जिस तरह देश में कुछ खास पूंजी घरानों का मकड़जाल फैलता जा रहा है, उससे साफ-साफ लगता है कि सत्ता और व्यवस्था की चाभी अडानी और अम्बानी जैसे पूंजीपतियों के पास है. अडानी के खिलाफ ऑस्ट्रेलिया में हंगामा मचा हुआ है, जिसका एक अंश भी भारत का मीडिया भारत के लोगों को नहीं बता रहा है. जबकि एक ऑस्ट्रेलियाई नागरिक संसाधनों की लूट और जन-उत्पीड़न के भारत के साक्ष्य को ऑस्ट्रेलिया में पेश कर वहां भारी जन-समर्थन जुटा चुका है. अडानी ने तो भारत के मुंद्रा में पर्यावरण को तहस-नहस कर प्रोजेक्ट भी स्थापित कर लिया. कोयला खनन के अडानी के गोरखधंधे देश में विख्यात हैं ही. उन्होंने ऑस्ट्रेलिया के क्वींसलैंड में भी कोयला खनन का ठेका लिया और इसके लिए वहां के सागर तट की सुंदर प्रवाल-श्रृंखला को ध्वस्त करने की भी तैयारी कर ली है. इसके खिलाफ क्वींसलैंड के एक चरवाहे ने बीड़ा उठाया और आज पूरा ऑस्ट्रेलिया अडानी की हरकतों के खिलाफ खड़ा हो गया है.
एक ऑस्ट्रेलियाई चरवाहे (रैंचर) को अपने चारागाह के नष्ट होने, खेतों के ख़राब होने, भूजल के प्रदूषित होने और सबसे बढ़कर ऑस्ट्रेलिया के महत्वपूर्ण पर्यटक आकर्षण प्रवाल श्र्ृंखला (कोरल रीफ) की तबाही के डर ने इतना परेशान किया कि वो एक बड़ी कोयला खनन कम्पनी के सामने अकेला सीना ठोक कर खड़ा हो गया. अपने मवेशियों और अपने कारोबार को अपने बेटे के हवाले कर उसने भारत का दौरा किया.
वो खुद अपनी आंखों से देखकर ऑस्ट्रेलिया के लोगों को बताना चाहता था कि जिस भारतीय कंपनी को उसके चारागाह के आस-पास कोयला खनन का ठेका दिया गया है, उसने भारत में अपनी परियोजनाओं और कार्यक्रमों से कैसे तबाही मचा रखी है और पर्यावरण को किस तरह से नुकसान पहुंचा रही है. ऑस्ट्रेलिया के इस चरवाहे का नाम ब्रूस कर्री है, जो क्वींसलैंड प्रांत का निवासी है. जिस भारतीय कम्पनी को ऑस्ट्रेलिया में खनन का ठेका मिला है, वो है विख्यात अडानी समूह और उसके मालिक का नाम है गौतम अडानी. अडानी पूंजी घराने से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नजदीकियां जगजाहिर हैं.
अडानी समूह के 22 अरब डॉलर के कारमाइकल कोयला खनन परियोजना के खिलाफ कर्री ने जब अपना आंदोलन शुरू किया था, तब उनके समर्थन में उस समय बहुत कम लोग खड़े थे, लेकिन धीरे-धीरे समर्थकों की संख्या बढ़ने लगी. जिस दिन क्वींसलैंड की सरकार ने इस परियोजना को हरी झंडी दिखाई, उसी दिन कर्री ने भारत आने का फैसला किया. अडानी ग्रुप द्वारा गुजरात में चल रही परियोजनाओं के दौरान पर्यावरण और दूसरे मानकों के उल्लंघन की रिपोर्ट कर्री ने जब लोगों तक पहुंचाई, तो उनके समर्थन में क्रिकेटर, आर्टिस्ट, लेखक, राजनेता और यहां तक कि उद्योगपतियों सहित ऑस्ट्रेलिया की कई मशहूर हस्तियां खड़ी हो गईं.
