bbbaअजमेर स्थित ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर हर साल हजारों श्रद्धालु निष्ठा के साथ हाजिरी देते और अपनी हैसियत के अनुसार नज़राना पेश करते हैं, लेकिन इसी नज़राने के चलते इन दिनों ख़ुद्दाम (सेवा करने वाले),केंद्र सरकार द्वारा स्थापित दरगाह कमेटी और मुगल सम्राट अकबर द्वारा बनाए गए दीवान एक-दूसरे के विरुद्ध आस्तीन चढ़ाए हुए हैं. उधर केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस दरगाह के विकास के नाम पर मुसलमानों को लुभाने की कोशिश में लगी हुई है. यह अलग बात है कि कांग्रेस की हर चाल उल्टी पड़ती जा रही है. दरगाह कमेटी से ख़ुद्दाम की नाराज़गी न स़िर्फ अजमेर, बल्कि पूरे देश में दरगाह को चाहने वालों के दिलों में कांग्रेस के लिए नफ़रत पैदा कर रही है. ग़ौरतलब है कि कांग्रेस ने 2008 में दरगाह के विकास के लिए 308 करोड़ रुपये देने का वादा किया था, परंतु दिए मात्र सात करा़ेड रुपये. बीते कुछ महीनों से संसदीय चुनाव के मद्देनज़र अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री के रहमान खान ने दरगाह के विकास पर फिर से ध्यान देना शुरू किया है, लेकिन अजमेर जाकर देखने के बाद पता चलता है कि उनकी यह कोशिश भी मात्र एक दिखावा है. यहां ख़ुद्दाम की भूमिका भी अच्छी नहीं है.
दरगाह के मुख्य द्वार से भीतर जाते ही सत्तर फीट ऊंचे दरवाजे के पश्‍चिम में रखी पीतल की एक देग पर नज़र स्वयं ही केंद्रित हो जाती है. इस देग में 37 क्विंटल और पूरब की ओर रखी दूसरी देग में 29 क्विंटल तबर्रूक (प्रसाद) तैयार किया जाता है. लोग बड़ी आस्था के साथ इन देगों में अनाज, अन्य वस्तुएं और नकद धनराशि डालते हैं. इनमें डाला गया अनाज पकाकर ग़रीबों में बांट दिया जाता है. मुख्य द्वार से दरगाह तक कई बॉक्स भी रखे हुए हैं, जिनमें लोग नज़राना डालते हैं. नज़राने की यह धनराशि गुरुवार एवं शुक्रवार को 50,000 रुपये तक पहुंच जाती है. उर्स के समय यह नज़राना एक लाख रुपये प्रतिदिन तक पहुंच जाता है.
देग के पास एक शख्स बैठा होता है, जिसकी ज़िम्मेदारी यह है कि वह आने वाले प्रत्येक तीर्थ यात्री, उसे लाने वाले खादिम और कितनी धनराशि बतौर नज़राना देग में डाली गई है, आदि विवरण अपने पास दर्ज करे.यह पूछने पर कि देग में नज़राना तो पुण्य कमाने के मकसद से डाला जाता है, उसे दर्ज क्यों किया जाता है? जवाब मिला कि जो खादिम नज़राना देने वालों को देग तक लाता है, उसे कमीशन दिया जाता है. मतलब यह कि कमीशन का रिवाज मात्र सरकारी कार्यालयों में नहीं है, बल्कि वह यहां भी फल-फूल रहा है. जो धनराशि एवं वस्तुएं बॉक्स में डाली जाती हैं, उन्हें तो न्यायालय के निर्णय के अनुसार बांट दिया जाता है, लेकिन जो नज़राना सीधे ख़ुद्दाम को दिया जाता है, वह कितना है, इसका कोई अनुमान नहीं लगाया जा सकता.
ख़ुद्दाम को मिलने वाले नज़राने के बारे में राजस्थान हाईकोर्ट का निर्णय आया है, उससे ख़ुद्दाम नाराज़ हैं. न्यायालय का निर्णय है कि मजार के अंदर जो धनराशि वसूली जाती है, उसे ख़ुद्दाम और दीवान के बीच बांटा जाए, जबकि अब तक इस पैसे पर ख़ुद्दाम अपना अधिकार समझते रहे हैं. उनका कहना है कि जो लोग दीवान की महफील में जाते हैं और वहां उन्हें जो नज़राना देते हैं, उसी पर उनका अधिकार होना चाहिए. न्यायालय का एक और निर्णय आया है कि दरगाह कमेटी दरगाह के प्रत्येक द्वार और खुली जगह पर बोर्ड लगाए, जिस पर उर्दू, अंग्रेजी एवं हिंदी में लिखा हो कि तीर्थ यात्री अपना नज़राना बॉक्स में ही डालें. इस निर्णय को लेकर ख़ुद्दाम नाराज़ हैं और इस पर कमेटी को अमल करने से रोक रहे हैं. ख़ुद्दाम का कहना है कि नज़राना ही उनकी असली कमाई है.
