उत्तर प्रदेश में लोकायुक्त की नियुक्ति के मसले पर समाजवादी पार्टी सरकार की ज़िद क़ानून के आगे टिक नहीं पाई. मुख्यमंत्री अखिलेश यादव पूर्व न्यायाधीश वीरेंद्र सिंह को लोकायुक्त बनाने पर अड़े थे, लेकिन लम्बे अर्से तक चली कानूनी खींचतान के बाद अखिलेश यादव को उस लोकायुक्त के शपथ ग्रहण में शरीक होना पड़ा जिसकी नियुक्ति सीधे सुप्रीम कोर्ट ने की.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश संजय मिश्र ने उत्तर प्रदेश के नए लोकायुक्त के रूप में शपथ ग्रहण किया और अपना पदभार भी ग्रहण कर लिया. इसके साथ ही दो साल से लोकायुक्त के मसले पर चल रही राजभवन बनाम राज्य सरकार की भिड़ंत समाप्त हो गई.
राज्यपाल राम नाईक ने पिछले दिनों राजभवन में आयोजित एक संक्षिप्त समारोह में संजय मिश्र को लोकायुक्त के पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई. संजय मिश्र एनके मेहरोत्रा की जगह प्रदेश के नए लोकायुक्त बने, जो 16 मार्च 2006 से अब तक लोकायुक्त के पद पर आसीन रहे. शपथ ग्रहण समारोह में प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, लोकायुक्त चयन समिति दो अन्य सदस्य इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष स्वामी प्रसाद मौर्य समेत कई मंत्री और नौकरशाह मौजूद थे. इस मौके पर पूर्व सपा नेता अमर सिंह भी मौजूद थे.
लोकायुक्त एनके मेहरोत्रा को वर्ष 2006 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव के कार्यकाल में लोकायुक्त बनाया गया था. 2012 में सत्तारूढ़ हुई अखिलेश यादव सरकार ने लोकायुक्त अधिनियम में संशोधन करते हुए उनका कार्यकाल दो साल के लिए बढ़ा दिया था. कार्यकाल बढ़ाए जाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने कार्यकाल बढ़ाए जाने को विधानसभा का अधिकार बताते हुए इसमें हस्तक्षेप करने से मना कर दिया था. 2014 के जुलाई में दिए आदेश में यह निर्देश दिया गया था कि मेहरोत्रा के बढ़ाए गए कार्यकाल की समाप्ति से पहले ही प्रदेश सरकार नया लोकायुक्त चुन ले. लेकिन सरकार इस निर्देश का पालन करने में फेल रही.
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मद्देनजर उत्तर प्रदेश सरकार ने प्रक्रिया शुरू तो की और इस पद पर नियुक्ति के लिए पूर्व न्यायाधीश वीरेंद्र सिंह का नाम भी भेजा, लेकिन उस नाम को राजभवन ने हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ की आपत्ति और चयन प्रक्रिया की सरकार द्वारा की गई अनदेखी के आधार पर वापस कर दिया.
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने इसे अपनी प्रतिष्ठा का मुद्दा बना लिया और वीरेंद्र सिंह की नियुक्ति की सिफारिश वाली फाइल ही बार-बार राजभवन भेजते रहे. राजभवन भी वह फाइल बार-बार सरकार को वापस भेजता रहा. आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने लोकायुक्त की नियुक्ति के लिए समय सीमा तय कर दी और 16 दिसंबर 2015 को राज्य सरकार की तरफ से प्रस्तुत पैनल में से वीरेन्द्र सिंह को लोकायुक्त के पद पर नियुक्त करने का फैसला सुना दिया.
इस फैसले पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने राज्यपाल को पत्र लिखा कि चयन समिति की बैठक में जब वीरेंद्र सिंह के नाम पर सहमति नहीं थी, तो उनका नाम कैसे भेज दिया गया. मुख्य न्यायाधीश ने सुप्रीम कोर्ट के सर्वोच्च न्यायाधीश से इस मसले पर मुलाकात का समय भी मांग लिया. फैसले पर पुनर्विचार के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका भी दाखिल हो गई. इस पर सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही आदेश पर रोक लगा दी और पुनर्विचार करने के बाद 28 जनवरी को पूर्व न्यायमूर्ति संजय मिश्र को उत्तर प्रदेश का लोकायुक्त नियुक्त करने का आदेश जारी कर दिया.
