अभी कुछ महीनों पहले तक कहा जाता था कि भ्रष्टाचार हमारे जीवन का एक अंग बन गया है और अब इस पर बात करना बेकार है. यहां तक बातें शुरू हो गई थीं कि काली कमाई पर थोड़ा ज़्यादा टैक्स लगा दो, ताकि लोग उसे डिक्लेयर कर अपने बैंक में रख सकें, इससे पैसा विदेशी बैंकों में तो नहीं जाएगा.
लेकिन अति किसी भी चीज़ की बुरी होती है, यही कहावत हमारे समाज में प्रचलित है. भ्रष्टाचार की अति हो गई. सरकार चलाने के लिए देश लूटने की छूट देने वाला प्रधानमंत्री कार्यालय अपने मन से तो यह फैसला नहीं कर सकता. दयानिधि मारन ने संचार मंत्री रहते हुए प्रधानमंत्री कार्यालय को खत लिखा कि क़ीमतें तय करने में कोई हस्तक्षेप न करे और न ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स बने. प्रधानमंत्री ने इसे मान लिया. जब ए. राजा ने लूट और मनमानी शुरू की, तब प्रधानमंत्री ने उस समय के ट्राई के चेयरमैन नृपेंद्र मिश्र को बुलाया और बात की. नृपेंद्र मिश्र ने अपनी स्पष्ट राय दी. इसके बाद नृपेंद्र मिश्र ने प्रधानमंत्री कार्यालय को खत लिखकर सारी बातें आधिकारिक कर दीं.

जो छोटा भ्रष्टाचार करते हैं, वे भी सदमे में हैं कि इतना बड़ा भ्रष्टाचार करने वाला गिरोह भी बच सकता है क्या. जनता भी सदमे में है कि भारत जैसे महान देश में यह क्या हो रहा है. लोगों को डर है कि सरकारी भ्रष्टाचार की जब दुनिया की सूची बनेगी तो भारत उसमें सबसे ऊपर होगा. सोनिया गांधी प्रधानमंत्री नहीं बनीं, देश ने इसे काफी सराहा. पर अब जो हो रहा है, क्या उसकी रत्ती भर भी ख़बर सोनिया गांधी को नहीं थी?