प्रांतीय सरकार ने अडानी ग्रुप को कोल माइनिंग के साथ-साथ भूजल के इस्तेमाल की भी असीमित छूट दे रखी है. कर्री द्वारा शुरू किया गया आंदोलन मुख्य रूप से इसी भूजल को प्रदूषित होने से बचाने पर केंद्रित है. अपनी रिपोर्ट में कर्री कहते हैं कि भारत में पड़ताल के दौरान उन्हें अच्छी तरह से इसका अंदाज़ा लग गया कि अडानी वहां पर कितने प्रभावी और शक्तिशाली हैं. वहां ये साफ-साफ देखा जा सकता है कि अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके उन्होंने कैसे फायदा उठाया है. अब हम वहीं सब ऑस्ट्रेलिया में भी देख रहे हैं. अडानी ग्रुप का प्रभाव क्वींसलैंड के लेबर्स, स्थानीय मेयर्स सभी पर है.
गौरतलब है कि कर्री भूजल संरक्षण के लिए लम्बे समय से लड़ाई लड़ रहे हैं. दरअसल, ज़मीन का पानी उनके चारागाह और उससे जुड़े कारोबार के लिए बहुत ही ज़रूरी है. इसीलिए राज्य सरकार द्वारा अडानी की परियोजना को हरी झंडी दिए जाने के बाद भी उन्होंने अपनी लड़ाई जारी रखी. अपनी लड़ाई को और आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने अपने देश की संसद, अदालत और संबद्ध संस्थाओं के दरवाज़ों पर दस्तक दी. उसी क्रम में वे एक फैक्ट फाइंडिंग मिशन पर भारत भी आए.
ज़ाहिर है जिन तथ्यों का कर्री ने अपनी रिपोर्ट में ज़िक्र किया है, वे भारत के हैं. ऐसा नहीं है कि भारत में इस तरफ किसी का ध्यान नहीं गया है. खुद भारत सरकार के पर्यावरण मंत्रालय ने अडानी एंटरप्राइजेज पर पर्यावरण के नियमों के उल्लंघन के मामलों में 200 करोड़ रुपए या प्रोजेक्ट की कुल लागत का एक प्रतिशत जुर्माना लगाया था. गौर करने वाली बात ये है कि जिन तथ्यों की बुनियाद पर कर्री अपने देश में जन समर्थन जुटा रहे हैं, उन्हीं तथ्यों को लेकर भारत के नागरिक समाज में कोई बेचैनी या कोई रोष दिखता प्रतीत नहीं हो रहा है.
कुछ पर्यावरणविद और एनजीओ को छोड़ दिया जाए, तो ऐसा लगता है कि प्रभावित किसानों से किसी का कोई लेना देना नहीं है. सरकारें तो विकास के नाम पर दबे कुचलों की सुनने को तैयार ही नहीं हैं, उनका सारा ध्यान उद्योगपतियों के हित को साधने में लगा हुआ है. विपक्ष भी खामोश है. जो एनजीओ ऐसे मामलों में सवाल उठाते हैं, उनके खिलाफ भी विगत कुछ वर्षों से ऐसा माहौल तैयार किया जा रहा है जैसे वे विकास के दुश्मन हैं या फिर देश के दुश्मन हैं. ऐसे में विकास के नाम पर हो रही धांधली देख कर कर्री का विचलित हो जाना स्वाभाविक लगता है.
मुंद्रा में शर्तों का उल्लंघन और अडानी पर जुर्माना
अडानी एंटरप्राइजेज द्वारा मुंद्रा में विकसित किए जा रहे बंदरगाह और विशेष आर्थिक क्षेत्र परियोजना (एसईजेड) द्वारा पर्यावरणीय मानदंडों के उल्लंघन मामले की जांच के लिए तत्कालीन यूपीए सरकार के पर्यावरण मंत्रालय ने एक समिति गठित की थी. पर्यावरणविद् सुनीता नारायण की अध्यक्षता वाली इस पांच सदस्यीय समिति ने पर्यावरण और वन राज्य मंत्रालय को दी गई अपनी रिपोर्ट में कहा था कि अडानी वाटरफ्रंट और पावर प्लांट परियोजना में पर्यावरणीय शर्तों की अनदेखी की गई थी.
