वर्ष 2014 जाते-जाते एक ऐसा घाव दे गया, जिसका दर्द पूरी दुनिया ने महसूस किया. 16 दिसंबर इस वर्ष का सबसे मनहूस दिन साबित हुआ, जब 132 मासूम बच्चों समेत 141 लोगों को तालिबान के दरिंदों ने मौत के घाट इतार दिया. इस घटना पर न केवल पाकिस्तान, बल्कि भारत समेत पूरी दुनिया ने शोक मनाया. ऐसा पहली बार हुआ है कि मासूम बच्चों को इतनी बड़ी संख्या में आतंकवाद का निशाना बनाया गया हो. पाकिस्तान में आतंकवादियों का हमला कोई नई बात नहीं है, लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि पाकिस्तान ने कभी आतंकवाद को गंभीरता से नहीं लिया. हाफिज़ सईद, हक्कानी और पाकिस्तानी तालिबान उसकी ज़मीन पर फलते-फूलते रहे, लेकिन उनकी रोकथाम के लिए कभी कोई गंभीर क़दम नहीं उठाया गया. अब जबकि वे भयावह रूप धारण कर चुके हैं और पाक को ही ज़ख्म दे रहे हैं, तो पाकिस्तान ने दर्द का एहसास किया, लेकिन एक बड़ा सवाल यह है कि क्या पाकिस्तान इस दर्द की दवा के लिए गंभीर हो पाएगा? सर्वदलीय बैठक में आतंकवादियों को मिटाने का जो संकल्प उसने किया है, क्या उस पर क़ायम रह पाएगा? एक अहम बात यह भी है कि पाकिस्तान आतंकवाद के ख़िलाफ़ ऑपरेशन में आतंकवादियों का मापदंड तय करता है. अगर वह ऐसे संगठनों को आतंकवादी नहीं मानता, जो पाकिस्तान में तो कुछ न करें, लेकिन वहां से प्रशिक्षण हासिल करके दूसरे देशों में खून की होली खेलें, तो ऐसी स्थिति में पाकिस्तान कभी भी आतंकवाद से निपटने में सफल नहीं हो सकेगा. पाकिस्तान पहले भी ऐसी ग़लती कर चुका है. उसके विदेश मंत्रालय से संबंध रखने वाले सरताज अज़ीज़ जैसे लोग यह बयान दे चुके हैं कि हम उन्हें क्यों निशाना बनाएं, जो हमें नुक़सान नहीं पहुंचाते. तो ऐसे में, तालिबानियों का हौसला बढ़ेगा ही. अब पाकिस्तान को चाहिए कि वह आतंकवाद के ख़ात्मे के लिए हर उस संगठन को निशाना बनाए, जो अपनी बात बंदूक की नोंक पर मनवाना चाहता है. बंदूक का इस्तेमाल लाल मस्जिद और पेशावर के स्कूल में हो या फिर जम्मू-कश्मीर में.
विशेषज्ञों का मानना है कि पाकिस्तान को आतंकवाद ख़त्म करने के लिए न केवल लड़ाका संगठनों, बल्कि वहां की जनता, राजनीतिज्ञों और स्वयं सेना के अंदर एक विशेष वर्ग से निपटना होगा. विशेषज्ञों का मानना है कि पाकिस्तान की सेना, सरकारी अधिकारियों और राजनीतिज्ञों में बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है, जो धार्मिक मामलों में कट्टर हैं. ये लोग तालिबानियों के प्रति नरमी रखते हैं. इस वर्ग का पाकिस्तान की राजनीति पर गहरा प्रभाव है. पाकिस्तान में चाहे जिसकी भी सरकार हो, इनके विरुद्ध कार्यवाही नहीं हो पाती. पंजाब के गवर्नर सलमान तासीर का क़त्ल हमारे सामने है. 2011 में उन्हें उग्रवादी संगठनों ने मार दिया था. पाकिस्तानी उलेमाओं की एक बड़ी संख्या के अलावा तालिबानी उनके विरोधी थे, क्योंकि वह जनरल जिया की सरकार को काला दौर करार देने के अलावा ताज़ीरात-ए-पाकिस्तान में एक संवैधानिक अनुच्छेद सी-395 का विरोध करते थे. उनके हत्यारों को आज तक सजा नहीं मिल सकी, क्योंकि एक बड़ा धार्मिक वर्ग रुकावट बन रहा है. ज़ाहिर है, यह वर्ग राजनीति पर गहरा प्रभाव रखता है और इसका समर्थन हाफिज़ सईद जैसे लोगों को हासिल है. यही वजह है कि ज़कीउर्रहमान लखवी जैसे आतंकवादी को आतंकवाद निरोधी अदालत से ज़मानत मिल जाती है, जबकि मुंबई हमले में उसके शामिल होने के पुख्ता सबूत मौजूद हैं. लखवी की ज़मानत पर भारत ने कड़ी आपत्ति व्यक्त की थी और संसद में निंदा की, तब जाकर पाकिस्तान सरकार ने इस मामले को हाईकोर्ट ले जाने का ़फैसला किया. ऐसी सोच रखने वाले लोगों पर दबाव बनाए बिना पाकिस्तान सरकार के लिए आतंकवाद को जड़ से उखाड़ना टेढ़ी खीर साबित होगा.
