आर्थिक असमानता, बेरोज़गारी, जनसंख्या विस्फोट, सामाजिक बहिष्कार , अतिवाद, नस्लीय अल्पसंख्यकों का दमन, जनजातीय वाद और धार्मिक व राजनीतिक दमन को अगर नहीं सुलझाया गया तो हथियारबंद हिंसा जन्म ले सकती है. चाहे हम इसे उग्रवाद, अतिवाद, आतंकवाद या अलगाववाद कुछ भी कहें.
युद्ध की शुरुआत हमेशा आदमी के दिमाग़ में होती है और समान विचारों वाले लोग पूरी दुनिया में रहते हैं. इसी वजह से इसके परिणाम केवल विवाद वाले देश में ही नहीं महसूस नहीं किए जाते, बल्कि उनकी धमक कहीं और भी सुनाई देती है. आतंकवाद, अपराध और ग़ैर अंतरराष्ट्रीय सशस्त्र विद्रोह के बीच की रेखाएं इतनी महीन और धुंधली पड़ गई हैं कि अब हम राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद में फर्क़ ही नहीं कर सकते. कई आतंकी अपने उद्देश्य के लिए लड़ते हुए मरना पसंद करते हैं, ताकि उनकी नज़र में जो सच है उसे पाया जा सके. वह महसूस करते हैं कि वह एक वंचित तबके का हिस्सा हैं और सुखद भविष्य की कोई उम्मीद उनके लिए बाक़ी नहीं है. वह अपनी ज़िंदगी दांव पर इसलिए लगाते हैं ताकि उनके हिसाब से दूसरों को भी शांति और भौतिक रूप से समृद्ध जीवन का अधिकार नहीं है.
आस्ट्रिया के राजकुमार की 1914 ई. में सरायेवो में हत्या का मामला पूरी तरह से आस्ट्रिया का आतंरिक मामला था, लेकिन इसकी वजह से पहला विश्व युद्ध शुरू हुआ. दुनिया में आतंकवादी गतिविधियां भारत के साथ ही चीन, सोवियत संघ, वियतनाम, कंबोडिया और दक्षिण कोरिया-उत्तर कोरिया के अलावा इज़रायल-फिलीस्तीन और पाकिस्तान में भी देखी गई हैं. 11 सितंबर 2001 को न्यूयॉर्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला हो या पिछले साल 26 नवंबर को मुंबई के ताज होटल पर हुआ आतंकी हमला, हमारे बच्चों युवाओं और बूढ़ों ने उसे टी.वी. के पर्दे पर लाइव देखा. कई भारतीयों के लिए संसद पर 2001 में हुआ हमला दरअसल हमारे लोकतंत्र पर हमला था. खेलों को पसंद करने वाले लोग 1972 में म्यूनिख ओलंपिक में वह हमला नहीं भूल सकते, जब तथाकथित फिलीस्तीनी जिहादियों ने 11 इज़रायली एथलीटों की हत्या कर दी थी. हालात यहां तक बिगड़ गए थे कि इज़रायल ने श्रृंखलाबद्ध तरीक़े से बम हमला करके सैंकड़ों गुरिल्लों को मार डाला था. मार्च 2009 में लाहौर में श्रीलंकाई क्रिकेट टीम पर रॉकेट लांचर और ग्रेनेड से हमला किया गया. इस वारदात में आठ लोग मारे गए, जबकि कई घायल हो गए थे. सौभाग्य की बात यही रही कि खिलाड़ियों को मामूली चोटें ही आईं.
हथियारों के मामले में तकनीकी विकास ने ऐसे हालात पैदा कर दिए हैं, जहां आतंकी संगठनों को ताज़ातरीन हथियार क़ब्ज़ाने का मौका मिल जाता है और वे अधिक से अधिक बर्बादी और आतंक फैला सकते हैं. दुर्भाग्य से अब तक व्यापक नरसंहार वाले हथियारों के उत्पादन और संग्रहण तथा इस्तेमाल पर रोक नहीं है. हालांकि कुछेक सदस्य देशों ने उन हथियारों पर नियंत्रण के लिए और परमाणु हथियारों के नियमन के लिए संधियां भी की हैं. इस लक्ष्य को पाने के लिए कई तरह के सम्मेलन किए गए हैं. ख़बरें बताती हैं कि पूरी दुनिया में लगभग 36000 परमाणु हथियार हैं. इनमें रूस के पास सबसे अधिक 22,500 हथियार हैं जबकि अमेरिका के पास 12070, फ्रांस के पास 500, चीन के पास 450, ब्रिटेन के पास 380, भारत के पास 65 और पाकिस्तान के पास 25 परमाणु हथियार हैं. इन सबके अलावा दुनिया के 80 देशों ने व्यापक नरसंहार वाले रासायनिक और जैविक हथियार बना लिए हैं. अमेरिका ने 1200 से अधिक परमाणु परीक्षण किए हैं तो रूस ने लगभग 1000, ब्रिटेन ने लगभग 45, फ्रांस ने 210. चीन ने 50 और भारत ने लगभग 10 परमाणु परीक्षण किए हैं. पाकिस्तान ने भारत से होड़ लगाते हुए 10 के आस-पास परमाणु परीक्षण किए हैं, ईरान, इराक़, उत्तर कोरिया-दक्षिण कोरिया और लीबिया ने भी रिपोर्टों के मुताबिक परमाणु हथियार कार्यक्रम चला रखे हैं. यही बात इज़रायल के संदर्भ में भी कही जा रही है. इस तरह परमाणु परीक्षण पूरे वातावरण को ही दूषित करते हैं. इसी वजह से जो हवा हम सांस लेते हैं, जो खाना हम खाते हैं और जो पानी हम पीते हैं-काफी हद तक प्रदूषित हो जाते हैं और यह पारिस्थितिकी और पर्यावरण के लिए काफी हद तक ख़तरनाक हैं.
