंत्र के लिए थोड़ी चिंताजनक बात होगी, क्योंकि लोकतंत्र में सत्तापक्ष के मुक़ाबले विपक्ष भले ही कमजोर हो लेकिन विपक्ष होना चाहिए, पर ऐसा विपक्ष भी अपनी साख खो देता है जो जनता से जुड़े सवाल नहीं उठाए और उन सवालों को देश का सवाल बनाने की कोशिश करे जिन सवालों को सत्ताधारी दल सवाल बनाने में रुचि दिखाता है. हमारे देश की आज यही हालत है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से पुन: यह आशा करनी चाहिए कि इन चुनावों के संकेत को ध्यान में रखकर उन्हें कुछ ऐसी कारगर योजनाएं बनानी चाहिए ताकि देश के लोगों को यह लगे कि उन्होंने जिसे वोट दिया वह निरर्थक नहीं, सार्थक था.