इस समिति ने आरोपों की जांच के लिए रिमोट सेंसिंग की तकनीक का इस्तेमाल किया था और पाया कि पिछले एक दशक में बोचा द्वीप के 75 हेक्टेयर क्षारीय जंगलों को नष्ट कर दिया गया है. ये एक संरक्षित क्षेत्र था. रिमोट सेंसिंग की तस्वीरों में ये भी पाया गया कि निर्माण गतिविधियों के कारण प्रस्तावित उत्तर पोर्ट के पास के क्रीक और घाटियों को नुकसान पहुंचा है. कंपनी ने उड़ने वाले राख के निपटारे, समुद्री जल के आउटलेट और निर्वहन के कारण होने वाले जल प्रदूषण में वृद्धि को रोकने के लिए कुछ नहीं किया. समिति ने ये भी पाया कि इस परियोजना की मंजूरी को तोड़ने-मरोड़ने की कोशिश की गई. साथ ही कई तरह के बहाने बनाकर जन सुनवाई की प्रक्रिया का अनुपालन नहीं किया गया.
जबकि जन सुनवाई इस परियोजना की मंजूरी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. इससे स्थानीय लोगों की समस्याओं को समझने और उन्हें दूर करने में मदद मिलती है. रिपोर्ट में ये भी कहा गया था कि इससे परियोजना के लिए हुए भूमि अधिग्रहण और निर्माण कार्यों से हुए बदलावों से सबसे ज्यादा वे मछुवारे प्रभावित हुए, जो अपनी आजीविका के लिए समुद्र तट पर निर्भर हैं. सुधारात्मक उपाय के तौर पर पर्यावरण के पुनर्स्थापन के लिए समिति ने कंपनी पर परियोजना की लागत का 1 प्रतिशत या 200 करोड़ रुपए का जुर्माना लगाया.
इसका उपयोग पर्यावरण को हुए नुकसान की भरपाई करने और निगरानी प्रणाली को मजबूत करने के लिए किया जाना था. इस क्षेत्र के नाज़ुक पारिस्थितिकी संतुलन को संरक्षित रखने के लिए प्रस्तावित उत्तरी पोर्ट को पूर्ण रूप से रद्द करने की भी सिफारिश की गई थी. साथ ही क्षारीय जंगलों को संरक्षित करने, लवणापन से निपटने और तटीय क्षेत्र को प्रभावित करने वाली आपदाओं से निपटने के लिए कदम उठाने की बात भी कही गई थी. उस समय समिति ने एक महत्वपूर्ण बात ये कही थी कि यदि परियोजना की शर्तों के अनुपालन पर जोर दिया गया होता और उसकी निगरानी ठीक ढंग से की गई होती, तो फिर किसी समिति को जांच करने और रिपोर्ट पेश करने की आवश्यकता ही नहीं होती.
बहरहाल, हाल में ये ख़बर आई कि मौजूदा सरकार ने अडानी एंटरप्राइजेज पर लगे 200 करोड़ रुपए के जुर्माने को मा़फ कर दिया है. हालांकि बाद मेंसरकार ने इस रिपोर्ट का खंडन किया और कहा कि पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने कंपनी की जिम्मेदारियों को बढ़ा दिया है, जिसके अनुसार अब राशि की कोई सीमा नहीं होगी. अब सवाल ये उठता है कि जो कंपनी खुले तौर पर परियोजना की शर्तों का उल्लंघन करती रही, वो एक गैर निर्धारित राशि कैसे खर्च करेगी? यदि विपक्ष और पर्यावरण से जुड़े लोग 200 करोड़ रुपए के जुर्माने की बात करते हैं, तो सरकार को इसे जारी रखने में क्या मजबूरी है? यदि कंपनी की जिम्मेदारियों को बढ़ाना ही था, तो 200 करोड़ की राशि में और इज़ा़फा किया जा सकता था और एक निश्चित राशि की बात की गई होती.
सरकार अपने पसंदीदा कॉर्पोरेट्स की हिमायत करती है
विपक्ष और राजनीतिक विश्लेषकों की तरफ से अक्सर ये आरोप लगता है कि मोदी सरकार अपने पसंदीदा पूंजीपतियों को फायदा पहुंचाने की कोशिश करती रही है. इस सिलसिले में जिन उद्योगपतियों का नाम लिया जाता है, उनमें अडानी और अम्बानी के नाम महत्वपूर्ण हैं. भले ही सरकार और मीडिया का एक बड़ा वर्ग इस तथ्य को झुठलाए, लेकिन ये सच्चाई है कि अपने कार्यकाल के शुरुआती दौर में जब मोदी लगातार विदेश दौरे कर रहे थे, तब आम तौर पर उन दौरों में अडानी ज़रूर शामिल रहे.