पाकिस्तानी उलेमाओं की एक बड़ी संख्या के अलावा तालिबानी उनके विरोधी थे, क्योंकि वह जनरल जिया की सरकार को काला दौर करार देने के अलावा ताज़ीरात-ए-पाकिस्तान में एक संवैधानिक अनुच्छेद सी-395 का विरोध करते थे. उनके हत्यारों को आज तक सजा नहीं मिल सकी, क्योंकि एक बड़ा धार्मिक वर्ग रुकावट बन रहा है. ज़ाहिर है, यह वर्ग राजनीति पर गहरा प्रभाव रखता है और इसका समर्थन हाफिज़ सईद जैसे लोगों को हासिल है. यही वजह है कि ज़कीउर्रहमान लखवी जैसे आतंकवादी को आतंकवाद निरोधी अदालत से ज़मानत मिल जाती है, जबकि मुंबई हमले में उसके शामिल होने के पुख्ता सबूत मौजूद हैं.
इसका यह मतलब नहीं है कि पाकिस्तान दहशतगर्दी को ख़त्म नहीं कर सकता. अगर वह वोट बैंक की राजनीति से ऊपर उठकर सच्चाई के साथ क़दम आगे बढ़ाए, तो अपनी ज़मीन को आतंकवादियों के लिए तंग कर सकता है. विशेष रूप से पेशावर स्कूल हमले के बाद फिलहाल आतंकवादियों के ख़िलाफ़ एक आम लहर है और उस लहर का फ़ायदा उठाकर पाकिस्तान ज़र्ब-ए-अज़ब और ऑपरेशन ख़ैबर-1 को कामयाब बना सकता है. इस समय आतंकवादियों के ख़िलाफ़ सभी राजनीतिक दल भी सरकार के साथ हैं. सरकार इसका फ़ायदा उठा सकती है, लेकिन पाकिस्तान की मौजूदा स्थिति को देखते हुए विश्वास के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि वह इस संबंध में गंभीर है. अगर वह गंभीर होती, तो हाफ़िज सईद यह कहने की जुर्रत न करता कि पेशावर स्कूल कांड के पीछे भारत का हाथ है और बदले में वह भी भारत को ऐसा ही दर्द देगा. पाकिस्तान के पूर्व सेना प्रमुख परवेज़ मुशर्रफ का बयान भी आतंकवादियों से ध्यान भटकाने की कोशिश लगता है. उन्होंने कहा कि भारत अफगानिस्तान को पाकिस्तान के ख़िलाफ़ इस्तेमाल कर रहा है. पाकिस्तानी तालिबान की ओर से हमले की ज़िम्मेदारी लेने के बावजूद उसका आरोप भारत पर डालकर तालिबानियों के प्रति पाई जाने वाली नफ़रत कम करने की कोशिशें शुरू हो चुकी हैं. इस समय पाकिस्तान की विभिन्न जेलों में 500 ऐसे कैदी हैं, जो आतंकवाद के आरोप में सजा-ए-मौत पा चुके हैं, लेकिन 2008 में रोक लगने के कारण उनकी फांसी रोक दी गई थी. लेकिन, 16 दिसंबर की घटना के बाद प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के आदेश पर ब्लैक वारंट जारी करते हुए फांसी की सजा दोबारा बहाल कर दी गई. ब्लैक वारंट के बाद कई लोगों को फांसी दी जा चुकी है. 50 से अधिक कैदियों की दया याचिकाएं खारिज की जा चुकी हैं. लेकिन, समस्या केवल इन 500 कैदियों, ज़र्ब-ए-अज़ब और ऑपरेशन ख़ैबर में तेज़ी लाने तक सीमित नहीं है, बल्कि हाफ़िज सईद और हक्कानी जैसे शांति विरोधी चेहरों को भी गिरफ्त में लेने की ज़रूरत है. वरना पाकिस्तान कभी भी इस स्थिति में नहीं आ सकेगा कि अपनी ज़मीन से आतंकवाद का ख़ात्मा कर सके. हाफिज सईद और हक्कानी जैसे लोग बेशक पाकिस्तान को प्रत्यक्ष नुक़सान नहीं पहुंचाते, लेकिन उनके द्वारा अन्य आतंकवादी संगठनों को संरक्षण दिया जाता है. अब अगर वास्तव में पाकिस्तान सरकार अपनी ज़मीन से आतंकवाद को मिटाना चाहती है और यह चाहती है कि फिर से पेशावर जैसी घटना न हो, तो उसे इन तमाम संगठनों, ताकतों के विरुद्ध सख्त क़दम उठाने होंगे.