यूपी के नए लोकायुक्त जस्टिस संजय मिश्र नवम्बर 2014 में ही हाईकोर्ट से रिटायर हुए थे. उन्होंने ही यूपी में शिक्षामित्रों की नियुक्ति पर लगाई गई रोक को जायज ठहराने वाला ऐतिहासिक फैसला सुनाया था और माना था कि साल 2009-10 में चयनित 355 शिक्षामित्रों को नियुक्ति पाने का वैधानिक अधिकार नहीं है. जस्टिस संजय मिश्र ने ही बिना किसी कारण के मौलाना अली मियां इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस कॉलेज में 2014-15 के लिए एमबीबीएस की 150 सीटों पर दाखिले की इजाजत देने से मना करने पर मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) को कड़ी फटकार लगाई थी.
अब उत्तर प्रदेश का लोकायुक्त बनने के बाद संजय मिश्र के सामने कई बड़ी चुनौतियां हैं. पिछले पांच साल में अफसरों के खिलाफ सबसे ज्यादा शिकायतें आई हैं, जिनमें से 226 की जांच अभी तक नहीं हो पाई है. लोकायुक्त अदालत में 29 नगर पालिका अध्यक्षों के खिलाफ शिकायतों की जांच भी लंबित है.
लोकायुक्त कार्यालय को पिछले पांच वर्षों में 119 जनप्रतिनिधियों के खिलाफ शिकायतें मिली थीं. इनमें से 88 जनप्रतिनिधियों के खिलाफ ही जांच हो सकी. अब भी 31 जनप्रतिनिधियों के खिलाफ जांच लंबित है. 259 अफसरों के खिलाफ शिकायतें मिली थीं. इनमें से केवल 33 अफसरों के खिलाफ ही लोकायुक्त जांच कर सके. यानी 226 मामलों की जांच बाकी है.
कुल लंबित जांचों की संख्या करीब 3700 है. गंभीर भ्रष्टाचार के आरोपी खनन मंत्री गायत्री प्रजापति के खिलाफ जांच को लोकायुक्त एनके मेहरोत्रा पहले ही बंद कर चुके हैं. अल्पसंख्यक कल्याण एवं वक्फ मंत्री आजम खान के साथ ही मंत्री महबूब अली, ब्रह्माशंकर त्रिपाठी व नारद राय के खिलाफ भी जांच बंद हो चुकी है. लेकिन इनके दोबारा शुरू होने की पूरी संभावना है.
लोकायुक्त एक और लोग 396!
उत्तर प्रदेश में लोकायुक्त पद को लेकर तरह-तरह के खेल और तरह-तरह के मजाक हुए. यहां तक कि पैनल में 30 ऐसे जजों के नाम भी शामिल कर लिए गए थे, जो इस दुनिया में ही नहीं हैं. एक लोकायुक्त के चयन के लिए बनाई गई लिस्ट में 396 लोगों के नाम शामिल किए गए थे. इस लिस्ट में एक ऐसे जज का भी नाम शुमार था, जो 1951 में ही रिटायर हो चुके थे. दिलचस्प तथ्य यह है कि एक लोकायुक्त के चयन के लिए मुख्यमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की सदस्यता वाली कमेटी के समक्ष 396 लोगों की सूची रखी जाती थी. इनमें 41 नाम देश के विभिन्न हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों के थे. 28 नाम सुप्रीम कोर्ट के जजों के और 150 नाम सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जजों के थे.
उस लिस्ट में इलाहाबाद हाइकोर्ट के 76 मौजूदा जज और देश की विभिन्न हाइकोर्ट के 101 पूर्व जजों के नाम भी शामिल थे. इसके बावजूद हर बार मुख्यमंत्री अखिलेश यादव एक ही नाम वीरेंद्र सिंह चुनते थे और हर बार इसके लिए प्रदेश सरकार के जातिवादी-पक्षवादी रवैये पर उंगली उठती थी. हर बार हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ वीरेंद्र सिंह के नाम पर आपत्ति दर्ज कराते और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव उसी नाम पर जोर देते.
मुख्य न्यायाधीश का कहना था कि वीरेंद्र सिंह सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक कर्मस्थली मैनपुरी के रहने वाले हैं और उनके भाई और दो बेटे सपा सरकार के अधिवक्ताओं के पैनल में शामिल हैं. लेकिन अखिलेश यादव अपनी जिद पर इतने हठी हो गए थे कि उन्होंने लोकायुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया में संशोधन करके मुख्य न्यायाधीश का नाम ही चयन समिति से निकाल दिया था. लेकिन फिर भी कानून ही भारी पड़ा और सियासत को घुटने टेकने पड़े.