उस दौरान अडानी ग्रुप को कई प्रोजेक्ट भी मिले, जिनमें क्वींसलैंड का विवादित कोल माइनिंग प्रोजेक्ट भी शामिल था. इस प्रोजेक्ट के सम्बंध में सबसे महत्वपूर्ण बात ये रही कि शुरुआत से ही इसके विवादों में रहने के बावजूद स्टेट बैंक ऑफ इंडिया ने इसके लिए कथित तौर पर एक अरब डॉलर का ऋण आवंटित किया. सवाल ये उठता है कि कोई बैंक किसी कंपनी को इतना बड़ा क़र्ज़ बिना किसी सरकारी दबाव के कैसे दे सकता है, वो भी ऐसे समय में जब बैंकों को उनके नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स (एनपीए) ने परेशान कर रखा है?
हालांकि सूत्रों के हवाले से ये खबर आई थी कि एसबीआई ने अडानी को क़र्ज़ आवंटित करने से इंकार कर दिया है. लेकिन फिर एक आरटीआई के जवाब में जब ये पूछा गया कि बैंक ने अडानी समूह को कितना ऋण आवंटित किया है, तो बैंक ने इस सम्बंध में जानकारी देने से मना कर दिया. इस परियोजना का अब तक विवादों से पीछा नही छूटा है. ऑस्ट्रेलिया में लोग इसका भारी विरोध कर रहे हैं. ऑस्ट्रेलिया के प्रबुद्ध लोगों के एक समूह ने अडानी को पत्र लिख कर इस परियोजना से अपना हाथ वापस खींच लेने की अपील की है. इस मामले में वहां लोगों का संघर्ष सड़क से लेकर संसद तक और संसद से अदालत तक जारी है.
ज़ाहिर है, स्पेशल इकोनोमिक जोन में हुई पर्यावरण के मानकों की खुली अनदेखी महज़ इत्तेफाक नहीं हो सकती है. जब तक किसी उद्योगपति को राजनीतिक शह नहीं मिलता, तब तक वो खुलेआम ऐसा नहीं कर सकता है. सरकार से उनकी नज़दीकी का अंदाजा 200 करोड़ रुपए के जुर्माने की मा़फी से भी लगाया जा सकता है. दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गौतम अडानी की नजदीकियां किसी से ढकी-छिपी नहीं हैं. दोनों का साथ बहुत पुराना है और ये रिश्ता एकतरफा भी नहीं है.
2002 के गुजरात दंगों के बाद जब नरेन्द्र मोदी चारो तरफ से घिरे हुए थे और खुद तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें राजधर्म निभाने का निर्देश दिया था, तब लगभग सभी पूंजीपतियों ने उनसे किनारा कर लिया था. ऐसे समय में अडानी ही अकेले उनके साथ खड़े थे. उन्होंने मोदी के लिए उद्योग जगत से लोहा लिया. जब कॉऩ्फेडरेशन ऑ़फ इंडियन इंडस्ट्री (सीआईआई) ने गुजरात दंगों के लिए मोदी की आलोचना की, तो अडानी ने कुछ स्थानीय व्यापार समूहों के साथ मिलकर रिसर्जेंट ग्रुप ऑ़फ गुजरात नाम की संस्था बनाई और सीआईआई छोड़ने की धमकी दे डाली थी.
उसी तरह जब 2013 में वार्टन बिजनेस स्कूल ने मोदी का नाम कीनोट स्पीकर से हटा दिया, तो उसके विरोध में अडानी ने अपनी फंडिंग वापस ले ली थी. अडानी उस कांफ्रेंस के मुख्य प्रायोजकों में से एक थे. ये भी कहा जाता है कि 2014 के मोदी के चुनाव अभियान को अडानी ने दिल खोल कर समर्थन दिया था. मोदी अपने चुनाव प्रचार के दौरान अडानी के निजी जेट का इस्तेमाल करते देखे गए और चुनाव जीतने के बाद भी वे अडानी के निजी विमान से ही दिल्ली आए थे. अडानी की इसी पृष्ठभूमि की वजह से उनके आलोचक उनपर सवाल उठाते हैं और हर उस परियोजना को शक की निगाह से देखा जाता हैं, जिसमें अडानी ग्रुप शामिल है.
