अहमद वसी (जन्म 08 अक्टूबर, 1942) उर्दू साहित्य और हिंदी फिल्म संगीत के क्षेत्र में एक जाना-पहचाना नाम हैं। वह हिंदी फिल्म संगीत से दो प्रकार से जुड़े रहे हैं। पहला, वह स्वयं एक गीतकार हैं और दूसरा, रेडियो उद्घोषक के रूप में उन्होंने हमेशा फिल्मी गीतों के साथ निकटता बनाए रखी। उनका जन्म 8 अक्टूबर 1942 को सीतापुर में हुआ था। लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद, उन्होंने कुछ अल्पावधि पाठ्यक्रमों के साथ-साथ कानून की पढ़ाई भी शुरू की।
1963 में अहमद वसी ने ऑल इंडिया रेडियो की विविध भारती सेवा में बतौर उद्घोषक कदम रखा। उर्दू साहित्य में उनकी प्रवीणता और हिंदी संगीत के प्रति गहरी रुचि के चलते वह जल्दी ही अमीन सयानी और गोपाल शर्मा जैसे दिग्गज उद्घोषकों के बीच अपनी जगह बनाने में कामयाब रहे।
इस दौरान उन्होंने विभिन्न उर्दू पत्रिकाओं के लिए नज़्म और ग़ज़ल लिखना जारी रखा, जिससे उनकी प्रतिभा पर मुरली मनोहर स्वरूप का ध्यान गया। इसके बाद, एचएमवी द्वारा जारी की गई कई एलपी में उनकी ग़ज़लें कई प्रतिष्ठित गायकों की आवाज़ में शामिल की गईं। उनकी ग़ज़ल “शाख से टूट के गिरने की सज़ा दो मुझको – एक पत्ता ही तो हूँ, क्यों न हवा दो मुझको” ने बड़ी लोकप्रियता हासिल की और राज कुमार रिज़वी को एक नए गज़ल-गायक के रूप में स्थापित किया।
1973 में फिल्म निर्देशक अली रज़ा की फिल्म “प्राण जाए पर वचन ना जाए” के लिए संगीत निर्देशक ओपी नैयर ने उनसे एक कैबरे गीत लिखवाया। यह गीत, ‘आ के दर्द जवां है’, आशा भोसले की आवाज़ में पेश किया गया। इसके बाद 1979 में उन्होंने शत्रुघ्न सिन्हा, रीना रॉय और डैनी अभिनीत फिल्म “हीरा मोती” के लिए भी नैयर के साथ काम किया। इसी तरह, उनके करियर के इस दौर में “क़ानून और मुजरिम” के ‘शाम रंगीन हुई है’ और “वली-ए-आजम” के ‘मेरे शरीके-ए-सफर’ जैसे गीतों ने भी प्रसिद्धि पाई।
1983 में उनके उर्दू कविता संग्रह “बहता पानी” को उत्तर प्रदेश राज्य उर्दू अकादमी द्वारा सम्मानित किया गया। लेकिन समय के साथ फिल्म और ग़ज़ल संगीत की गुणवत्ता में आई गिरावट के चलते उन्होंने रेडियो उद्घोषक के अपने करियर पर अधिक ध्यान केंद्रित किया और कविता लेखन को प्राथमिकता दी। उनका दूसरा कविता संग्रह “बादलों के शहर” 1996 में प्रकाशित हुआ, जिसे हिंदी साहित्य जगत में भी खूब सराहा गया।
एक कार्यक्रम के दौरान संगीत निर्देशक खय्याम के साथ हुई मुलाकात ने उन्हें “एक ही मंजिल” फिल्म के लिए गीत लिखने का अवसर दिया। इसके बाद दोनों ने कई परियोजनाओं पर काम किया, जिनमें से “आशा और खय्याम” एक सफल सहयोग रहा। उनकी ग़ज़ल “दर्द ठहरे तो” को युवा पीढ़ी के बीच खासा लोकप्रियता मिली। उन्होंने ग़ज़ल की शुद्धता को बनाए रखने के लिए युवाओं के लिए कार्यशालाओं का आयोजन भी किया।
अहमद वसी ने नौशाद पर आधारित एक लघु वृत्तचित्र “नौशाद की आवाज़” के लिए पटकथा भी लिखी, जिसे रवींद्र नाट्य मंदिर में प्रदर्शित किया गया। उनकी आगामी रचनाओं में फिल्में “यात्रा,” “बनारस-1918 ए लव स्टोरी,” और “बेवड़ा” शामिल हैं, जिनमें “यात्रा” के गीतों को काफी सराहा गया है।
उनकी नवीनतम पेशकश “ज़ह-ए-नसीब” में श्रोताओं को वास्तविक उर्दू कविता की दुनिया से रूबरू कराया गया है। उनका लेखन उर्दू कविता के शास्त्रीय रूप को छूता है, जो लंबे समय से ग़ज़ल एल्बमों में दुर्लभ था। अपने रेडियो करियर में, उन्होंने कई लोकप्रिय कार्यक्रमों से अपनी बहुमुखी प्रतिभा को उजागर किया। वह “हैलो फरमाइश” जैसे कार्यक्रमों के सबसे शुरुआती उद्घोषकों में से एक रहे हैं।
रेडियो से जुड़ाव ने उन्हें दर्शकों की अपेक्षाओं को समझने में मदद की, जो उनकी कविता की ताजगी और मौलिकता का आधार है। उनके शब्द और विषय हमेशा आम आदमी के जीवन से जुड़े होते हैं। उनकी कविताओं में जीवन की नैतिकता और मानवीय गुणों की गहन अभिव्यक्ति देखने को मिलती है, जो उन्हें एक सच्चा कवि बनाता है।
संपादन : प्रभात पाण्डेय