लाखों लोग मारे जा चुके हैं और हज़ारों बच्चे युद्ध और आतंकी गतिविधियों की वजह से अनाथ हो चुके हैं. वे कुपोषण, भूख और बीमारी का भी शिकार होते हैं. परमाणु, रासायनिक और जैविक हथियार पूरी दुनिया की पारिस्थितिकी को बर्बाद कर सकते हैं. पर्यावरण और पारिस्थितिकी को देशों की सीमाओंं में बांटकर नहीं रखा जा सकता. इसी तरह अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद को भी पूरी दुनिया के देशों को मिल कर ही निपटाना होगा. अगर आतंक का अंत हो गया, तो हम आनेवाली पीढ़ियों को एक स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण और पारिस्थितिकी दे सकेंगे. साथ ही, जिन संसाधनों का इस्तेमाल आतंकी गतिविधियों, हथियारों के लिए शोध और निर्माण पर खर्च किया जा रहा है, उनका इस्तेमाल दूसरे सकारात्मक कामों में किया जा सकता है. आतंकी हमले न केवल ज़िंदगी छीनते हैं, बल्कि स्वास्थ्य, आशा और लोगों की उम्मीदों का भी क़त्ल कर देते हैं. इसके साथ ही वे भौतिक तथ्यों, रहन-सहन और आवास, खेती, पुल, जलसंसाधन, अस्पताल और बाक़ी तथ्यों को भी बिगाड़ देते हैं. मूलभूत सुविधाएं जैसे बिजली, पानी वग़ैरह भी बाधित हो जाती हैं. खेती की ज़मीन ज़हरीली हो जाती है, सड़कों और गलियों में माइंस लगा दिए जाते हैं और लोगों तक उनकी पहुंच मुश्किल हो जाती है. इस तरह के हमलों का सीधा अर्थ तो यह होता है कि लोगों को खाना भी नसीब नहीं होगा. पानी पीने लायक नहीं होगा, इमारतें बुरी हालत में और टूटी-फूटी होंगी. स्वास्थ्य सुविधाएं दूभर हो जाएंगी और शत्रुता की समाप्ति के बाद भी लोगों की ज़िंदगी दयनीय होगी. हमने यह भी देखा है कि सोमलिया के तट पर आतंकी हमले हो रहे हैं, जिसमें अंतरराष्ट्रीय व्यापार में लगे जहाजों को अगवा किया गया है. जीवन की ज़रूरी सुविधाओं की आपूर्ति बाधित हो जाती है या बिल्कुल ही नष्ट हो जाती है. यह हालात मानवता मात्र के लिए चिंतनीय और शोचनीय हैं
सुप्रीम कोर्ट की अब तक निभाई गई भूमिका
भारतीय सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक भूमिका में 1977 से अब तक काफी बदलाव आए हैं. ख़ासकर मानवाधिकारों या मौलिक अधिकारों और भारतीय संविधान की भाषा में. किसी ऐसे हालात जिसमें भारतीय क़ानून की अपर्याप्त व्यवस्था उजागर हुई हो, जैसे भारतीय संविधान के अंदर मानवाधिकारों की व्याख्या, भारतीय न्यायालयों ने उसे अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के संदर्भ में व्याख्यायित और विकसित की है. इसका इंतज़ार नहीं किया गया कि भारत की विधायिका कोई घरेलू क़ानून बनाए या लागू करने की सोचे. हमारा संविधान कुछ मूलभूत अधिकार हरेक व्यक्ति को देता है, केवल भारतीय नागरिकों को ही नहीं. भारत का क़ानूनी और संस्थागत ढांचा मानवाधिकारों के सम्मान पर आधारित है. इसका मतलब यह कि हमारा ढांचा अंतरराष्ट्रीय मानवतावादी क़ानूनों के सिद्धांतों से एकमत और उनके प्रति संवेदनशील है. भारतीय सशस्त्र बलों को निर्देश है कि वह अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों का पालन करें और उनकी सैन्य संहिता भी यही कहती है. भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने एक नीति निर्देशक सिद्धांत का इस्तेमाल न्यायिक सक्रियता के दायरे में आनेवाले मूलभूत अधिकारों के लिए किया है, ताकि घरेलू क़ानून में किसी खास नुक्ते को पूरा किया जा सके. न्यायालय ने बेहतर अंतरराष्ट्रीय क़ानून का इस्तेमाल भी अनोखे ढंग से किया है. जैसे, ऐसे क़ानून को नगरपालिका के क़ानून से जोर दिया, ताकि राष्ट्रीय न्यायालय इसका इस्तेमाल कर सकें. भले ही इस संदर्भ में कोई ख़ास विधेयक हो या न हो. यही वजह है कि भारत में अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों के इस्तेमाल को न्यायिक रचनात्मकता ने दूर कर दिया. यही प्रक्रिया पूरी तब होती है जब अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों को ध्यान में रखते हुए घरेलू क़ानून बनते हैं. भारतीय संविधान में अनुच्छेद 14,21,23 और 24 को न्यायिक तौर पर विस्तृत तौर से व्याख्यायित किया गया है. ताकि मानवीय सम्मान के हरेक पहलू को, जैसे समानता, सम्मान के साथ जीवन, स्वतंत्रता, विकास का अधिकार किसी भी तरह के शोषण से मुक्तिऔर बच्चों के अधिकार की सुरक्षा वग़ैरह को सुनिश्चित किया जा सके.
ऐसे फैलता है आतंकवाद
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