अडानी के बारे में कहा जाता है कि वे न केवल भारत के सबसे अमीर लोगों में से एक हैं, न सिर्फ भारत के सबसे बड़े निजी बंदरगाह को संचालित करते हैं और न सिर्फ भारत के सबसे बड़े निजी बिजली उत्पादक हैं, बल्कि देश के सर्वाधिक शक्तिशाली और राजनैतिक रसूख वाले व्यक्तियों में से भी एक हैं. ये राजनीतिक रसूख उन्हें उनकी प्रधानमंत्री से नजदीकी की वजह से मिलती है.
बहुत से लोगों का मानना है कि पर्यावरण की क्षति को लेकर यूपीए सरकार द्वारा लगाए गए 200 करोड़ रुपए के जुर्माने की मा़फी हो या छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के अधिकारों के उल्लंघन के बाद भी धड़ल्ले से चल रहे माइनिंग प्रोजेक्ट की, सब मोदी से अडानी की नजदीकियों के कारण ही हो रहा है. चौथी दुनिया ने पूर्व में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसमें मौजूदा सरकार के दो मंत्रालयों के बीच वन अधिकार को कमज़ोर करने सम्बंधी मुद्दे पर विचारों के आदान-प्रदान को दिखाया गया था. चौथी दुनिया ने ही एक और रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जो वन अधिकार कानून के कार्यान्वयन पर देश के एनजीओ के एक समूह द्वारा तैयार रिपोर्ट पर आधारित थी.
इस रिपोर्ट में बताया गया था कि अब तक वन अधिकार कानून का महज 10 प्रतिशत कार्यान्वयन ही हो पाया है. तब ये भी सवाल उठा कि नरेन्द्र मोदी प्रो-बिज़नेस हैं या प्रो-अडानी/अम्बानी? मोदी जब गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब अडानी को एसईजेड के लिए देश भर में सबसे सस्ते दर पर ज़मीन आवंटित की गई. ये ज़मीन उन्हें 1 रुपए से 32 रुपए प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से दी गई थी. जबकि नैनो यूनिट के लिए टाटा मोटर्स को अहमदाबाद के नज़दीक 1100 रुपए प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से ज़मीन दी गई. वहीं हंसलपुर में मारुती सुजुकी को 670 रुपए प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से ज़मीन दी गई.
सस्ती ज़मीन के साथ-साथ अडानी को गैर कृषि योग्य ज़मीन दी गई, इसलिए अधिग्रहण के दौरान विरोध का सामना नहीं करना पड़ा. मोदी के मुख्यमंत्रित्व काल के दौरान ही कैग ने अडानी को लाभ पहुंचाने के लिए गुजरात सरकार की संस्था गुजरात स्टेट पेट्रोलियम कॉरपोरेशन (जीएसपीसी) की खिंचाई की थी. कैग रिपोर्ट में कहा गया था कि जीएसपीसी ने तात्कालिक बाजार भाव पर प्राकृतिक गैस खरीदी और अडानी को निर्धारित मूल्य पर बेच दिया, जो बाज़ार भाव से बहुत कम था. इस मामले में अडानी को 70 करोड़ रुपए का फायदा पहुंचाया गया. हालांकि जीएसपीसी ने एस्सार स्टील को भी 12.2 करोड़ रुपए का लाभ पहुंचाया था. लेकिन यहां एक बार फिर मोदी और अडानी के निकट संबंधों की वजह से इस मामले को संदेह की नज़र से देखा गया.
अडानी बड़े या अम्बानी
जब नीरा राडिया का टेप लीक हुआ था, तो उसमें अटल बिहारी वाजपायी के दामाद रंजन भट्टाचार्य को ये कहते सुना गया था कि मुकेश अम्बानी ने उनसे कहा था, कांग्रेस अब अपनी दुकान है. अम्बानी और अडानी में अंतर सिर्फ इतना है कि मोदी के आने से पहले भी अम्बानी राष्ट्रीय परिदृश्य पर मौजूद थे और मोदी के आने के बाद भी मौजूद रहे, जबकि अडानी इससे पहले बहुत हद तक गुजरात तक ही सीमित थे. अम्बानी के कांग्रेस के साथ भी अच्छे सम्बंध थे और भाजपा के साथ भी अच्छे सम्बंध हैं, जबकि अडानी के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है.
