प्रस्तुत हैं शहडोल के युवा कवि मिथलेश राय की कविताएँ।
🏵🏵 गमछा 🏵🏵
मेरे पास एक गमछा था
सफेद हरी लाल किनारे
वाला, जिसे गले मे डाले घूमता
रहता तथा हाट-बाजार, शहर गली
मोहल्ले में,
गर्मियों में उसे डाल लेता था सर
पर, रेल यात्रा में बिछाकर सो
लेता था, बड़ा प्यारा था वह
मुझे ,
नई संगति साथ मे छूट गया
मुझसे वो मेरे गाँव घर का साथी,
जो मेरी ठसक था, वही
किरीकिरी था,
सभ्य और भद्र कहलवाने
वाले मेरे स्वजनों के आंखों की
🏵️🏵️ चाय के प्याले 🏵️🏵️
अक्सर सुबह टहलते
बाजार में या की
गली मोहल्ले, स्कूल, कॉलेज
कोर्ट कचहरी, बस स्टैंड, रेलवे स्टेशन, चौक- चौराहे पर,मिलते हुए,
वह चुकता नही था,कभी
अपने घर चाय पर
नेवतने से,
उसके इतने नेवतने पर
आखिर एक दिन
हम दोनों पहुँच ही गए
उसके घर,
चाय पर,
अद्भुत थी उसकी खुशी
उसके परिवार में
सभी के लिए
कौतुक का विषय था
हमारा चाय पर आना,
कुछ चर्चा के मध्य ,
आईं चाय सुंदर चमकते
चाय के प्यालों में
हम दोनों के लिए ,
बाकी लोगो के लिए
कांच के या स्टिल के
छोटे -छोटे गिलास में
हम दोनों पहले भी
जा चुके थे किंतने ही
पास पड़ोस नाते- रिश्ते में
चाय पर, लेकिन इससे पहले
हमने नही देखा था,
चाय के प्यालों को
बताते हुए किसी घर के
भीतर की बातें , इतनी आसानी,
इतनी सहजता से ।
🌺कंधा🌺
आदमी ने ही बनाये थे,
तांगा, बग्गी
और रथ
जानवर नही जानते थे,
बनाना, तांगा,
कोई बग्गी या की रथ ही
आदमी ने की यात्राएं,
लड़े युद्ध,
फ़तह किये किले
दुर्ग
जानवरों के पास था
मजबूत कांधा,
काम आया
आदमी के ।
🏵🏵 नदी 🏵🏵
जब लौट रही हैं
सारी सभ्यताएं
अपने अपने संकीर्ण बाड़े में
जब
संवेदनाओं को मार गया है काठ
जब
विचारधाराएं गिर पड़ी हैं औंधे मुंह
जब
कविता के पंछी थक कर बैठ गए हैं
पीली पड़कर
झड़ने लगी हैं इतिहास, और राजनीति
की पत्तियां
अपने पेड़ो की शाखाओं से
ऐसे में भी नहीं रुकी है केवल
मेरे गाँव की छोटी सी नदी ,
आगे बढ़ ही रही है।
🏵🏵 विवशता 🏵🏵
मेरी विवशता गाल पर छपी
उँगलियों के निशान नहीं है
जो मिट जाएगे थोड़ी देर में,
वे बीड़ी या सिगरेट से जली हुई
उंगलियां भी नही है कि चले जायेंगे
उनसे दगी चमडी के दाग और जलन
कुछ रोज में,
बाढ़ भी नही ही कि बढ़ा हुआ पानी उतर जाए बारिस के बाद ,
धूप नही गर्मी में बस लगे तेज और सर्दी में वही लगने लगे जरूरी,
पाला मारा खेत भी नही की अगले मौसम में बोने पर दे दे अच्छी उपज,
वह कोई फूल, पत्ती, याकि फल ही हो
की मौसम के लौटते ही आ जाये अपनी शाखों पर,
मेरी विवशता जीन्स की तरह
पीढ़ी
दर पीढ़ी होती रही है हस्तांतरित
रोटी देखते ही लगती है , पूँछ हिलाने
मेरी विवशता
चंद क्रूर और दुष्ट लोगों ने निर्मित की है
एक साजिश में घोलकर
एक दिन फट पड़ेगी मेरी विवशता
उनके सिर पर।
🌺 ईश्वर🌺
ए ईश्वर
तुम कब तक लड़ते रहोगे
अपनी ही धर्मध्वजा के खातिर
उठो
लड़ो
हमारी प्यास,
हमारी रोटी के लिए भी
एक युद्ध
🏵️🏵️ चाँद 🏵️🏵️
दूर आसमान से चाँद
उतर आया है तालाब के
हृदय तल पर ,
तालाब शांत है
नही होता कोई
कम्पन उसके पृष्ठ तल पर
तालाब,
अभी प्रेम में है।
टिप्पणी
शिवानी जयपुर
मुझे कविता में जो चीज़ मोहती है वो है उसकी सरलता! बेवजह की क्लिष्टता देखकर ऐसा महसूस होता है कि रचना सिर्फ हिंदी के विद्यार्थियों और शोधार्थियों को समर्पित है! पंक्तियों के मध्य जो अनकही छोड़ी गई बात पाठक अपने-अपने दृष्टिकोण और अंतर्दृष्टि से समझे ,वही कविता मुझे सफल लगती है!
