भारतीय न्याय प्रणाली कहती है कि भले ही कोई दोषी बच जाय, लेकिन किसी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए. पर अफसोस कि खुद को सफल दिखाने की प्रशासनिक जल्दबाजी कई बार निर्दोषों को बली का बकरा बना देती है. दोषी तो बचते ही हैं, जो मारे जाते हैं, उन्हें यह भी पता नहीं होता कि उनका जुर्म क्या था. यहां तक कि उन्हें अपनी बात कहने का भी मौका नहीं दिया जाता. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक रिपोर्ट कहती है कि 2004-05 से 2013-14 के बीच सेना-पुलिस द्वारा किए गए एनकाउंटर में 1654 लोग मारे गए हैं. चिंता की बात यह है कि इनमें से ज्यादातर एनकाउंटर की विश्वसनियता सवालों के घेरे में हैं. आंकड़े बताते हैं कि भारत में हर दूसरे दिन एक आदमी एनकाउंटर में मारा जाता है.
हाल के कुछ वर्षों में ओड़ीशा की धरती ऐसे ही आदिवासियों के खून से लाल हो रही है, जो सेना-पुलिस द्वारा एनकाउंटर में मार दिए गए और मारे जा रहे हैं. हालांकि ऐसे एनकाउंटरों में से अधिक के फर्जी होने के प्रमाण के बाद भी इनकी संख्या में कमी नहीं आ रही है. कई मानवाधिकार संगठनों और न्यायालय द्वारा फटकार के बाद भी सरकार और प्रशासन की तंद्रा टूट नहीं रही है. ताजा मामला है, ओड़ीशा मानवाधिकार आयोग (ओएचआरसी) की एक रिपोर्ट का, जिसमें आयोग ने 2015 के एक एंटी-नक्सल ऑपरेशन को लेकर ओड़ीशा सरकार को फटकार लगाई है.
26 जुलाई 2015 को कंधमाल के कोटागाड़ा में नक्सल ऑपरेशन की आड़ में एक दंपती को मार दिया गया था. आयोग की जांच में एनकाउंटर फर्जी पाया गया. ओएचआरसी की ओर से 3 जनवरी को सरकार को भेजे गए रिपोर्ट में कार्यकारी अध्यक्ष बीके मिश्रा ने ओड़ीशा सरकार को आदेश दिया है कि नायक और विथीन के परिजनों को 2 महीने के भीतर 10 लाख का मुआवजा दिया जाय. एनकाउंटर के बाद से ही क्षेत्र में चर्चा थी कि वह एनकाउंटर फर्जी था और पुलिस ने बिना किसी जांच-पड़ताल के ही दुबेश्वर नायक और उनकी पत्नी बुभुड़ी विथीन को गोली मार दी थी.
इस मामले में तो परिजन और मानवाधिकार संगठन शुरू से सक्रीय थे, इसलिए सच्चाई सामने आ गई. वरना ऐसे कई एनकाउंटर होते हैं, जिसकी सच्चाई दबी रह जाती है और मरने वाले आम आदिवासी की पहचान भी माओवाद से जोड़ दी जाती है. सरकार भी ऐसे मामलों में तब तक अपनी सक्रीयता नहीं दिखाती जब तक कि मामला मीडिया में नहीं आता और हो-हल्ला नहीं होता.
ओएचआरसी की रिपोर्ट में जस्टिस मिश्रा ने कहा भी है कि राज्य सरकार आदिवासियों के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन ठीक तरह से नहीं कर पा रही है, यही कारण है कि फर्जी एनकाउंटर की आड़ में निर्दोष आदिवासी मारे जा रहे हैं.
लंबी है फर्जी एनकाउंटर की फेहरिस्त
पिछले साल 8 जुलाई को कंधमाल के ही बालीगुड़ा में एंटी-नक्सल ऑपरेशन के दौरान ऑटो रिक्शा पर सवार 12 आदिवासियों पर पुलिस ने फायरिंग की थी, जिसमें 5 की मौत हो गई और 4 बुरी तरह जख्मी हो गए थे. मारे गए लोगों में एक बच्ची भी शामिल थी. सभी आदिवासी मनरेगा की मजदूरी के बाद अपने गांव लौट रहे थे. इस घटना के बाद ओड़ीशा भाजपा के प्रवक्ता सज्जन शर्मा ने कहा था कि नक्सल ऑपरेशन की आड़ में सरकार आदिवासियों के साथ जानवरों जैसा व्यवहार कर रही है.
