भारतीय जनता पार्टी की सरकार है और गृह मंत्री की राय के बिना राज्यपाल यह फैसला नहीं करते कि वह पहले अभिभाषण देंगे और फिर विधानसभा में विश्वास मत का परीक्षण होगा. यह तर्क समझ में नहीं आता कि बजट सत्र का महत्व स्वयं राज्यपाल समझते हैं या फिर नहीं समझते. दरअसल, बजट सत्र चाहे लोकसभा का हो या राज्यों के विधान मंडल का हो, उनमें वहां की सरकार का नज़रिया परिलक्षित होता है और सरकार की आर्थिक नीति संबंधी मसौदे को ही राष्ट्रपति या राज्यपाल अपने अभिभाषण में सामने रखते हैं. बिहार में 20 फरवरी को होने वाले विधान मंडल सत्र में राज्यपाल अभिभाषण देंगे और वह अभिभाषण मौजूदा सरकार यानी जीतन राम मांझी की सरकार द्वारा बनाया गया बजट भाषण होगा. राज्यपाल उसे पढ़ देंगे और उसके बाद विश्वास मत रखा जाएगा.
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने एक जबरदस्त सच्चाई उजागर की है. उन्होंने कहा कि नरेंद्र मोदी जी ने चुनाव प्रचार के दौरान जब यह कहा कि हरेक भारतीय के बैंक खाते में 15 से 20 लाख रुपये आ जाएंगे, यदि देश में काला धन वापस आ जाता है और इसे बार-बार इस तरह प्रस्तुत किया गया कि अगर भाजपा की सरकार आती है, तो हर ग़रीब के बैंक खाते में 15 से 20 लाख रुपये आ जाएंगे. इस स्थिति ने हिंदुस्तान के करोड़ों लोगों को उत्साहित कर दिया और उन्हें लगा कि अब तक जितनी सरकारें रही हैं, उन्होंने आम लोगों के लिए कुछ नहीं किया, लेकिन यह पहली सरकार बन रही है, जो हर भारतीय के बैंक खाते में 15 से 20 लाख रुपये देगी. इस बयान से ग़रीब बहुत उत्साहित हुआ और भाजपा को भरपूर समर्थन देने के पीछे उसकी यह आशा भी थी.
अब श्री अमित शाह जी ने कहा है कि यह बयान राजनीतिक बयान था या चुनावी जुमला था. इसका मतलब क्या हम यह मानें कि जितने भी वादे सरकार बनने से पहले भाजपा या प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार श्री नरेंद्र मोदी ने देश के लोगों से किए थे, वे सब चुनावी वादे थे या चुनावी जुमले थे, जिनका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं और ऐसी बातें वोट लेने के लिए चुनावों में की जाती हैं? अगर सच्चाई यह है तो मानना चाहिए कि भारतीय जनता पार्टी राजनीति की एक ऐसी परिभाषा गढ़ रही है, जिसमें सच्चाई सर्वोपरि नहीं है, बल्कि सच्चाई को भटकाने वाली बातें ज़्यादा सच हैं.
इसी तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वादे कि हर घर को 24 घंटे बिजली, हरेक को घर, हरेक को खाना, जिन्होंने लोकसभा में ब्रह्मास्त्र का काम किया, वे दिल्ली विधानसभा चुनाव में काम नहीं आए. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि मेरी किस्मत से पेट्रोल के दाम कम हुए हैं और देश में महंगाई कम हुई है, तो आप किसी बदनसीब को वोट क्यों दें, आप नसीब वाले को वोट दें यानी उनकी पार्टी को वोट दें. उन्होंने अपना चेहरा सामने रखा और कहा कि जो देश का मूड है, वही दिल्ली का मूड है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह भी कहा कि जिसे धरना-प्रदर्शन आता है, उसे धरना-प्रदर्शन का काम दो, जिसे झाड़ू लगाना है, उसे झाड़ू लगाने का काम दो और जिसे सरकार चलानी आती है, उसे सरकार चलाने का काम दो. अब अगर दिल्ली के चुनाव का विश्लेषण करें, तो क्या कहेंगे? क्या हम यह मानें कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सारी बातों को दिल्ली के लोगों ने नकार दिया? उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नसीब वाले से बदनसीब बना दिया? उन्होंने प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी को अच्छा शासन चलाने वाला नहीं माना? निष्कर्ष लोग अपनी-अपनी तरह से निकालेंगे, पर इसका एक निहितार्थ तो निकलता है.
निहितार्थ यह निकलता है कि राजनीति में अगर आप विनम्रता नहीं अपनाएंगे, तो लोग आपको पसंद नहीं करेंगे. अगर आप राजनीति में कुछ करते हुए नहीं दिखेंगे, तो लोग आपको पसंद नहीं करेंगे. और, यह बात मैं प्रधानमंत्री जी की तरफ़ इशारा करके कह रहा हूं. मुझे नहीं पता कि उन्हें लोग यह बात बता रहे हैं कि नहीं कि उन्होंने जनता के बीच जितनी आशाएं पैदा की थीं, उनसे यह भावना फैल गई थी कि सरकार आते ही काम करना शुरू कर देगी. लेकिन, अब जबकि नौ महीने बीत चुके हैं और सरकार काम करते हुए नहीं दिखाई देती है, बल्कि उसकी जगह यह वाक्य सुनाई देता है कि जब साठ साल में लोगों ने काम नहीं किया, तो हमसे कैसे साठ दिन में काम करने की अपेक्षा की जा रही है, तो इससे लोगों की आशाएं टूटती हैं. अब लोग खुलेआम कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स़िर्फ बातें ही करते हैं, काम करने की दिशा में एक क़दम भी नहीं बढ़ रहे.