कविता किसी भी चीज़ को समझने की एक अलग दृष्टि देती है! कोई धारणा स्थापित करने की कोशिश करती हुई कविता पूर्वाग्रहों से ग्रस्त हो सकती है!
इस दृष्टि से मिथिलेश जी की कविताओं को काफी सफल कहा जा सकता है!
गमछा कविता का फलक बहुत विस्तृत है। एक साधारण सी वस्तु के माध्यम से समयानुसार हुए सामाजिक परिवर्तन को दर्ज करती हुई सच्ची कविता!
चाय के प्याले के बहाने से भी समाज की मानसिक विसंगतियों को इंगित भर किया गया है! बाकी पाठक अपनी समझ से चिंतन करने के लिए मुक्त है!
कंधा कविता मनुष्य के स्वार्थ की कथा है!
नदी के बिम्ब लेते हुए जिजीविषा को दर्शाती कविता अनेक विसंगतियों पर प्रहार भी कर रही है।
विवशता बड़े फलक की छोटी-सी कविता है। आक्रोश दर्ज करती हुई!
चाँद बड़ी खूबसूरत सी प्रेम कविता है!
सभी कविताएँ सहज सरल हैं जो कि मेरे जैसे साधारण पाठकों को अति प्रिय हैं।
कविता समझने के लिए सिर के बल टँग जाना पड़े तो मैं पैरों के बल भाग लेती हूँ😀😀🙏🙏
टिप्पणी
ब्रज श्रीवास्तव
मिथिलेश की गमछा,विवशता, ईश्वर, चांद ,चाय के प्याले कविताओं को पढ़कर सोचने लगा कि इनमें कोई न कोई सामाजिक राजनैतिक मुद्दा है।
अस्मिता का रक्षण करती नदी,सामाजिक राजनीतिक जीवन से उपजी एक औसत व्यक्ति की स्थिति और जीवट को बयान करती कविता विवशता, प्रेम में पड़े बड़े से बड़े व्यक्ति का हाल बताती कविता चांद,ईश्वर की मान्यता पर एक तंज बतलाती कविता ईश्वर और स्वदेश की चीजों से इतराते लगाव वाली कविता गमछा ने चौंकाया कि मिथिलेश कविता के स्कूल के मेधावी और तालिब ए इल्म हैं।
इन कविताओं में जितना मसाला पाठकों के लिए है उससे ज्यादा मसाला आलोचकों और रसिकों के लिए भी है।
टिप्पणी
त्रिलोक महावर
🟣
तालाब प्रेम में है और कब तक धर्म सजा के लिए लड़ो गे ईश्वर छोटी-छोटी कविताएं विराट अर्थों को समेटे हुए हैं चांद का तालाब के जल के साथ सा साहचर्य अद्भुत प्रेम की रचना करता है वह ईश्वर को ध्वज ओ के सहारे इस कदर कवि को देखना गवारा नहीं अच्छी कविताओं के लिए असीम संभावनाओं के साथ शुभकामनाएं
टिप्पणी
खुदेज़ा खान
🙏🏻🌻
‘ईश्वर’ छोटी सी कविता में बड़ी बात निहित है।
अपनी-अपनी धर्मध्वजा की ख़ातिर ही हैं दुनिया के सारे झगड़े।
ईश्वर को चढ़ावे की ज़रूरत नहीं ,,,,,
भूखे , निर्धनों को सहारे की ज़रूरत है।
ईश्वर के भक्तों इन गरीबों पर कृपा करो तो तुम्हारा कल्याण भी हो जाएगा। तीव्र कटाक्ष है इस कविता में।
शेष कविताएं भी अपने भाव में किसी न किसी बात को उद्घाटित कर एक विचार समक्ष रखतीं हैं।
बधाई🙏🏻💐
ख़ुदेजा
नमस्कार,
आदरणीय मिथलेश जी
