अगर किसी देश या राज्य की आधे से अधिक आबादी दो जून की रोटी का भी जुगाड़ न कर पा रही हो तो क्या वह अपनी अर्थव्यवस्था का आकार आने वाले कुछ वर्षों के दौरान कई गुना बढ़ा सकता है? अगर सरकार आबादी के इतने विशाल हिस्से का पेट भरने के लिए मुफ्त गेहूं-चावल, दाल, तेल और नमक न केवल फौरी तौर पर बल्कि साल दर साल देने की योजना चला रही हो, तो उसके आर्थिक भविष्य के बारे में क्या अनुमान लगाया जाना चाहिए?
ये दो प्रश्न तब उठते हैं जब हमारी केंद्र सरकार प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत मुफ्त राशन वितरण को न केवल अगले छह महीने के लिए बढ़ाती है, बल्कि उसके पीछे अघोषित इरादा यह होता है कि यह सिलसिला कम से कम 2024 तक तो जारी रहेगा ही। इसी तर्ज पर उप्र सरकार मुफ्त राशन बांटने की योजना को अगले तीन महीने के लिए बढ़ा देती है।
विरोधाभास तब पैदा होता है जब केंद्र सरकार बार-बार एलान करती है कि वह राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का आकार बढ़ा कर पांच ट्रिलियन (पांच खरब) डॉलर तक कर देने की योजना पर काम कर रही है। विरोधाभास तब पैदा होता है जब उप्र सरकार अखबारों में विज्ञापन देकर किसी ऐसे महा सलाहकार की खोज करती है जो उसकी अर्थव्यवस्था का आकार एक ट्रिलियन डॉलर तक बढ़ा देने की योजना बना सके।
आंकड़े बताते हैं कि देश की कुल आबादी इस समय एक अरब चालीस करोड़ है। सरकार खुद मानती है कि मुफ्त राशन योजना से करीब अस्सी करोड़ लोग लाभान्वित होंगे। अर्थात 57% लोग राष्ट्रीय स्तर पर गरीब मान लिए गए हैं, और मुफ्त अनाज दिया जा रहा है। उप्र की कुल आबादी 24.34 करोड़ है। इसमें से पंद्रह करोड़ लोगों को मुफ्त राशन मिल रहा है।
यानी, केवल नौ करोड़ से कुछ ज्यादा लोग ही उप्र में अपने प्रयास से अपने लिए खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर सकते हैं। बाकी के पास रोजी-रोटी चलाने के लिए कोई जरिया नहीं है। केंद्र सरकार के पास अब योजना आयोग की जगह नीति आयोग है। अरविंद पनगढ़िया इस आयोग के उपाध्यक्ष थे। उनके नेतृत्व में एक टास्क फोर्स बनाई गई थी।
इसने सिफारिश की थी कि निचले तबके (आर्थिक रूप से कमजोर 40%) की आबादी की आर्थिक प्रगति पर निगाह रखी जानी चाहिए। जाहिर है कि अब इन गरीब लोगों की संख्या और बढ़ कर पचपन से साठ फीसदी तक पहुंच चुकी है। सरकार की अपनी स्वीकारोक्ति के मुताबिक गरीबों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।
विश्व बैंक के आंकड़ों पर यकीन करें तो देश की अर्थव्यवस्था का आकार इस समय 3.1 खरब डॉलर है। यानी इसमें 1.9 खरब डालर जोड़े जाने हैं। अगर उप्र सरकार कामयाब हो जाए तो आधे से ज्यादा यानी एक खरब डॉलर तो वह अकेली ही जोड़ देगी। लेकिन, पिछले पांच साल तो उस महासलाहकार की खोज में ही गुज़र गए जिससे इस तरह की सलाह और योजना की अपेक्षा की जा रही है।
इस लेख में मुफ्त राशन योजना के राजनीतिक पहलुओं पर चर्चा करने से परहेज किया गया है, बावजूद इसके कि यह योजना आर्थिक फलितार्थों की वजह से चर्चित न हो कर लाभार्थियों को वोटरों में बदलने की एक युक्ति के रूप में ही चर्चित हो रही है। मोटी समझ यही बताती है कि जब आर्थिक गतिविधियों में चौतरफा उछाल आता है तो वृद्धि दर तेजी से बढ़ती है, जिसके नतीजे के तौर पर लोगों को उत्पादक श्रम करने को मिलता है।
उनकी आमदनी बढ़ती है और वे आर्थिक रूप से सशक्त होते हैं। सरकार या किसी और के मोहताज नहीं रहते। यहां जो नजारा दिख रहा है, वह ठीक उल्टा है। आबादी के ज्यादा से ज्यादा हिस्से सरकार पर निर्भर होते जा रहे हैं। कोविड से अगर पंद्रह-बीस फीसदी आबादी को मुफ्त राशन छह महीने या साल भर के लिए दिया जाता, तो कोई बात नहीं थी। लेकिन, आधे से अधिक आबादी के लिए लगातार चल रही इस तरह की व्यवस्था पांच खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने की महत्त्वाकांक्षा की कसौटी पर फिट नहीं बैठती।
केंद्र सरकार ने आज तक ऐसी कोई ठोस योजना प्रस्तुत नहीं की, जिससे पता लगे कि पांच खरब की अर्थव्यवस्था कैसे बनेगी। अगर ऐसा हुआ तो यह बहुत बड़ा आर्थिक यज्ञ होगा। क्या इसमें देश की 57% आबादी को भी आहुति डालने का मौका मिलेगा?
(ये लेखक के अपने विचार हैं)