दरगाह के विकास को लेकर पीडी कोर ऑर्गेनाइजेशन द्वारा अजमेर सर्किट हाउस में प्रदर्शित 59.68 करोड़ रुपये का प्रोजेक्ट देखकर लगता नहीं है कि ऐसा तीर्थ यात्रियों की सहूलियत के लिए किया गया है. इस प्रोजेक्ट की अधिकतर धनराशि दरगाह से पंद्रह किलोमीटर दूर कायतर विश्राम स्थल में लगाई गई है और जो विकास कार्य किए गए हैं, उनका फ़ायदा दरगाह के तीर्थ यात्रियों को नहीं, बल्कि स्थानीय नागरिकों को मिल रहा है. इसे अल्पसंख्यक मामलों के केंद्रीय मंत्री के रहमान खान भी स्वीकार चुके हैं. सवाल यह है कि दरगाह आने वाले तीर्थ यात्रियों को सुविधाएं देने के काम क्यों नहीं किए गए और स्वयं मंत्री अब तक कहां थे? उन्हें यह कमी अब दिखाई पड़ रही है, जब संसदीय चुनाव निकट आ गया है और ख़ुद्दाम की नाराज़गी के चलते कांग्रेस का वोट बैंक खिसकता नज़र आ रहा है.
यह संवाददाता नगरपालिका के वरिष्ठ अभियंता से भी मिला, तो पता चला कि मंत्री की बात पर अमल करना संभव नहीं है, क्योंकि दरगाह के चारों तरफ़ निर्माण कार्य के लिए कोई जगह नहीं है. वहां जो दुकानें हैं, वे ख़ुद्दाम और उनके रिश्तेदारों के कब्जे में हैं और उन्हें हटाना नामुमकिन है. दरगाह के विकास को लेकर अजमेर जिला प्रबंधन का रवैया भी हैरतअंगेज है. वह मामले पर लीपापोती करके सबको धोखे में रखना चाहता है. किसी भी योजना पर वह न तो ख़ुद्दाम से मशविरा करता है और न दरगाह कमेटी को भरोसे में लेता है. मालूम हो कि जिला प्रबंधन को दरगार के चारों तरफ़ 36 शौचालय बनवाने के लिए 60 लाख रुपये दिए गए थे, लेकिन बने एक भी नहीं. जब पत्रकारों ने पड़ताल की, तो उन्हें 25 साल पहले बने 25 शौचालय दिखा दिए गए.
सवाल यह है कि आख़िर ख़ुद्दाम की आर्थिक निर्भरता दरगाह के नज़राने पर क्यों है? सज्जादा अंगारा शाह बताते हैं कि ख़ुद्दाम के परिवार में इस समय 4000 लोग हैं, जिनकी गुजर-बसर दरगाह की आमदनी से होती है. दरगाह कमेटी के पदाधिकारियों की नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा होती है, जबकि ख़ुद्दाम कई शताब्दियों से पीढ़ी दर पीढ़ी सेवा करते आ रहे हैं. इसलिए अधिकारों को लेकर अक्सर शीत युद्ध चलता रहता है. 1955 में संसद द्वारा पारित एक क़ानून के मुताबिक नौ सदस्यीय दरगाह कमेटी पांच साल के लिए बनाई जाती है, जो गुंबद शरीफ की देखभाल, फूल-अगरबत्ती पेश करने के अलावा, पूरे परिसर में बिजली, पानी, सफाई, मुफ्त दवाखानों एवं लंगरों का इंतजाम करती है. यह कमेटी धार्मिक शिक्षा के लिए दारुल उलूम मोइनिया उस्मानिया, ख्वाजा मॉडल सीनियर सेकेंडरी स्कूल, पॉलिटेक्निक कंप्यूटर सेंटर एवं ग़रीब नवाज गेस्ट हाउस की देखरेख भी करती है. ख्वाजा की दरगाह में लूट और भ्रष्टाचार का यह खेल तीर्थ यात्रियों एवं देश भर में फैले श्रद्धालुओं को चिंतित करता है. क्या केंद्र अथवा राज्य सरकार इस ओर कोई ठोस क़दम उठाएगी?

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