आपकी कविताओं के बिम्ब कमाल के है हालाकि भाषा में थोड़ी रुकावट सी प्रतीत होती है, यदि भाषा भी सरपट हो जाए तो बात बने । हां मगर कहना होगा आपकी कविताओं में संभावनाएं बहुत है, तरासिए धीरे – धीरे किन्तु सतत् तरासिये अपने अंदर मौजूद कवि को।
गमछा: एक अच्छी कविता गमछा हमारे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा हुआ करता था जो अब लुप्त हो रहा है, सच में यह एक सच्चा साथी था जो हमसे बिछड़ रहा है।
(इस कविता में “किनारे” को “किनारी” और “आंखो की” को “आंखो का” कर देंगे तो न्यायसंगत होगा)
चाय के प्याले : साधारण कविता है फिर भी पाठक का मन आकर्षित करती है।
कंधा : इस कविता में कवि की खोजी बुद्धि का प्रदर्शन होता है। अच्छी कविता है।
नदी : इस कविता का शीर्षक “नदी” न्यायसंगत नहीं लगा।
विवशता : इंसान का रोटी के लिए विवश होना लाजमी है अच्छी कविता है। सबसे अच्छी पंक्ति ” रोटी देखते ही लगती है, पूंछ हिलाने”
ईश्वर: इस कविता के भाव बड़े सुंदर हैं किन्तु हे! ईश्वर ना होकर , हे ! ईश्वर के बन्दों होना चाहिए । आखिर उसके वन्दे ही लड़ते है कभी ईश्वर को लड़ते देखा है।
चांद: कविता का भाव सुंदर है किन्तु तालाब शब्द की पुनरावृत्ति कविता के सौन्दर्य को कम कर रही है।
बाकी बहुत अच्छा कथ्य और शिल्प निर्मित हो रहा है आपकी कविताओं में। कोशिश करते रहिए अपनी संभावनाओं को और निखारिए।
शुभकामनाएं💐💐💐
आभार मंच🙏🏻💐💐💐
० आशीष मोहन
ज्योति गजभिए
🟣
मिथिलेश जी की कविताओं से कनेक्ट हो पा रही हूँ, सचमुच कविता वही है जो आपके मन की बात सीधे-सच्चे बिंबो के साथ कह दे, गमछा, चाय के प्याले, नदी, विवशता हमारे समाज के दृश्यों को हूबहू चित्रांकित कर रही हैं | दिखावा, भेदभाव जहाँ गमछा और चाय के प्याले में दिखाया गया है |सामंतवाद के दर्शन विवशता में होते हैं| नदी गाँव है तो सभ्यता सलामत है कहती है|
मनुष्य को समझा समझा कर हार जाने के बाद सीधा ईश्वर से प्रश्न
तुम कब तक लड़ते रहोगे अपनी धर्मध्वजा के खातिर?
चाँद कविता में प्रेम में होना ही ध्यानमग्न शाँत हो जाना है|
बहुत अच्छी लगी कविताएँ, ब्रज जी ने कहा कविताओं में भरपूर मसाले हैं पर,मुझे लगता है कविताओं में मसालों की नहीं चुटकी भर नमक की जरूरत होती है, मसालों से अजीर्ण हो जाता है और नमक से सुस्वाद बन जाता है और देर तक जिह्वा पर रहता है |
कृष्णा कुमारी. कोटा
🔵
आ. मिथिलेश जी की कविताएं बहुत प्यारी हैं। गगत में सागर। ईश्वर, गमछा, कंधा, चाँद बहुत सहज, सरल, मन को छूने वाली है। इतनी सरलता से बड़ी बात कह देना ही तो मुश्किल है। जिसे मिथिलेश जी ने सादगी से कर दिखाया है। और रचनाएँ भी बहुत नायाब है। जीवन से जुड़ी हैं सब कविताएँ।
डॉ.मौसमी परिहार.