क्योंकि कांग्रेस के कार्यकाल में ही अडानी के ऊपर मुंद्रा पोर्ट और एसईजेड के विकास के दौरान पर्यावरण के मानकों के उल्लंघन का दोषी मानते हुए 200 करोड़ रुपए का जुर्माना लगाया गया था. लेकिन मोदी के सत्ता में आने के बाद अडानी राष्ट्रीय परिदृश्य पर नज़र आने लगे. हालांकि अम्बानी और अडानी दोनों ही मोदी के विदेशी दौरों पर अक्सर उनके साथ रहे हैं. दोनों का सम्बंध गुजरात से है. लेकिन मोदी से नजदीकी के मामले में यदि दोनों में से किसी एक का चुनाव करना पड़े, तो निश्चित रूप से वो अडानी ही होंगे.
मीडिया में अम्बानी का हित
कॉर्पोरेट सेक्टर ने अपने हित साधने के लिए मीडिया पर क़ब्ज़ा जमाना शुरू कर दिया है. मुकेश अम्बानी ने देश के सबसे बड़े टीवी नेटवर्क, नेटवर्क-18 को खरीद कर मीडिया पर क़ब्ज़े की ओर अपना क़दम बढा दिया है. नेटवर्क-18 के अलावा वे केबल टीवी पर भी नज़र रखे हुए हैं और अब टीवी सेट पर क़ब्ज़ा ज़माने के लिए 2 अरब डॉलर की राशि खर्च करने की योजना बना रहे हैं. ऐसे दौर में, जब न्यूज़ चैनल और अखबार सत्ताधारी दल का मुखपत्र बन गए हैं, बिज़नेस हाउसेज को लगता है कि मीडिया उनके लिए भी एक माहौल तैयार कर सकता है.
मिसाल के तौर पर, ये धारणा देश में घर कर गई है और साक्ष्य भी उसी ओर इशारा करते हैं कि अडानी और अम्बानी पर मोदी सरकार की खास नज़र-ए-इनायत है. हालांकि इंटरनेट और संचार के दूसरे माध्यमों में बड़ी संख्या में ऐसी खबरें पढ़ने और देखने को मिल जाएंगी, जिनमें ये कह कर मोदी से अम्बानी और अडानी की नजदीकियों को ख़ारिज किया जा रहा है कि मोदी के कार्यकाल में इन दोनों कंपनियों को काफी नुकसान हुआ है. इसलिए मोदी किसी तरह से इनकी तरफदारी नहीं कर रहे हैं.
लेकिन मीडिया ये बताना भूल जाता है कि देश का प्रधानमंत्री किसी प्राइवेट कंपनी के प्राइवेट प्रोडक्ट के विज्ञापन में कैसे आ सकता है. मामला जियो मोबाइल का है. जियो के विज्ञापन में प्रधानमंत्री की तस्वीर देश के हर बड़े अखबार में छपी थी. इसके जवाब में मुकेश अम्बानी ने कहा था कि मोदी जी सबके प्रधानमंत्री हैं, इसलिए उनकी तस्वीर को विज्ञापन में शामिल करने में कोई बुराई नहीं है. लेकिन इस सिलसिले में जो सबसे हास्यास्पद खबर आई, वो ये थी कि प्रधानमंत्री का फोटो बिना इजाज़त विज्ञापन में छापने पर 500 रुपए का जुर्माना लग सकता है.