हो सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी ने काम की बहुत अच्छी योजनाएं बनाई हों. हो सकता है कि प्रधानमंत्री मोदी ने देश को बदलने का कोई नक्शा दिमाग में रखा हो, पर वह नक्शा पिछले बजट में नज़र नहीं आया और न ही वित्त मंत्री के बजट भाषण में नज़र आया था. वह भाषण, अगर चेहरा हटा दें और नाम बदल दें, तो पुराने वित्त मंत्री पी चिदंबरम का ही भाषण लग रहा था. अब फिर 24 फरवरी से बजट सत्र शुरू हो रहा है. यह बजट सत्र बताएगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने द्वारा देश में जगाए गए सपने पूरा करने के लिए या देश के उन करोड़ों लोगों की ज़िंदगी में बदलाव लाने के लिए क्या योजनाएं सामने ला रहे हैं, जिन्होंने उन्हें वोट दिया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या उनके दल को बड़े पैसे वालों ने वोट ज़रूर दिया होगा, पर उन्होंने वोट से ज़्यादा चुनाव लड़ने के लिए पैसा दिया. पर वह प्रधानमंत्री बनने के लिए काफी नहीं था. प्रधानमंत्री बनने के लिए जिन लोगों ने वोट दिया, उनमें देश के सत्तर प्रतिशत ग़रीब, किसान, मज़दूर, सड़कों पर रोजाना जीने के लिए जद्दोजहद करने वाले लोग और नौज़वान शामिल थे. ऐसे लोग, जिन्हें यह आशा थी कि भाजपा की सरकार आने के बाद सचमुच उनकी ज़िंदगी में कुछ रोशनी आएगी.
भारतीय जनता पार्टी जोर-शोर से ज़रूर यह प्रचार कर रही है कि लोगों की ज़िंदगी खुशहाल हो गई और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह खुलेआम कह रहे हैं कि लोग 15 सौ से लेकर 45 सौ रुपये तक, सारा खर्च करने के बावजूद, प्रति माह बचा रहे हैं यानी बैंक में रख रहे हैं. ये सारे बयान इस देश के लोगों के लिए खासे हैरत भरे हैं, क्योंकि लोगों के बैंक खाते में 15 रुपये भी हर महीने जमा नहीं हो रहे हैं, 15 सौ और 45 सौ रुपये तो बहुत दूर की बात है. यह मैं उनकी बात कर रहा हूं, जो वोट देते हैं और सरकारें बनाते हैं. प्रचार करने से जनता के पेट में रोटी नहीं पहुंचाई जा सकती है. टीवी पर शोर करने से लोगों के घर का अंधेरा नहीं दूर हो पाता. इसके लिए आवश्यक है कि उन लोगों की ज़िंदगी में कुछ सकारात्मक बदलाव हो, जिन्होंने बडी आशाओं के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या भाजपा को वोट दिया.
ये बातें मैं इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि भाजपा जो ग़लती दिल्ली में कर चुकी है कि उसने जैसे वादे किए, जिस तरह चुनाव प्रचार किया और जो शैली अपनाई, उसका बड़ा नतीजा स़िर्फ तीन सीटों पर जीत के रूप में आया, बाकी 67 सीटों पर वह चुनाव हार गई. अब वही काम वह बिहार में कर रही है.
भारतीय जनता पार्टी की सरकार है और गृह मंत्री की राय के बिना राज्यपाल यह ़फैसला नहीं करते कि वह पहले अभिभाषण देंगे और फिर विधानसभा में विश्वास मत का परीक्षण होगा. यह तर्क समझ में नहीं आता कि बजट सत्र का महत्व स्वयं राज्यपाल समझते हैं या फिर नहीं समझते. दरअसल, बजट सत्र चाहे लोकसभा का हो या राज्यों के विधान मंडल का हो, उनमें वहां की सरकार का नज़रिया परिलक्षित होता है और सरकार की आर्थिक नीति संबंधी मसौदे को ही राष्ट्रपति या राज्यपाल अपने अभिभाषण में सामने रखते हैं. बिहार में 20 फरवरी को होने वाले विधान मंडल सत्र में राज्यपाल अभिभाषण देंगे और वह अभिभाषण मौजूदा सरकार यानी जीतन राम मांझी की सरकार द्वारा बनाया गया बजट भाषण होगा. राज्यपाल उसे पढ़ देंगे और उसके बाद विश्वास मत रखा जाएगा. जीतन राम मांझी अगर विश्वास मत नहीं जीतते हैं, यहां एक बहुत बड़ा अगर है. अगर विश्वास मत नहीं जीतते हैं, तो फिर क्या दूसरा बजट सत्र होगा? आर्थिक नीति का मसौदा, जो नया मुख्यमंत्री बनेगा, उसका होगा? यह सवाल इसलिए है कि क्या इससे एक नया संवैधानिक संकट नहीं खड़ा होने जा रहा है?