इसके बाद भी प्रधानमंत्री खामोश रहे. सुब्रमण्यम स्वामी ने प्रधानमंत्री को खत लिखा, जिसका उत्तर प्रधानमंत्री ने पंद्रह महीनों तक नहीं दिया. स्वामी और प्रधानमंत्री दोनों न केवल अर्थशास्त्री हैं, बल्कि 23 साल पुराने दोस्त भी हैं. स्वामी ख़ुद भूतपूर्व मंत्री और भूतपूर्व सांसद हैं. हक़ीक़त यह है कि प्रधानमंत्री कार्यालय जब सांसदों के पत्रों का ही समय पर उत्तर नहीं देता तो भूतपूर्व सांसद तो उसके लिए कीड़े-मकोड़े हैं.
ए. राजा का भ्रष्टाचार, जिसके कारण सरकार को दो लाख करोड़ के आसपास का नुक़सान हुआ, यूं ही नहीं हुआ. इसके एवज में अगर दो प्रतिशत भी किसी के पास इस अनुकंपा की वजह से गए हों तो रकम का अंदाज़ा लगाया जा सकता है. आशंका इस बात की है कि करुणानिधि अब ए. राजा का साथ छोड़ देंगे, क्योंकि उन्हें भी ए. राजा ने सही रकम का अंदाज़ा नहीं दिया था. यह रकम हवाला के ज़रिए बाहर गई और अब मॉरीशस के रास्ते वापस हिंदुस्तान आई है. अगर किसी कंपनी के एक शेयर की क़ीमत डेढ़ सौ करोड़ रुपये रखी जाए और उसे कोई ख़रीद ले तो इसका मतलब कि पैसा सफेद होकर वापस आ रहा है.
ए. राजा का इस्ती़फा हुआ. इस्ती़फा इसलिए नहीं हुआ कि संसद नहीं चल रही थी, बल्कि इसलिए हुआ, क्योंकि पिछली पंद्रह नवंबर को इस केस की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में होनी थी. कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को लगा कि कहीं प्रधानमंत्री पर कोर्ट ने टिप्पणी कर दी तो क्या होगा? उनकी आशंका सही थी. कोर्ट ने टिप्पणी भी की और पहली बार प्रधानमंत्री को एफीडेविट देने के लिए कहा. पहली बार अदालत को लगा कि प्रधानमंत्री कार्यालय भी झूठ बोल सकता है. एफीडेविट या शपथ पत्र तभी लिया जाता है, जब यह निश्चित करना हो कि बयान बदला नहीं जाएगा. सोनिया गांधी और उनके सलाहकारों को लगा कि अब किसी मज़बूत आदमी को बचाव में उतारना चाहिए. कपिल सिब्बल को संचार मंत्रालय का अतिरिक्त चार्ज देना दस जनपथ की राय पर हुआ है. दस जनपथ को लगा कि सुब्रमण्यम स्वामी को हीरो नहीं बनने देना है और कपिल सिब्बल ने इसकी कोशिश भी शुरू कर दी है.
एक सवाल खड़ा होता है दिमाग़ में कि क्या ए. राजा अकेले इतना बड़ा काम कर सकते थे? उत्तर है नहीं, जब तक इसमें किसी आईएएस अफसर का हाथ न रहा हो. कौन है वह आईएएस अफसर, जो संचार मंत्रालय के ़फैसलों को कार्यान्वित करा सकता है और जिसके दस्तखत के बिना फाइल पर लिखा कुछ भी जाए, पर वह फैसला नहीं बन पाता. फैसला मंत्री का दस्तखत नहीं, आईएएस अफसर का दस्तखत होता है. इस अफसर को कौन तलाश करेगा और कौन पहचान करेगा. स़िर्फ और स़िर्फ सुप्रीम कोर्ट यह कर सकता है, क्योंकि आज तक किसी भी केस में कोई आईएएस अफसर फंसा ही नहीं है.
अब समय आ गया है कि भ्रष्टाचार के ऊपर देश के लोग एक बार फिर सोचें. चाहे छोटा हो या बड़ा, कांड करने में कोई पीछे नहीं है. कॉमनवेल्थ घोटाले की जांच नहीं हो पाएगी, क्योंकि उसमें देश का एक बड़ा परिवार फंसा है. संचार घोटाले को भी दब जाना चाहिए, क्योंकि इसे दबाने के लिए ऐसे क़दम उठने शुरू हो गए हैं, जिनसे लगे कि अब हम कंपनियों से पैसा वसूल लेंगे. होना यह चाहिए था कि उन सभी कंपनियों को, जिनका न कोई अनुभव है, न उनका कोई अनुभवी सहयोगी, ऐसे सभी लोगों का पैसा जब्त कर लाइसेंस रद्द कर देना चाहिए. एक बड़ी चेन होगी, जिसमें मंत्री से लेकर सेक्रेटरी, मंत्री का स्टाफ तथा औद्योगिक घरानों को एक साथ, एक बराबर अपराधी मानना चाहिए.
अब तो हद हो गई है. भारत की सेना भी भ्रष्टाचार का उदाहरण बनने जा रही है. एक छोटा उदाहरण आदर्श सोसाइटी घोटाला है, लेकिन पुणे-मुंबई के साथ लखनऊ में स्थित सेना के मध्य कमान की ज़मीन हड़पी गई है, बेची गई है. मध्य कमान की ज़मीन जहां-जहां है, वहां मॉल्स हैं, घर हैं, दुकानें हैं. इसमें सेना के ही लोग शामिल हैं. यह हमारी शानदार सेना है, जो चीन के अलावा किसी युद्ध में शर्मिंदा नहीं हुई. जवानों ने हर युद्ध में आगे बढ़कर जानें दीं. लेकिन जो लोग सीमा पर नहीं जाते, सेना के दूसरे अंग संभालते हैं, उनकी ज़िम्मेदारी ज़्यादा होती है. पर ऐसे लोगों ने भारतीय सेना को शर्मसार कर दिया है. आज आवश्यकता है कि भारतीय सेना के ऊपर संसद की संयुक्त समिति बने और ऐसे लोगों की पहचान करे, जिन्होंने भ्रष्टाचार में हाथ बंटाया है.
जो छोटा भ्रष्टाचार करते हैं, वे भी सदमे में हैं कि इतना बड़ा भ्रष्टाचार करने वाला गिरोह भी बच सकता है क्या. जनता भी सदमे में है कि भारत जैसे महान देश में यह क्या हो रहा है. लोगों को डर है कि सरकारी भ्रष्टाचार की जब दुनिया की सूची बनेगी तो भारत उसमें सबसे ऊपर होगा. सोनिया गांधी प्रधानमंत्री नहीं बनीं, देश ने इसे काफी सराहा. पर अब जो हो रहा है, क्या उसकी रत्ती भर भी ख़बर सोनिया गांधी को नहीं थी? वह कहती हैं कि विकास हुआ, पर नैतिक मूल्य कमज़ोर हुए हैं. अगर यह एहसास है तो इसके लिए देश के सामने उदाहरण भी सर्वोच्च लोगों को ही प्रस्तुत करना होगा. लेकिन आज इसके लिए कौन तैयार है सोनिया जी… देश के लोग तैयार हों, तभी कुछ होगा… लेकिन देश के लोगों को तैयार करने वाले लोग भी तो चाहिए…

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