देश के सबसे अमीर व्यक्ति पर ये कैसा जुर्माना है? अब यही काम जो चाहे वो अपने प्रोडक्ट के प्रचार के लिए कर सकता है, क्योंकि केवल 500 रुपए के जुर्माने के साथ उसे इतना बड़ा ब्रांड एम्बेसडर मिल जाएगा. जियो से ही जुड़ा एक दूसरा मामला है, जो बहुत ही संवेदनशील है. ये मामला है आधार कार्ड का. जब सुप्रीम कोर्ट ने आधार कार्ड की अनिवार्यता पर स्टे लगा रखा था, तो देश के नागरिकों ने अपनी व्यक्तिगत पहचान को एक प्राइवेट कंपनी के हवाले कैसे कर दिया? उसके फौरन बाद ये खबर आई कि 13 करोड़ लोगों का आधार डाटा लीक हो गया है. अब जबकि आधार की सुरक्षा व्यवस्था ठीक नहीं है, तो किसी प्राइवेट कंपनी को इसके इस्तेमाल की इजाज़त कैसे दे दी गई!
एक और मामला रिलायंस द्वारा ओएनजीसी की संसाधन चोरी का है. कैग ने अपनी रिपोर्ट में केजी-डी6 बेसिन में 2011 से 2014 के मध्य 9,307.22 करोड़ रुपए मूल्य की गैस निकासी का अंदाज़ा लगाया था. लेकिन देश के प्राकृतिक संसाधन की इस लूट में कैग की रिपोर्ट आने के बाद भी सरकार केवल इसलिए खामोश है, क्योंकि इसमें मुकेश अम्बानी का नाम शामिल है. मीडिया भी खामोश है और देश का विपक्ष भी खामोश है. जो लोग आवाज़ उठा रहे हैं, उनकी आवाज़ में इतनी गूंज नहीं है कि वो देश के नीति-निर्माताओं की कानों तक पहुंच सके. चाहे वो सत्ताधारी दल हों या विपक्षी, सब पर कॉर्पोरेट चंदे का दबाव इतना अधिक है कि जनता के दुःख दर्द की बजाय उन्हें बड़ी कंपनियों के हितों की रक्षा करना ज्यादा ज़रूरी लगता है.
एक और सवाल खड़ा होता है कि क्या सरकार से नजदीकी रखने वाले पूंजीपतियों के खिलाफ उठने वाली आवाज़ों का दम घुट गया है? अडानी समूह जैसी शक्तिशाली कंपनी के खिलाफ ऑस्ट्रेलिया से भारत आकर कोई व्यक्ति अपने हितों की रक्षा के लिए साक्ष्य जुटा सकता है, तो भारत में भारतीयों के हितों की रक्षा के लिए आवाजें क्यों नहीं उठ रही हैं? क्या अब लोकतंत्र की परिभाषा ये हो गई है कि लोकतंत्र जनता की, जनता द्वारा चुनी हुई उस सरकार को कहते हैं, जो अपने पसंदीदा कॉर्पोरेट्स के लिए काम करती है और इनके लिए अच्छे दिन का मतलब अपने पसंदीदा कॉर्पोरेट्स के अच्छे दिनों से है?
कर्री की रिपोर्ट के कुछ अहम बिन्दु
• मुंद्रा और हज़िरा के किसानों और मछुआरों को नौकरियां देने और स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के वादे खोखले साबित हुए.
• अडानी समूह ने भूजल प्रदूषित किया, अवैध रूप से जमीन पर कब्जा किया और मैंग्रोव जंगलों को तबाह किया.
• अडानी के बंदरगाह के निर्माण के बाद हजीरा के मछुआरों के मछली पकड़ने की संख्या में 90 फीसदी तक कम आई है. मछुआरों की ये भी शिकायत थी कि अब उनकी मछलियों से बदबू आती है और उनका स्वाद पहले जैसा नहीं है.
• मुंद्रा में खजूर की खेती करने वाले एक किसान ने बताया कि अडानी बिजली संयंत्र से उठने वाले कोयले की धूल के कारण उसकी पूरे 10 एकड़ की फसल ख़राब हो गई. कपास और अरंडी तेल की उसकी फसलों को भी काफी नुकसान पहुंचा है.
• जल संसाधनों में अवरोध उत्पन्न किया गया.
• अडानी की कोयला परियोजनाओं के नज़दीक रहने वाले लोगों की जिंदगी बेहतर होने की बजाय और मुश्किल हो गई है.
• कई लोगों की पारम्परिक आजीविका के साधन नष्ट हो गए. कुछ लोगों को मजबूरन अदालत का दरवाज़ा खटखटाना पड़ा और कुछ मजबूरन पलायन भी कर गए.
स्रोत : नार्थ क्वींसलैंड रजिस्टर