मामले में 11 जुलाई को ओएचआरसी ने ओड़ीशा पुलिस के उच्च अधिकारियों को नोटिस जारी किया था. 14 नवंबर 2012 को पुलिस और नक्सल नेता सब्यसाची पांडा के गुट से मुठभेड़ की खबर आई थी. बताया गया था कि इस मुठभेड़ में 5 नक्सली मारे गए हैं. लेकिन बाद में मीडिया से बातचीत में सब्यसाची पांडा ने कहा था कि पुलिस मारे गए जिन 5 लोगों को मेरे गुट का नक्सली बता रही है, वे निर्दोष ग्रामीण हैं और उनका मेरे पार्टी कैडर से कोई संबंध नहीं है.
मारे गए लोगों के परिजनों ने भी यह कहा था कि वे तो खुद ही माओवादियों से डरकर रहते हैं, वे उनका साथ कैसे दे सकते हैं. मानवाधिकार के लिए काम करने वाले कई ग्रुपों के सम्मिलित संगठन, कॉर्डिनेशन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स ऑर्गनाइजेशन (सीडीआरओ) ने इस मामले की तह तक जा कर सच्चाई का पता लगाने के लिए छह सदस्यों की एक फैक्ट फाइंडिंग टीम का गठन किया था.
इस टीम की छानबीन में यह सामने आया कि मारे गए पांचो आदिवासियों पर पुलिस को शक था कि वे माओवादियों से मिले हुए थे और इसी शक के आधार पर उनका एनकाउंटर कर दिया गया. दिसंबर 2010 में ऐसी ही तीन घटनाएं सामने आई थीं, जिनमें करीब 25 लोगों पर माओवादी होने का आरोप लगा कर उनका एनकाउंटर किया गया था. उनमें से कुछ लोगों को छोड़कर बाकी सभी आदिवासी थे. मारे गए लोगों में 10 महिलाएं और एक बच्ची भी शामिल थी. सभी को बड़ी बेरहमी से मारा गया था. इस माामले में भी मानवाधिकार आयोग ने संज्ञान लिया था. काशीपुर और कलिंगानगर में 2000 से 2006 के बीच 17 आदिवासियों के एनकाउंटर पर भी सवाल उठे थे.
इधर कुआं उधर खाई
ओड़ीशा प्राकृतिक संसाधनों के मामले में अग्रणी राज्यों में से एक है. जंगल और खनिज संसाधन के मामले में धनी इस राज्य में कोयला, बॉक्साइट, क्रोमाइट, आयरन और निकेल के भंडार हैं. जाहिर है, इनके खनन के लिए कई सरकारी योजनाएं चल रही हैं. माओवादियों के साथ-साथ कई स्थानीय संगठन भी ऐसे खनन का विरोध करते रहते हैं. योजनाओं के ठीक ढंग से कार्यान्वयन के लिए सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए स्थानीय पुलिस के साथ-साथ अर्द्धसैनिक बलों को भी नियुक्त किया गया है. जो विकास कार्यों के सफल संचालन के लिए माओवादियों के हिंसात्मक विरोध को दबाने की कोशिश करते हैं. लेकिन ऐसी कोशिशों में कई बार निर्दोष ग्रामीण भी पुलिसिया कार्रवाई का शिकार हो जाते हैं. ज्यादातर स्थानीय आदिवासी माओवादियों से मिले होने के शक में मारे जाते हैं. वहीं दूसरी तरफ माओवादी, पुलिस का मुखबीर होने के शक में निर्दोष लोगों को मारते हैं. इस तरह की कई घटनाएं सामने आने के बाद भी नक्सल ऑपरेशन की आड़ में मर रहे निर्दोष आदिवासियों को बचाने के लिए सरकार और पुलिस-प्रशासन कोई ठोस कदम नहीं उठा रही है.
सवालों के घेरे में पुलिसिया कार्रवाई
2014 रमें एक एनकाउंटर के सवालों के घेरे में आने के बाद सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हम इस बात से अनजान नहीं हैं कि भारत में अपराधियों से लोहा लेना पुलिस के लिए हमेशा ही एक मुश्किल काम रहा है. आतंकियो, अलगाववादियों और हार्डकोर नक्सलियों के खिलाफ किए जाने वाले ऑपरेशन तो और भी खतरनाक होते हैं. लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि अपराध से निबटने में संवैधानिक मूल्यों और कानूनों की अनदेखी की जाय. लगातार सवालों के घेरे में आ रहे पुलिस एनकाउंटर के बाद सुप्रीम कोर्ट ने एनकाउंटर को लेकर पुलिस के लिए एक गाइडलाइन भी जारी की थी, जिसमें 16 बिंदुओं पर फोकस किया गया था. इसमें यह बात भी कही गई थी कि राज्य सरकारें यह सुनिश्चित करें कि एनकाउंटर के बाद वैज्ञानिक तरीकों का प्रयोग कर के निस्पक्षता से उसकी जांच हो. अफसोस कि इन सब के बावजूद कुछ समय के अंतराल पर अब भी लगातार ऐसे फर्जी एनकाउंटर सामने आ रहे हैं.