क्या राज्यपाल मानते हैं कि जीतन राम मांझी की सरकार निश्चित रूप से विश्वास मत जीतेगी और अगर विश्वास मत जीतेगी, तो उसमें जिस पार्टी के जीतन राम मांझी थे, उसके कितने लोगों को तोड़कर बहुमत बनेगा? क्या यह एक बड़े राजनीतिक संकट को उत्पन्न करने का आधार तो नहीं बन जाएगा?
भारतीय जनता पार्टी को खुलेआम कहना चाहिए कि वह जीतन राम मांझी का समर्थन करती है और जीतन राम मांझी महादलित समुदाय से आते हैं, जिसका सबसे बड़ा पक्षधर अगर कोई दल इस समय है, तो वह भारतीय जनता पार्टी है. भारतीय जनता पार्टी को जीतन राम मांझी को अपने साथ मिलाकर मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाना चाहिए. और, मुझे इसमें कोई दो राय नहीं दिखती कि अगर भारतीय जनता पार्टी जीतन राम मांझी को अपना मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करती है, तो उसे बिहार में नीतीश कुमार को चुनाव में हराने के लिए बहुत बड़ा अवसर हासिल हो जाएगा. इस राजनीतिक लड़ाई में भारतीय जनता पार्टी ने महादलितों का जिस तरह समर्थन किया, उसका यह स्वाभाविक परिणाम हो सकता है कि जीतन राम मांझी को भारतीय जनता पार्टी अपना नेता स्वीकार कर बिहार में चुनाव की लड़ाई लड़े.
पर इस सारी चीज में, जिसे राज्यपाल संविधान सम्मत कहते हैं या भारतीय जनता पार्टी संविधान सम्मत कहती है या जनता दल यूनाइटेड संविधान सम्मत कहता है, कोई भी संविधान की धाराओं और भाषा का उल्लेख नहीं करता. जिस तरह वेद, पुराण और कुरान का नाम लेकर असत्य चलाया जाता है, उसी तरह ही संविधान का नाम लेकर भी असंवैधानिक काम होते हैं. बिहार में एक नया राजनीतिक संकट पैदा होने जा रहा है और यह संकट दोतरफ़ा है. पहला संकट यह कि अगर राज्यपाल जीतन राम मांझी सरकार का दिया हुआ अभिभाषण पढ़ते हैं, तो क्या फिर सत्र स्थगित कर नया बजट सत्र बुलाया जाएगा और फिर वह उद्घाटन भाषण देंगे? और दूसरा यह कि अगर जीतन राम मांझी विश्वास मत जीतते हैं, तो क्या यह दलीय व्यवस्था को तोड़ने का प्रयास राज्यपाल द्वारा नहीं माना जाएगा? वैसे राज्यपाल महोदय उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष रह चुके हैं और विधानसभा अध्यक्ष रहते हुए उनके द्वारा लिए गए बहुत सारे ़फैसले विवादास्पद रहे हैं. बिहार में भी राज्यपाल महोदय ने एक संगीन संवैधानिक विवाद उत्पन्न कर दिया है. मजे की बात यह है कि इस संवैधानिक विवाद का निपटारा भी उन्हें अपने अभिभाषण के बाद विधानसभा में विश्वास मत के शक्ति परीक्षण के बाद करना पड़ेगा. शायद राज्यपाल महोदय ऐसी स्थिति को अपने लिए उपयुक्त मानते हों. लेकिन, अब तक ऐसी स्थिति स़िर्फ एक बार आंध्र प्रदेश में आई, जिसका हल तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने निकाला था और तब तत्कालीन प्रधानमंत्री ने एक सही ़फैसला लिया था. अब बिहार विधानसभा के अंदर होने वाले शक्ति परीक्षण में जो संवैधानिक संकट उत्पन्न होगा, उसका हल राज्यपाल महोदय राष्ट्रपति शासन लगाकर करते हैं या जीतन राम मांझी को दोबारा शक्ति परीक्षण में विजयी घोषित करते हैं या फिर किसी नए को मुख्यमंत्री बनाते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा. लेकिन, राज्यपाल महोदय ने गुत्थी तो उलझा ही दी है और भारतीय जनता पार्टी को एक महादलित नेता चुनने का अवसर मिल गया है, जिसके नेतृत्व में वह बिहार विधानसभा का चुनाव लड़ सकती है.
मैं यह फिर कह रहा हूं कि भारतीय जनता पार्टी का यह मास्टर स्ट्रोक हो सकता है कि वह जीतन राम मांझी को भारतीय जनता पार्टी का नेता घोषित करे और उनके नेतृत्व में विधानसभा का चुनाव लड़े. इससे भारतीय जनता पार्टी का अपने वोट और महादलितों के वोट मिलकर नीतीश कुमार को हराने का काम बखूबी करेंगे.