🔵
आदरणीय मिथिलेश जी,
बढ़िया व्यक्तित्व के धनी सरल स्वभाव आपकी कविताओं में सरल भाषाओं का प्रभाव दिखाई पड़ता है।
आपकी लिखी कविता गमछा इससे मुझे नानाजी , बाबा जी, पापा जी का गमछा याद आ गया,
और याद आई और उनसे जुड़ी कुछ बातें।
चाय की प्याली की क्या बात बहुत सी बातें हैं चाय के साथ हम कह जाते हैं मन की भी।। बहुत ही चर्चाएं हो जाती हैं बढ़िया कविता
सचमुच कितनी आवश्यकता है इन कंधों की ये हमे सहारा देते हैं।
नदिया तो हमारी पूजनीय है भारत की सभ्यता संस्कृति की शुरुआत नदियों के किनारों से ही मानी जाती है यह भी शानदार कविता है।
विवशता कविता ने मुझे मेरी कई सारी बातों को याद दिल आया
ईश्वर यही वह शक्ति है जो इंसान को हर मुश्किल से उठाने की शक्ति देते हैं
चांद छोटी और संक्षिप्त कविता में बहुत बड़ी प्रेम की बड़ी बात।
आप की कविताएं अति सरल है बढ़िया बिंब है और प्रतीकों का आपने अच्छा उपयोग किया है आपने नदी ,सभ्यता ,विवशता का भाव आदि ऐसे विषयों को उठाया है जो प्राचीन काल से हमारे भावनाओं से जुड़ी हैं बढ़िया विषय के साथ अच्छी कविताएं आपको शुभकामनाएं💐💐
🔻
आनंद सौरभ,विदिशा.
🔺
आ. मिथिलेश सर की कविताएं बहुत ही अच्छी लगी। सामान्य से विषयों पर लिखी गई कविता जमीनी हकीकत से जुड़कर खास बन जाती है।
आपने अपनी कविता में जड़ वस्तुओं को भी जीवंत रूप प्रदान किया है जो आपकी लेखनक्षमता को बहुत ऊंचाई पर ले जा रहा है।
विचार प्रधान कविताएं यथार्थ के धरातल पर संवाद कर रही हैं।
जिंदगी के उथल पुथल, खुरदरी सतह पर झरने से बहने वाली आपकी कविता ने बहुत प्रभावित किया है।
आपकी स्पष्ट सरल भाषा कविता का अलग संसार रच रही हैं।
बहुत ही अच्छी कविता पढ़ाने के लिए, आपका बहुत-बहुत धन्यवाद,
शुभकामनाएं🙏
शुक्रिया साकीबा💐
बबीता गुप्ता.
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बिम्वात्मक शैली में रचित कविताएं
गमछा को प्रतीक बनाकर शहरी और ग्रामीण जीवन शैली को चित्रित करती …गमछा ग्रामीण परिवेश को चिह्नित करता जो सभ्य भद्र समाज के लिए किरकिरी..
परिवार की माली हालात बयां करता चाय का प्याला…परोसने में भी आगंतुकों में भी विशिष्टता…बहुत गहरी बात
जानवरों के पास था मजबूत कांधा काम आया आदमी…स्वार्थी प्रवृति के साथ इंगित करती पंक्तियाँ सहयोगिता, सहभागी जीवन को…
निर्मूल होती संस्कृति,सभ्यता पर कटाक्ष…
पीली पड़कर झड़ने लगी हैं इतिऔर राजनीति की पत्तियां अपने पेड़ों की शाखाओं से…
जातपात धर्मवाद पर गहरी भावाभिव्यक्ति..
बेहतरीन कवितायें….।
🔷
प्रोफेसर वनिता वाजपेयी।
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मिथलेश जी आपकी हर कविता प्रभावित करती है
गमछा कविता में आपने तथाकथित सभ्यता पर बड़ी सादगी से लिखा ,
चाय के प्याले के माध्यम से बनावट और सहजता को खूबी से रेखांकित किया
कांधा कविता में कम शब्दों में श्रम के महत्व को शामिल किया
नदी कविता में भी कम शब्दों में बड़ी बात
विवशता कविता में आपने बेहद ज़रूरी बातों पर ध्यान खींचा है
ईश्वर कविता बहुत मजबूत और मारक है
अंततः ईश्वर क्या है कोई ध्वज या पताका नहीं मानवता का संरक्षण ही वास्तव में धर्म है
चांद तो लाजवाब है
प्रेम को ख़ूब बुना
आपकी कविताओं की विशेषता कम शब्दों में संपूर्ण विषय का रेखांकन है
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